36 फॉर्महाउस मूवी रिव्यू: उजाड़ है यह फॉर्महाउस

समय ताम्रकर

शनिवार, 22 जनवरी 2022 (11:49 IST)
36 फॉर्महाउस मूवी रिव्यू‍: लगता है सुभाष घई को 36 नम्बर बहुत पसंद है। 2006 में उन्होंने ’36 चाइना टाउन’ फिल्म बनाई थी और अब ’36 फॉर्महाउस’ फिल्म प्रोड्यूस की है। दोनों फिल्मों में मनोरंजन और दर्शकों के बीच 36 का आंकड़ा रहा है। ’36 फॉर्महाउस’ में तो बात बदतर हो गई है। पहली फ्रेम से फिल्म नकली लगती है। लेखन और डायरेक्शन इतना बुरा है कि विजय राज और संजय मिश्रा जैसे कलाकारों पर भी असर हो गया और वे ओवर एक्टिंग करने लगे। 
फिल्म की कहानी का समय लॉकडाउन के दौरान का है जब कोरोना अपने चरम पर था। लेकिन इसका मूल कहानी से कोई लेना-देना नहीं है। सिर्फ कुछ नया बताने की कोशिश की गई है जो बुरी तरह असफल रही है। 
 
पद्मिनी राज सिंह (माधुरी भाटिया) अपना करोड़ों का फॉर्महाउस अपने बड़े बेटे रौनक (विजय राज) के नाम कर देती है। इससे उसके दो छोटे बेटे और बहू नाराज हो जाते हैं। वे एक वकील को पद्मिनी के पास पहुंचाते हैं जिसकी रौनक हत्या कर देता है। पुलिस मामले की जांच करती है। फॉर्महाउस पर दो भाई भी पहुंच जाते हैं। 
 
फिल्म की हत्या शुरू में ही दिखा दी गई है और इस हत्या का कोई तुक नजर नहीं आता। रौनक गुस्सैल जरूर है, लेकिन ऐसा इंसान फिल्म में नजर नहीं आता कि वह किसी की हत्या कर दे। यही से फिल्म अपना असर खो देती है। हत्या करने के बाद वह लाश को ठिकाने लगाने के लिए कुछ नहीं करता जबकि उसे पता रहता है ‍कि पुलिस छानबीन के लिए उसके घर आ सकती है। 
 
क्राइम के साथ हास्य और इमोशन के तत्व भी डाले गए हैं। जैसे एक बूढ़ी मां की पूछ-परख केवल दौलत के कारण ही है। जयप्रकाश (संजय मिश्रा) और हैरी (अमोल पाराशर) बाप-बेटे हैं और अपनी यह पहचान छिपा कर फॉर्महाउस पर काम करते हैं। ये ट्रैक शुरू में थोड़ा मजेदार लगता है, लेकिन बाद में इसे ठीक से लिखा नहीं गया है। हैरी और अंतरा (बरखा सिंह) का रोमांस बचकाना है। अचानक ही दोनों एक-दूसरे को दिल दे बैठते हैं। 
 
फिल्म का स्क्रीप्ले भी लचर है। जब भी दो लोग महत्वपूर्ण बातें करते हैं, दरवाजे खुले रखते हैं। कोई भी बीच में टपक पड़ता है। दो लोगों की बातों में तीसरे का आना इतनी बार है कि हास्यास्पद लगता है। 
 
राम रमेश शर्मा के निर्देशन में दम नहीं है। वे ड्रामे को रोचक तरीके से पेश नहीं कर पाए और कलाकारों से भी अच्छा काम नहीं ले पाए। फिल्म के किरदारों के हावभाव और व्यवहार भी अचानक बदलते रहते हैं जिससे फिल्म देखते समय व्यवधान पैदा होता है। 
 
फिल्म में गाने भी डाल दिए गए हैं जो बिलकुल फिट नहीं है। सुभाष घई संगीतकार भी बन गए हैं लेकिन उनकी धुनें उनकी ही पुरानी फिल्मों की याद दिलाती है। 
 
संजय मिश्रा अच्छेअ एक्टर हैं, लेकिन इस फिल्म में उनका काम बुरा है। खूब ओवरएक्टिंग की है। विजय राज भी नहीं जमे। बरखा सिंह और अमोल पाराशर का अभिनय ठीक है। 
 
कुल मिलाकर इस 36 फॉर्महाउस पर जाना यानी बोर होना है। 

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