अंतिम द फाइनल ट्रूथ : फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर

शुक्रवार, 26 नवंबर 2021 (15:24 IST)
सलमान खान के पिता सलीम खान ने जावेद अख्तर के साथ मिल कर एंग्रीयंग मैन का किरदार गढ़ा था जिसे निभा कर अमिताभ बच्चन सुपरस्टार बन गए थे। वही किरदार सलमान द्वारा प्रोड्यूस फिल्म 'अंतिम: द फाइनल ट्रूथ' में नजर आता है। यह फिल्म मराठी फिल्म 'मुल्शी पैटर्न' पर आधारित है जिसे थोड़े बदलाव के साथ बनाया गया है। 
 


राहुल पाटिल (आयुष शर्मा) एक किसान सखाराम (सचिन खेड़ेकर) का बेटा है। सखाराम अब उसी जमीन की रखवाली कर रहा है जो कभी उसकी हुआ करती थी। नौकरी से भी उसे धक्के देकर निकाल दिया जाता है तो वह अपने परिवार के साथ पुणे की सब्जी मंडी में हम्माली करता है। 
 
राहुल अपने पिता की सच्चाई और मेहनत की राह पर चलने से खुश नहीं है। पुणे जाकर वह भाईगिरी करता है और देखते ही देखते उसके पास दौलत का ढेर लग जाता है। बुराई की राह पर चलने के कारण उसके माता-पिता-बहन और प्रेमिका साथ छोड़ देते हैं और वह सब कुछ पाकर भी अकेला हो जाता है।


 
फिल्म में एक और मजबूत किरदार है, राजवीर सिंह नामक पुलिस ऑफिसर का, जिसे सलमान खान ने अदा किया है। यह पुलिस ऑफिसर बेहद ईमानदार है, लेकिन कानून ने उसके हाथ बांध रखे है इसलिए चाह कर भी वह कुछ नहीं कर पाता। वह राहुल को कई बार समझाता है कि अगर वह गुंडागर्दी की राह पर चलेगा तो उसका अंतिम परिणाम बहुत बुरा होगा। राहुल को जब यह बात समझ आती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। 
 
प्रवीण तरडे की कहानी पर महेश वी मांजरेकर, अभिजीत देशपांडे और सिद्धार्थ साल्वी ने मिलकर स्क्रीनप्ले लिखा है। कहानी में कोई नई बात नहीं है, कई फिल्मों में हम देख चुके हैं। एक युवा लड़के का अन्याय के खिलाफ लड़ते हुए कानून में हाथ में लेना और फिर गैंगवार का हिस्सा बन जाना सैकड़ों फिल्मों में दर्शाया जा चुका है। इसके बावजूद 'अंतिम : द फाइनल ट्रूथ' को एक बार इसके प्रस्तुतिकरण और अभिनय के कारण देखा जा सकता है।

 
स्क्रीनप्ले राइटर्स ने किरदारों पर मेहनत की है और फिल्म में वे उभर कर आते हैं। राहुल और उसके पिता की उसूलों की टक्कर हालांकि लंबी खींची गई है, लेकिन कुछ अच्छे सीन बन पड़े हैं। राहुल की प्रेमिका मंदा (महिमा मकवाना) का रोल छोटा है, लेकिन उसे कुछ अच्छे सीन मिले हैं जिससे फिल्म में उसकी प्रेजेंस महूसस होती है। 
 
सलमान खान का किरदार भी फिल्म में बेहद महत्वपूर्ण है जो महाभारत के कृष्ण की तरह इस गैंगवार को संचालित करता है और बिना कुछ किए ही बहुत कुछ कर जाता है। सलमान और आयुष के बीच टकराव वाले सीन में अच्छी डायलॉगबाजी है। राहुल की बहन अपने भाई के शक्तिशाली होने के बावजूद घरों में काम करती है और जब राजवीर उसे कहता है कि उसे इस बात पर बहुत गर्व है वो फिल्म का एक बेहतरीन दृश्य है। 
 
किसान आंदोलन पिछले एक वर्ष से चर्चा में है। फिल्म किसानों की दुर्दशा को बैकड्रॉप में दिखाती है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां और भ्रष्ट राजनेता किस तरह से भूमि को हथियाने के खेल खेलते हैं और वर्षों बीतने के बावजूद किसानों की हालत जस की तस है।   
 
निर्देशक के रूप में महेश मांजरेकर ने एक रूटीन कहानी को दिलचस्प तरीके से पेश किया है। कहानी में जरूरी टर्न और ट्विस्ट देकर ड्रामे में दर्शकों की रूचि बनाए रखी। राहुल और राजवीर के कैरेक्टर्स को वे दर्शकों से कनेक्ट करने में सफल रहे हैं। राहुल का निगेटिव किरदार होने के बावजूद भी वो दर्शकों की हमदर्दी जीत लेता है। साथ ही राजवीर का ठोस किरदार भी दर्शकों को अपील करता है। फिल्म का पहला हाफ तेज गति से दौड़ता है, लेकिन सेकंड हाफ में फिल्म थोड़ी खींची हुई महसूस होती है। 
 
यह फिल्म खास तौर पर आयुष शर्मा के लिए डिजाइन की है और इसके लिए सलमान खान ने भी पीछे जाकर आयुष को आगे आने का मौका दिया है। एक फिल्म पुराने आयुष में जबदरस्त सुधार नजर आया है। राहुल के किरदार को जो ऊर्जा और पागलपन चाहिए था वो उन्होंने दिया और बेहतरीन अभिनय किया है। उन्होंने अपनी बॉडी पर भी मेहनत की है और शर्टलेस होकर शर्टलेस सलमान के साथ फाइट भी की है। हालांकि यह सीन स्क्रिप्ट में फिट नहीं बैठता है, लेकिन सलमान के फैंस के लिए इसे जगह दी गई है।
 
सलमान खान ने अपनी शख्सियत की मजबूती अपने किरदार को दी है। संवाद बोलने का अंदाज भी बदला है और बहुत ही शांत तरीके से अपने किरदार को निभाया है। कैरेक्टर रोल में होने के बावजूद वे हीरो से कम नहीं हैं और पूरी फिल्म में उनका दबदबा नजर आता है। 
 
महिमा मकवाना ने इस फिल्म से शुरुआत की है और उन्होंने अपना काम अच्छे से किया है। सचिन खेड़ेकर, उपेन्द्र लिमये, सयाजी शिंदे, जीशु सेन गुप्ता की बढ़िया एक्टिंग भी इस फिल्म के स्तर को उठाने में कामयाब रही है। वरुण धवन और वलूश्चा डिसूजा एक-एक गाने में दिखाई दिए हैं। 
 
फिल्म के कुछ गाने अच्छे हैं और तकनीकी पक्ष सशक्त है। स्टंट्स अच्छे से डिजाइन किए गए हैं। अंतिम द फाइनल ट्रूथ की कहानी रूटीन है, हिंसा को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया है, लेकिन यह ऐसी फिल्म नहीं है जिसे देखा ही नहीं जा सके।  

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