बॉबी जासूस : फिल्म समीक्षा

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विद्या बालन और महिला किरदार का जासूस होना 'बॉबी जासूस' देखने का सबसे बड़ा आकर्षण है। यहां जासूस काला चश्मा लगाए, लांग कोट पहने और मैग्नीफाइंग ग्लास लिए घूमने वाला टिपिकल जासूस नहीं है बल्कि जासूस के रोल में एक तीस वर्ष की महिला है जो हैदराबाद के एक मध्यमर्गीय परिवार से है। किरदार तो उम्दा सोचा गया है, लेकिन इस किरदार से न्याय करने वाली कहानी नहीं मिल पाई और यही वजह है कि 'बॉबी जासूस' उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती।

फिल्म में तीन ट्रेक हैं। पहला ट्रेक बॉबी जासूस बनाम उसके पिता का है। बॉबी के पिता एक आम शख्स हैं और बॉबी की जासूसनुमा हरकतें उन्हें परेशान करके रखती हैं। एक मध्यमगर्वीय लड़की को जासूस बनने के लिए घर वालों से जो जद्दोजहद करनी होती है उसे बखूबी निर्देशक ने दिखाया है।

बॉबी जानती है कि उसके पिता का दिल सख्त नहीं बल्कि मजबूर है। एक मां है जो बॉबी और उसके पिता के बीच संबंध सुधारने की कोशिशों में लगी होती है और बॉबी की छोटी-मोटी उपलब्धि को अपने पति के आगे बढ़ा-चढ़ा कर बताती रहती हैं।

जासूसी वाला ट्रेक सबसे मजबूत होना चाहिए था क्योंकि फिल्म की बुनियाद ही यही है। बॉबी के पास न डिग्री है और न अनुभव इसलिए उसे जासूस की नौकरी कोई नहीं देता। हारकर वही अपना ऑफिस शुरू करती है। उसे एक बड़ा आदमी एक लड़की ढूंढने का जिम्मा देता है। बॉबी यह काम कर देती है और उसे पचास हजार रुपये मिलते हैं।

वही आदमी दूसरी लड़की ढूंढने का जिम्मा देता है और बॉबी को इस काम के बदले में एक लाख रुपये मिलते हैं। अब की बार एक लड़के को ढूंढ निकालने के बदले में पांच लाख रुपये और एक ऑफिस की पेशकश की जाती है। बॉबी का दिमाग ठनकता है। वह उन लड़कियों के बारे में पता करती है तो मालूम होता है कि वे गायब हैं। अब बॉबी अपने उस ग्राहक की जासूसी शुरू करती है।

इस जासूसी में दम नहीं है। शुरुआत में बॉबी के विभिन्न गेटअप के वजह से हंसाया जाता है, लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है और मामला गंभीर होता जाता है जासूसी वाला रोमांच कही नजर नहीं आता। कई बार फिल्म को फिजूल में ही खींचा गया है। आखिर में रहस्य से पर्दा उठाया जाता है और बात जब सामने आती है तो दर्शक को संतुष्टि नहीं मिलती। क्लाइमेक्स को और बेहतर सोचा जा सकता था। शायद कुछ खास सूझा नहीं और किसी तरह कहानी का अंत किया गया।

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रोमांस इस कहानी का तीसरा ट्रेक है जो कहीं ठीक है तो कहीं कमजोर। बॉबी और तसव्वुर में कन्फ्यूज है। प्रस्तुतिकरण में भी कन्फ्यूजन नजर आता है। गाने इस रोमांस में बिलकुल फिट नहीं बैठते, पता नहीं किस मजबूरी के तहत गाने रखे गए हैं।

बॉबी जासूस का निर्देशन समर शेख ने किया है। शॉट लेने की कला में वे अच्छे हैं। हैदराबाद को उन्होंने बखूबी फिल्म में स्थान ‍दिया है। निर्देशक का काम यही खत्म नहीं होता। कहानी को ठीक से पेश करना भी उसकी जवाबदारी होती है। समर में संभावनाएं हैं, लेकिन 'बॉबी जासूस' में उनकी चूक नजर आती है। वे जासूसी फिल्मों वाला थ्रिल नहीं पेश कर पाए और कई जगह फिल्म बोर करती है।

फिल्म का प्लस पाइंट है इसके कलाकारों का अभिनय। विद्या बालन ने बॉबी के किरदार को ऊर्जावान बनाया है। हैदराबादी लहजे में उन्होंने ऐसी हिंदी बोली है कि बिलकुल हैदराबादी लड़की लगती हैं। अफसोस इस बात का है कि विद्या के इतने दमदार अभिनय का साथ स्क्रिप्ट ने नहीं दिया।

फिल्म की सपोर्टिंग कास्ट भी जबरदस्त है। अली फज़ल, सुप्रिया पाठक, राजेन्द्र गुप्ता, तनवी आजमी, ज़रीना वहाब जैसे कलाकारों का अभिनय फिल्म को थोड़ी मजबूती देता है।

बॉबी जासूस में एक अच्छी मूवी होने की संभावनाएं थी, लेकिन कमजोर लेखन और निर्देशन ने इन अपेक्षाओं को खत्म कर दिया।

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बैनर : बॉर्न फ्री एंटरटेनमेंट, रिलायंस एंटरटेनमेंट
निर्माता : दीया मिर्जा, साहिल संघा, रिलायंस एंटरटेनमेंट
निर्देशक : समर शेख
संगीत : शांतनु मोइत्रा
कलाकार : विद्या बालन, अली फज़ल, किरण कुमार, अर्जन बाजवा, सुप्रिया पाठक, राजेन्द्र गुप्ता, तनवी आजमी, ज़रीना वहाब
सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 1 मिनट 30 सेकंड
रेटिंग : 2/5

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