सन् 1976 में हरनामसिंह रवैल की फिल्म "लैला मजनूँ" से रंजीता ने हिन्दी फिल्मी दुनिया में कदम रखा। फिल्म और टेलीविजन इंस्टीट्यूट से आई रंजीता कौर को अपनी पहली ही फिल्म ऋषि कपूर के साथ मिली जो खुद भी अपनी पहली ही फिल्म बॉबी से स्टार हो गए थे, जिस फिल्म ने कामयाबी के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए थे और अब वे एक स्थापित सितारे बन चुके थे।
इस पारंपरिक दुखांत प्रेम कहानी पर इससे पहले भी शम्मी कपूर और जद्दनबाई अभिनीत फिल्म बन चुकी थी, लेकिन कहा जाता है ना कि प्रेम कहानियाँ कभी पुरानी नहीं होती हैं! ठीक उसी तरह एक बार फिर फिल्मी परदे पर लैला मजनूँ की कहानी दोहराई गई और इस बार शम्मी कपूर के भतीजे ने पंजाब की रंजीता कौर के साथ इस फिल्म को निभाया।
रंजीता की खुशकिस्मती से "लैला मजनूँ" के संगीत ने धूम मचा दी। दो धाकड़ संगीतकार मदनमोहन और जयदेव ने मिलकर जो धुनें दीं और साहिर ने जो इन धुनों को जादू बख्शा, उसने फिल्म को सफल बनाया।
साथ ही इस फिल्म ने हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री को एक और हीरोइन दी, जिसने आगे चलकर राजश्री की "अँखियों के झरोखों से" और फिर मिथुन चक्रवर्ती के साथ "तराना" जैसी फिल्में की।
रंजीता ने या तो ज्यादातर कम बजट की फिल्में की या फिर "राजपूत" जैसी मल्टीस्टारर फिल्में। उनकी अधिकांश फिल्मों का संगीत पक्ष बहुत मजबूत होता था, इसका उन्हें भी फायदा मिला।
सत्तर का दशक हिन्दी फिल्मों के लिए बहुत सारे नए ट्रेंड्स लेकर आया...। एक तरफ आरडी और किशोर की जुगलबंदी से उभरा गैर-परंपरागत-सा संगीत था तो दूसरी तरफ प्रेम कहानी के पारंपरिक खाँचों से निकलकर युवा आक्रोश को रोशन करते अमिताभ का आगमन...।
1975 तो जैसे हिन्दी फिल्मों के लिए टर्निंग पाइंट था...। "शोले" ने फिल्म में जिस तरह की अभिव्यक्ति को जन्म दिया और अमिताभ ने हिन्दी फिल्मों को जिस तरह की एक नई भाषा दी, उसका हिन्दी फिल्मों के ट्रेंड पर दूरगामी प्रभाव पड़ा। उसी दौर में रंजीता ने हिन्दी फिल्मों में प्रवेश किया, जब हेमा मालिनी, रेखा, जीनत अमान और परवीन बाबी अपने व्यस्ततम दौर में थीं। तब अपने गैर-पारंपरिक चेहरे, लेकिन अभिनय की ट्रेनिंग के दम पर आई रंजीता ने "लैला मजनूँ" में अपनी छाप छोड़ी।
"लैला मजनूँ" की सफलता के आधार पर उन्हें बीआर चोपड़ा की संजीव कुमार और विद्या सिन्हा अभिनीत कुछ अलग टेस्ट की फिल्म "पति, पत्नी और वो" में काम मिला। यह एक हल्की-फुल्की कॉमेडी फिल्म थी, जिसमें रंजीता ने पत्नी की बीमारी के किस्से गढ़ने वाले बॉस से हमदर्दी रखने वाली ऐसी युवती का रोल किया, जो अनजाने में पति-पत्नी के बीच तनाव की वजह बन जाती है।
इसके बाद रंजीता ने सचिन के साथ राजश्री प्रोडक्शन की "अँखियों के झरोखों से" की, जो जबरदस्त हिट रही। एक अँगरेजी उपन्यास पर आधारित इस सीधी-सरल प्रेमकथा में रंजीता ने कैंसर से ग्रस्त युवती का रोल कर अपनी सादगी व अंडरस्टेटमेंट से दर्शकों को प्रभावित किया। फिर मिथुन चक्रवर्ती के साथ राजश्री प्रोडक्शन की ही "तराना" में उन्होंने प्रशंसा पाई।
उस दौर में हर हीरोइन का सपना होता था अमिताभ बच्चन के साथ काम करना। रंजीता के लिए यह सपना पूरा हुआ "सत्ते पे सत्ता" के साथ। इसमें कलाकारों की भीड़ में उनका एक छोटी मगर अहम् रोल था, वह भी "दूसरे" अमिताभ बच्चन (अमिताभ का इसमें डबल रोल था) के अपोजिट।
विजय आनंद निर्देशित मल्टीस्टारर "राजपूत" में वे विनोद खन्ना के अपोजिट हीरोइन बनीं। अमोल पालेकर के साथ उन्होंने "दामाद" और "मेरी बीवी की शादी" जैसी कॉमेडी फिल्में कीं, तो दीपक पाराशर व राज बब्बर के साथ "आप तो ऐसे न थे" जैसे प्रेम त्रिकोण में काम किया।
रंजीता के खाते में कोई मेगा हिट फिल्म नहीं हो, लेकिन छोटी-छोटी मासूम-सी फिल्मों में अभिनय कर रंजीता ने हिन्दी फिल्मों की परियों में अपना नाम दर्ज करा लिया है। इस दौरान उन्होंने सचिन से लेकर अमिताभ बच्चन तक और मिथुन चक्रवर्ती से लेकर विनोद खन्ना तक अपने दौर के सभी बड़े सितारों के साथ काम किया।
अस्सी के दशक में कुछ मिथुन चक्रवर्ती के साथ कथित संबंधों के चलते, कुछ अपनी तुनकमिजाजी के किस्सों के कारण और कुछ हद तक नए दौर के अनुसार अंग प्रदर्शन करने से इंकार के कारण उनका करियर पिछड़ने लगा।
"तेरी कसम" में युवा दिलों की धड़कन कुमार गौरव की दीदी का रोल करके उन्होंने एक तरह से हीरोइन के रूप में अपने करियर को अलविदा कह दिया। बाद में वे एक-दो टीवी सीरियलों में भी दिखाई दीं, लेकिन जल्दी ही उन्होंने उससे किनारा कर लिया।
वे "अँखियों के झरोखों से" के लिए बेस्ट एक्ट्रेस, "पति, पत्नी और वो" तथा 1982 की फिल्म "तेरी कसम" के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस के तौर पर फिल्म फेयर पुरस्कारों के लिए नामांकित हुई थीं, लेकिन उन्हें एक बार भी पुरस्कार नहीं मिल पाया।