लंदन पेरिस न्यूयॉर्क : फिल्म समीक्षा

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निर्माता : सृष्टि आर्या, गोल्डी बहल
निर्देशक : अनु मेनन
संगीत : अली जफर
कलाकार : अली जफर, अदिति राव हैदरी

फिल्म लंदन, पेरिस, न्यूयॉर्क के लिए यही तीन शब्द कहे जा सकते हैं... कंडम, ढीली और बेकार। यह फिल्म उस ट्यूबलाइट की तरह है, जो एक तरफ से खराब हो जाती है। ऐसी ट्यूबलाइट बार-बार ये भ्रम देती है कि बस अब जलने ही वाली है, मगर जलती नहीं। इंतज़ार करते-करते और उसकी "जल-बुझ" देखते-देखते आखिरकार आपके सिर में दर्द होने लगता है। ट्यूबलाइट नहीं जलती, तो नहीं जलती।

लंदन, पेरिस, न्यूयॉर्क देखते हुए भी यही इंतज़ार रहता है कि अब फिल्म दम पकड़ेगी मगर फिल्म खत्म हो जाती है, इंतज़ार खत्म नहीं होता। इस फिल्म में लंदन, पेरिस और न्यूयॉर्क का जिक्र बेमानी है। इसकी बजाय यदि ये फिल्म चेन्नाई, चिकमंगलूर और चेरापूँजी में फिल्माई गई होती, तब भी बात वही रहती। तीन देशों के तीन मशहूर शहरों का नाम अकारण है। इससे तो यही साबित होता है कि फिल्म का नायक निकम्मा ही नहीं, परले सिरे का फिजूलखर्च भी है।

निर्देशिका अनु मेनन से पहली गलती यही हुई कि वे नायक (अली जाफर) का चरित्र ठीक से स्थापित नहीं कर पाईं। पहले सीन में नायक एक सफल फिल्मकार लगता है, इंटरव्यू देता है। मगर बाद में वो नाकाम और शौकिया फिल्मकार साबित होता है।

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इसका पिता एक प्रोड्यूसर है और बहुत अमीर है। ये एक भारतीय लड़की से लंदन में मिलता है और छः महीने बाद वापस मिलने का वादा करके भूल जाता है। अपनी फिल्म की एक हीरोइन के साथ गुलछर्रे उड़ाने लगता है। एक महिला होकर भी अनु मेनन के मूल्य पुरुषवादी हैं।

फिल्म में नायक को नायिका एक विदेशी हीरोइन के साथ हमबिस्तरी की हालत में देख लेती है। इसके बावजूद वो उसे माफ कर देती है। सवाल यह है कि क्या नायक अगर नायिका को ऐसी हालत में देखता तो माफ कर पाता? नायक सफाई देता है कि यह सब एक "खास क्षण में" घटित हो गया। मगर ऐसे "खास क्षणों" की कितनी छूट महिला को होती है?

फिल्म की नायिका कपड़ों से आधुनिक, विचारों से नारीवादी और बर्ताव से सीता-सावित्री है। बरसों नायक का इंतज़ार करती है, पर किसी को बॉयफ्रेंड नहीं बनाती। ये तो सीता-सावित्री से भी बढ़कर तप करना हुआ। सीता-सावित्री जैसी देवियाँ शादीशुदा हैं, अपने पति के लिए पवित्र हैं। मगर यहाँ तो शादी भी नहीं हुई है। एक धुँधली आस के भरोसे नायिका अपनी जवानी बर्बाद कर रही है और बिंदास सहेली के साथ पेरिस जैसी रोमांटिक जगह पर साध्वियों जैसा जीवन जी रही है।

कथा उलझी हुई है, चरित्र भ्रष्ट और बेबूझ है। फिर यह समझ नहीं आता कि हीरो-हीरोइन एक ही जगह जमकर प्यार क्यों नहीं करते। लंदन, पेरिस, न्यूयॉर्क में क्यों मारे-मारे घूमते हैं। यह फिल्म दो-पात्रीय फिल्म है। दो अन्य किरदार आए भी हैं, तो एक-एक मिनट के लिए।

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पूरे समय या तो अनु मेनन ने अली जाफर की जवानी और जवाँ मर्दी दिखाई है या फिर अदिति राव की खूबसूरती। पेरिस वाले हिस्से में विग लगाकर और होंठों पर खूनी लिपस्टिक थोपकर वे बदसूरत और नकली-सी लगी हैं। अदिति राव बेशक खूबसूरत भी लगी हैं, मगर फिल्म में कहानी और स्पार्किंग भी तो चाहिए।

कुल मिलाकर यह बहुत ही मायूस करने वाली फिल्म है। कुनकुनी, ठंडी और फिर एकदम बर्फ। ऐसी भटकी हुई लव स्टोरी बॉक्स ऑफिस पर दम तोड़ रही है, सो ठीक ही है। दर्शक कभी-कभी इंसाफ भी कर जाते हैं।

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