सुलोचना को प्यार से सुलु कहा जाता है। 12वीं भी पास नहीं कर पाई। उसका एक बेटा और पति है। मध्यम उम्र और मध्यमवर्गीय परिवार में रहने वाली सुलु की दो बहनें नौकरी करती हैं और घर बैठ कर रेडियो सुनने वाली सुलु को नीचा दिखाने का कोई अवसर नहीं छोड़ती। लेकिन सुलु को इस बात को लेकर कोई कड़वाहट नहीं है। वह हंसमुख हैं और अपनी जिंदगी से खुश है। उसका पति तो एकदम 'गाय' है।
सुलु की जिंदगी में तब बदलाव आता है जब वह अपना इनाम लेने रेडियो स्टेशन जाती है और कुछ दिनों में आरजे बन जाती है। उसका शो रात में प्रसारित होता है और लोगों को वह अपनी बातों से खुश करने की कोशिश करती है। आरजे बन कर सुलु की खुशियां ज्यादा दिनों कायम नहीं रह पाती क्योंकि इसका असर उसकी निजी जिंदगी पर पड़ने लगता है।
सुरेश त्रिवेणी द्वारा लिखी कहानी बेहद सरल है, इसमें आगे क्या होने वाला है यह पता करना मुश्किल नहीं है, इसके बावजूद यह फिल्म आपको बांध कर रखती है तो इसका श्रेय सुलु के किरदार और ऐसे कई दृश्यों को जाता है जो आपको हंसाते और इमोशनल करते हैं।
फिल्म की शुरुआत दमदार नहीं है, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतने लगता है फिल्म की पकड़ मजबूत होती जाती है। एक मध्यमवर्गीय परिवार की मुश्किलों को बेहद बारीकी से दिखाया गया है। सुलु और उसकी बहनों वाले और सुलु तथा उसके पति के बीच के दृश्य बढ़िया बने हैं।
रेडियो स्टेशन जाकर सुलु का आरजे के लिए ऑडिशन देना, सेक्सी स्टाइल में 'हैलो' बोलना, श्रोताओं से बातें करने वाले दृश्य बहुत अच्छे लिखे गए हैं। साड़ी पहने सुलु कहती हैं कि वह आरजे बनना चाहती है तो सबसे पहले उसके हुलिए को देखा जाता है, मानो आरजे के लिए अच्छी आवाज जरूरी नहीं है बल्कि लुक है। इस तरह के सीन लेखक और निर्देशक के कौशल को दर्शाते हैं।
फिल्म में सबसे अच्छी बात यह है कि सुलु किसी के लिए अपने अंदर कोई परिवर्तन नहीं करती। उसका वजन ज्यादा है, वह साड़ी पहनती है, उसका लुक आम भारतीय महिला की तरह है, लेकिन इसमें कोई बदलाव किए बिना जैसी है वैसी ही बनी रहती है, जबकि उसके साथ काम करने वाले लोग 'हाई-फाई' नजर आते हैं।
इंटरवल तक तो फिल्म बेहतरीन है। हल्के-फुल्के दृश्यों के कारण बहती हुई लगती है। इंटरवल के बाद फिल्म में थोड़ी दरारें पैदा होती हैं। जैसे सुलु के कारण उसके पति का असुरक्षित महसूस करना। यहां पर थोड़ी जल्दबाजी की गई है। साथ ही सुलु के बेटे को लेकर जो ड्रामा गढ़ा गया है वो सतही है। यहां पर लेखकों के हाथ से फिल्म फिसल जाती है। ऐसा लगता है कि एक हल्की-फुल्की फिल्म में फैमिली ड्रामा घुसेड़ने की कोशिश की जा रही है, लेकिन ये रुकावटें फिल्म पर बहुत ज्यादा असर नहीं डालती।
निर्देशक के रूप में सुरेश त्रिवेणी को अपनी लिखी कहानी को ज्यादा करीब से जानते थे, इसलिए उनका काम आसान रहा। उन्होंने अपने प्रस्तुतिकरण को सिम्पल रखा है। सुलु के पति का एक डांस है जिसमें वह बॉलीवुड हीरो की तरह शर्ट निकाल कर घूमाता है और जेब में रखी चिल्लर गिर जाती है, एक महिला ड्राइवर का पाकिस्तानी गायकों के गीतों को इसलिए नहीं सुनना कि कोई बखेड़ा न खड़ा हो जाए, ऐसे दृश्य निर्देशक की पकड़ को दिखाते हैं।
विद्या बालन ने लगे रहो मुन्नाभाई में भी आरजे की भूमिका निभाई थी, लेकिन यहां पर उनका रोल रियलिटी के ज्यादा करीब है। उनका अभिनय लाजवाब है। ऐसा लगता है कि सुलु के किरदार को वही निभा सकती थी। उनके चेहरे के भाव देखने लायक है। एक गृहिणी से आरजे बनने का उनका सफर शानदार है। नौकरी छोड़ते समय नेहा धूपिया के साथ उनका जो दृश्य है उसमें उनका अभिनय देखने लायक है। एक साथ घुमड़ते कई भावों को उन्होंने चेहरे के जरिये दर्शाया है।
मानव कौल भी अपनी दमदार उपस्थिति दर्शाते हैं। एक सीधे-सादे पति के रूप में उन्होंने बढ़िया अभिनय किया है। उनके ऑफिस वाले कुछ दृश्य बढ़िया हैं जहां मानव को छोड़ सारे लोग सत्तर पार हैं। रेडियो स्टेशन की हेड के रूप में नेहा धूपिया परफेक्ट लगीं। क्रिएटिव प्रोड्यूसर और कवि के रूप में विजय मौर्या हंसाते हैं।
विद्या बालन का शानदार अभिनय और सुरेश त्रिवेणी का कुशल निर्देशन 'तुम्हारी सुलु' को देखने लायक बनाता है।