Heeramani Review: कोठों से निकली साजिशें और तवायफों-नवाबों में शह-मात का खेल

समय ताम्रकर

शुक्रवार, 3 मई 2024 (11:48 IST)
संजय लीला भंसाली की हमेशा से ख्वाहिश रही है कि वे पाकीजा या मुगल-ए-आजम जैसी फिल्में बनाएं जिसके लिए उन्हें बरसों तक याद किया जाए। जिसमें तवायफ, कोठे, गाढ़ी उर्दू, इश्क में मर मिटने की जिद हो और उन्होंने नेटफ्लिक्स पर रिलीज ‘हीरामंडी’ बना कर अपनी इस ख्वाहिश को पूरा किया है। 
 
वैसे भंसाली इस दौर के एकमात्र ऐसे फिल्म निर्देशक हैं जो महंगी और भव्य फिल्म बनाने के लिए जाने जाते हैं जैसी के. आसिफ या मेहबूब खान जैसे फिल्मकार बनाते थे। खामोशी, ब्लैक, बाजीराव मस्तानी, पद्मावत जैसी फिल्में उन्होंने निर्देशित की हैं जो बरसों तक याद की जाएगी। गंगूबाई काठियावाड़ी की कहानी भी एक वेश्या आधारित थी, लेकिन उसमें वो भव्यता नहीं थी जो हीरामंडी में है।
 
मोईन बेग द्वारा लिखित कहानी 40 के दशक में सेट है, जब ब्रिटिश राज था और आजादी मिलने को ही थी। लाहौर की हीरामंडी की तवायफों की चर्चा चारों ओर थी, जहां अमीरजादे नवाब तहज़ीब सीखने कोठों पर जाते थे। मल्लिकाजान (मनीषा कोईराला) का दबदबा था जिसको कायम रखने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकती थी। 


 
बिब्बो (अदिति राव हैदरी), लाजो (रिचा चड्ढा), रेहाना और फरीदाजान (सोनाक्षी सिन्हा, डबल रोल में), आलम (शर्मिन सेगल), वहीदा (संजीदा शेख) के इर्दगिर्द मल्लिकाजान की कहानी घूमती है जिनके महत्वपूर्ण फैसले वो लेती है। 
 
कोठे पर नवाबों का आना-जाना लगा रहता है। बातें इधर-उधर होती रहती है। दबदबा बनाने के लिए झूठ बोले जाते हैं। षड्यंत्र रचे जाते हैं। इश्क फरमाए जाते हैं। कुछ इश्क नकली होते हैं तो कुछ में जान दी जाती है। इश्क में खुद को बरबाद करने का जुनून नजर आता है। पृष्ठभूमि में आजादी के लिए लड़ाई लड़ी जा रही है। इसके इर्दगिर्द हीरामंडी का तानाबाना बुना गया है।  
 
स्क्रीनप्ले ठहराव लिए हुए है। किरदारों की भीड़ रहती है, नए-नए किरदार एपिसोड दर एपिसोड आते रहते हैं, लेकिन आपाधापी नहीं मचती क्योंकि भंसाली अपनी बात इत्मीनान से कहते हैं।
 
ड्रामे में उतार-चढ़ाव है जो दिलचस्पी अंत तक बनाए रखता है। किरदारों की कुटीलता को तहज़ीब की चाशनी में लपेट पर पेश किया गया है। एक-दूसरे को वे शरीर के बजाय रूह पर चोट पहुंचाते हैं। भव्य सेट, शानदार कॉस्ट्यूम्स और गहरे अर्थ लिए हुए संवाद ड्रामे के असर को बढ़ा देते हैं। किरदारों को याद रखने में थोड़ा दिमाग लगाना होगा। किसके क्या मंसूबे है और किसके साथ क्या रिश्ते हैं, ये समझ लिया तो सीरिज देखने का मजा बढ़ता जाएगा।
 
संजय भंसाली दर्शकों की भावनाओं के साथ खेलते हैं। किरदारों की भावनाओं को दर्शक महसूस करते हैं। वे फूल से चोट पहुंचाते हैं तो कई बार इश्क और भावनाओं की त्रीवता से घायल करते हैं। ड्रामे को उन्होंने अपनी चिर-परिचित स्टाइल में पेश किया है। भव्यता हर फ्रेम में नजर आती है। कहीं कोई समझौता नहीं है। हालांकि कई बार चकाचौंध आंखों को चुभती है और बनावटीपन का अहसास भी होता है क्योंकि सारे किरदार हमेशा सजे-धजे और फुल मेकअप में होते हैं, लेकिन ये भंसाली की जिद है सब कुछ खूबसूरत लगना चाहिए।
 
भंसाली की छाप हर फ्रेम में नजर आती है क्योंकि निर्देशन के अलावा उन्होंने संपादन किया है और संगीत भी दिया है। छोटे-छोटे डिटेल्स पर उन्होंने ध्यान दिया है। शास्त्रीय संगीत और मौसिकी का इस्तेमाल उन्होंने बेहतरीन तरीके से किया है। मुजरे आपको एक अलग दौर में ले जाते हैं।
 
हीरामंडी का तकनीकी पक्ष बेहद मजबूत है। सेट कहीं-कहीं नकली लग सकते हैं, लेकिन भव्यता लिए हुए हैं। सुदीप चटर्जी और महेश लिमये की सिनेमाटोग्राफी अद्भुहत है। टॉप एंगल से लिए गए शॉट्स विशेष प्रभाव पैदा करते हैं। कलर स्कीम और लाइटिंग सीन को प्रभावशाली बनाती है, विशेषकर रात के दृश्यों में लाइटिंग कमाल की है।
 
संवाद इस सीरिज का बड़ा प्लस पॉइंट है। बहुत मेहनत के साथ डायलॉग लिखे गए हैं जो सीन पर फिट बैठते हैं। इस तरह संवाद इन दिनों कम ही सुनने को मिलते हैं। शायरी और ग़जल प्रभाव को विस्तृत करती है।  
 
मनीषा कोईराला ने अपने करियर का सर्वश्रेष्ठ अभिनय भंसाली की पहली फिल्म ‘खामोशी: द म्यूजिकल में किया था और हीरामंडी में एक बार फिर वे उसी स्तर पर पहुंच गई हैं। अपने रौबदार और कुटील किरदार को उन्होंने खूब जिया है। 
 
अदिति राव हैदरी भी मनीषा की बराबरी पर हैं। बिब्बोजान के रूप में उन्होंने अलग ही प्रभाव छोड़ा है। रिचा चड्ढा का किरदार छोटा है, वे और बेहतर कर सकती थीं। सोनाक्षी सिन्हा भी अपने अभिनय से असर छोड़ती हैं। संजीदा शेख याद रह जाती हैं। शर्मिन सहगल के अभिनय की कमियां समय-समय पर उभरती रहती हैं। मामा संजय भंसाली उन पर जरूरत से ज्यादा मेहरबान रहे। हालांकि ‘मलाल’ से तुलना की जाए तो उनमें काफी सुधार हुआ है।  
 
उस्तादजी के रूप में इंद्रेश मलिक की एक्टिंग देखने लायक है। अध्ययन सुमन, शेखर सुमन, जैसन शाह, फरदीन खान औसत रहे हैं।
 
हीरामंडी: द डायमंड बाजार को देखने की एक नहीं कई वजह हैं और यह ‘हीरा’ मूल्यवान है। 
 

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