शाहिद- फिल्म समीक्षा

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बड़ी आपराधिक घटनाओं के बाद पुलिस अक्सर ऐसे कई लोगों को शक के आधार पर जेल में बंद कर देती है ताकि अपनी असफलता को छिपा सके। इनमें से कुछ निर्दोष भी रहते हैं। गरीब, अनपढ़ और असहाय होने के कारण वर्षों तक जेल में बंद रहते हैं। कई किस्से पढ़ने को मिलते हैं कि निर्दोष को वर्षों तक जेल में बंद रहना पड़ा। ऐसे लोगों का केस लड़ता था शाहिद आजमी नामक नौजवान। शाहिद की जब हत्या की गई तब उसकी उम्र थी मात्र 32 वर्ष।

शाहिद के साथ भी कुछ ऐसा ही घटा था जब 1992 में मुंबई में हुए दंगों के बाद उसे गिरफ्तार कर लिया गया था। इसके बाद वह पाकिस्तान स्थित काश्मीर के ट्रेनिंग केम्प में गया, लेकिन वहां उसे जल्दी ही समझ में आ गया कि अन्याय के खिलाफ लड़ने का यह सही रास्ता नहीं है। टाडा के कारण उसे सात वर्ष तिहाड़ जेल में बिताना पड़े।

जेल में उसे सही सीख मिली कि समाज के व्याप्त अन्याय के खिलाफ लड़ना है तो समाज का हिस्सा बनकर यह काम करना होगा। जेल से ही वह पढ़ाई करता है और वकील बन उन लोगों के लिए लड़ता है जो निर्दोष होकर जेल में सड़ रहे हैं।

शाहिद आजमी की कहानी को सेल्युलाइड पर हंसल मेहता नामक निर्देशक ने उतारा है। हंसल की पिछली फिल्म थी ‘वुडस्टॉक विला’। रिलीज के पहले ही हंसल को समझ में आ गया था कि उन्होंने बहुत बुरी फिल्म बनाई है, लिहाजा वे मुंबई छोड़कर चले गए। शाहिद के बारे में उन्होंने पढ़ा तो फिल्म बनाने का विचार जागा।

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हंसल ने काफी रिसर्च किया है यह फिल्म में झलकता है। फिल्म में उन्होंने शाहिद के जीवन के उत्तरार्ध को ज्यादा दिखाया है। किस तरह से शाहिद 26/11 मुंबई अटैक में आरोपी बनाए गए फहीम अंसारी का केस लड़कर उसे न्याय दिलाते हैं इसे निर्देशक ने अच्छे तरीके से पेश किया है, लेकिन शाहिद के आतंकवादी केम्प में प्रशिक्षण लेने और वासप आने वाले मुद्दे को उन्होंने चंद सेकंड में ही दिखा दिया। जबकि इस मुद्दे पर दर्शक ज्यादा से ज्यादा जानना चाहता है।

हंसल ने कोर्ट रूम ड्राम को ज्यादा महत्व दिया। नि:संदेह इससे शाहिद एक काबिल और नेकदिल वकील के रूप में उभर कर आते हैं, लेकिन ये प्रसंग बहुत लंबे हैं। हंसल का निर्देशन अच्छा है, लेकिन इस शाहिद के जीवन की कहानी को और अच्छे तरीके से पेश किया जा सकता था।

फिल्म में कई बेहतरीन सीन और संवाद हैं। एक सीन में शाहिद जज से पूछता है ‘अगर इसका नाम डोनाल्ड, मैथ्यु, सुरेश या मोरे होता तो क्या यहां ये खड़ा होता?’ यहां निर्देशक स्पष्ट इशारा देता है कि कुछ लोगों की गलती की सजा पूरी कौम को दिया जाना सही नहीं है।

फिल्म कई सवाल खड़े करती हैं जिन पर सोचा जाना जरूरी है। पुलिस, मीडिया और आम जनता पर सवालिया निशान लगाती है कि किसी पर आरोप लगते ही वे उसे आतंकवादी मान लेते हैं।

शाहिद के किरदार में राजकुमार यादव इस तरह घुस गए हैं कि कहीं भी वे राजकुमार या अभिनय करते नजर नहीं आते। ऐसा लगता है कि जैसे सामने शाहिद खड़ा हो। प्रभलीन संधु, मोहम्मद जीशान अय्यूब, विपिन शर्मा, बलजिंदर कौर सहित कई अपरिचित चेहरों ने बेहतरीन अभिनय से फिल्म को दमदार बनाया है।

कुछ फिल्में मनोरंजन करती हैं। कुछ सोचने पर मजबूर करती हैं, ‘शाहिद’ भी इनमें से एक है।

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बैनर : बोहरा ब्रदर्स प्रा.लि., एकेएफपीएल प्रोडक्शन
निर्माता : रॉनी स्क्रूवाला, सिद्धार्थ रॉय कपूर, अनुराग कश्यप, सुनील बोहरा
निर्देशक : हंसल मेहता
कलाकार : राजकुमार यादव, प्रभलीन संधु, तिग्मांशु धुलिया, मोहम्मद जीशान अय्यूब, बलजिंदर कौर
सेंसर सर्टिफिकेट : ए
रेटिंग : 3/5

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