शॉपित : फिल्म समीक्षा

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बैनर : एएसए प्रोडक्शन्स एंड इंटरप्राइजेस
निर्देशक : विक्रम भट्ट
संगीत : चिरंतन भट्ट
कलाकार : आदित्य नारायण, श्वेता अग्रवाल, राहुल देव
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * दो घंटे 23 मिनट
रेटिंग : 1.5/5

विक्रम भट्ट ने ‘शॉपित’ नामक हॉरर फिल्म इसलिए बनाई है क्योंकि उनकी पिछली कुछ हॉरर फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर सफलता मिली है। उन्हें यह भ्रम हो गया कि सक्सेसफुल फिल्म बनाने का फॉर्मूला उनके हाथ लग गया। यही बात अधिकांश फिल्ममेकर्स के पतन का कारण बनती है।

‘शॉपित’ में भट्ट चूक गए हैं। अपने आपको उन्होंने दोहराया है, लेकिन ‘राज’ या ‘1920’ के स्तर तक नहीं पहुँच पाए। बेशक उन्होंने कुछ ऐसे उम्दा सीन क्रिटए किए हैं, जिन्हें देखते समय रोंगटे खड़े हो जाते हैं, लेकिन फिल्म का कंटेट बेहद कमजोर है, इसलिए बात नहीं बन पाती।

काया (श्वेता अग्रवाल) के परिवार को 300 वर्ष पहले श्राप मिला था कि उनके परिवार में किसी भी लड़की की शादी नहीं हो पाएगी। कोई लड़की शादी करेगी तो उसकी मौत हो जाएगी।

अमन (आदित्य नारायण) से काया प्रेम करती है। काया को अमन एंगेजमेंट रिंग पहनाता है और दोनों की जिंदगी में भूचाल आ जाता है। एक शैतान आत्मा उनके पीछे पड़ जाती है। पता नहीं अमन, काया और निर्देशक विक्रम भट्ट ने लिव इन रिलेशनशिप के बारे में क्यों नहीं सोचा। वे शादी के पीछे ही क्यों पड़े रहे, लिव इन रिलेशनशिप पूरा मामला ही सॉल्व कर देता।

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खैर, ऐसी फिल्मों में कोई पादरी, डॉक्टर या प्रोफेसर होता है जो भूतों के बारे में ढेर सारी जानकारी रखता है। यहाँ एक प्रोफेसर (राहुल देव) है। वह तरह-तरह विद्याएँ/थ्योरी/मेथड्‍स जानता है।

मसलन आदमी को पानी के टब में सुलाकर टाइम मशीन की तरह 300 साल पहले की दुनिया में पहुँचा देता है। अपने अंदर आत्मा को बुलाकर उससे बात कर लेता है। टेनिस बॉल पर भूतों की भाषा में प्रश्न लिखकर सुनसान पड़े सिनेमाघर, पैलेस में बॉल फेंककर उनसे जवाब माँगता है।

उसे यह पता रहता है कि भूत कहाँ पाए जाते हैं। हर बार उसकी यह ट्रिक कारगर साबित होती है। इतनी अचूक ट्रिक जानने के बावजूद फिल्म को समेटने में विक्रम भट्ट ने दो घंटे 23 मिनट का समय ले लिया। न ही वे ऐसे दृश्य क्रिएट कर पाए, जो इन बातों पर भरोसा दिला सके।

ये प्रोफेसर साहब अपने हिसाब से उस प्रेतात्मा तक पहुँच जाते हैं। हीरो और उसके दोस्त से तरह-तरह के काम करवाते रहते हैं। किसी भी जगह जाना इनके लिए मामूली बात है। ये सारे काम रात में ही करते हैं, ताकि डायरेक्टर दर्शकों को डरा सके। ऐसी जगह ठिकाना बनाते हैं जहाँ बिजली नहीं रहती। जंगल में मौजूद डाकबंगला से बढि़या ठिकाना भला कौन सा होगा।

हीरोइन की जरूरत इन दृश्यों में नहीं है, इसलिए बेचारी को ‍बीच फिल्म में कोमा में भेज दिया। डॉक्टर्स उसका इलाज करते रहते हैं और ये तीनों उस प्रेतात्मा को ढूँढते हैं।

आखिर में एक महल में उनकी खोज खत्म होती है। हीरो जीत जाता है। प्रोफेसर का क्या हुआ ये पता ही नहीं चलता। क्लाइमैक्स को जल्दबाजी में निपटाया गया है। कहानी में वर्तमान के तार अतीत से इस तरह जोड़े गए हैं उलझनें ज्यादा पैदा होती हैं।

डायरेक्टर के रूप में विक्रम भट्ट ने उन शॉट्स पर फोकस किया है, जिनके जरिये दर्शकों को डराया जा सके, लेकिन स्क्रीनप्ले और कहानी पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया। लेकिन सिर्फ कुछ शॉट्स देखने के लिए तो सिनेमाघर नहीं जाया जा सकता। इंटरवल के बाद फिल्म को बहुत खींचा गया है और कहानी आगे खिसकती ही नहीं है।

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आदित्य नारायण का अभिनय ठीक है। पूरी फिल्म में उन्हें एक से एक्सप्रेशन रखने थे, इसलिए उनके बारे में कोई राय बनाना जल्दबाजी होगी। लेकिन उन्होंने फिल्मों में अपना करियर शुरू करने में जल्दबाजी की है। उन्हें टीनएज लवस्टोरी चुनना थी। भूत से टक्कर लेते हुए वे बच्चे लगते हैं। श्वेता अग्रवाल को बहुत मेहनत करना पड़ेगी। राहुल देव को हीरो से भी ज्यादा मौका मिला है।

बैकग्राउंड म्यूजिक और फोटोग्राफी उम्दा है, लेकिन एडिटिंग में कसावट नहीं है। संवाद कैरेक्टर पर सूट नहीं होते, ऐसा लगता है कि बहुत मैच्योर इंसान बोल रहा है।

‘शॉपित’ में कुछ डरावने दृश्यों को छोड़ दिया जाए, तो कुछ नहीं है।

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