laapataa ladies review: हिंदी सिनेमा में समाज का वो वर्ग गायब हो गया है जो ठेठ देहात में रहता है। जहां औरतें आज भी घूंघट करती हैं। शादी के बरसों बाद भी अपने पति का नाम लेने से कतराती हैं। घर का खाना सिर्फ पुरुषों की पसंद का ही बनाती हैं। जिन्हें कानून का कोई ज्ञान नहीं हैं। लड़कियों को इस तरह से पाला जाता है कि वे किसी की 'पत्नी' बने। इस समाज को किरण राव ने अपनी फिल्म 'लापता लेडीज़' में स्थान दिया है।
ट्रेन में दूल्हा-दुल्हन के कुछ जोड़े बैठे हैं। दुल्हनें एक सी साड़ी में घूंघट लिए हैं। इसी गलफत में जया गलत दूल्हे के साथ सुसराल चली जाती है और उस दूल्हे की असली दुल्हन फूल एक दूसरे ही रेलवे स्टेशन पर गलत दूल्हे के साथ उतर जाती है। इसके जरिये हास्यास्पद परिस्थितियां उत्पन्न तो होती ही है, लेकिन कुछ धीर-गंभीर बातें भी इन प्रसंगों के जरिेये दर्शाई गई हैं।
फिल्म में 2001 का समय दिखाया गया है, जब मोबाइल बस आया ही था। दुल्हन बदलने की रिपोर्ट होती है और बात पुलिस तक पहुंचती है। जया को एक परिवार अपनी बहू की तरह रखता है और कोशिश करता है कि वह सही जगह तक पहुंचे। वह अपनी उपस्थिति से घर की औरतों को हंसना सिखाती है। यहां पर महिलाओं पर भी तंज किया गया है कि वे सास-बहु, ननद-भाभी बन कर तो रहती है, लेकिन सहेली बन कर नहीं।
दूसरी दुल्हन फूल को स्टेशन पर कुछ लोग सहारा देते हैं और एक छोटी सी चाय की दुकान पर वह सीखती है कि महिला का पैरों पर खड़ा होना कितना जरूरी है। दुकान की मालकिन स्त्री के साथ हो रहे 'फ्रॉड' को उसे समझाती है। यहां पर 'शान' फिल्म से प्रेरित 'अब्दुल' किरदार भी है जो आमतौर पर रेलवे स्टेशन पर पाए जाते हैं।
फूल का अपने ससुराल के गांव का नाम पता नहीं होना, थोड़ा अचरज में डालता है। हालांकि शहर और गांव के नाम को जिस तरह से सरकार बदल रही है उस पर व्यंग्य के जरिये इस बात को छिपाया गया है, लेकिन कोई उसके मायके के बारे में पूछ कर उसे घर भेजने की कोशिश क्यों नहीं करता?
बिप्लव गोस्वामी की लिखी कहानी शुरू में अविश्वसनीय सी लगती है, लेकिन जैसे-जैसे परतें खुलने लगती है कहानी पर विश्वास जमने लगता है। वैसे भी हमारे देश में इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं जिनके बारे में जानकारी मिलती रहती है। बिप्लव की कहानी समाज के उस वर्ग को दिखाती है जहां शिक्षा तो धीरे-धीरे पहुंच रही है, लेकिन कानून और ज्ञान नहीं पहुंच पाया है। थाने में जाने में लोग अभी भी घबराते हैं।
इस कहानी पर स्नेहा देसाई ने बढ़िया स्क्रीनप्ले और संवाद लिखे हैं। उनकी स्क्रिप्ट में गहराई नजर आती है। खासतौर पर किरदारों, जैसे जया, फूल, फूल का पति, थानेदार, चाय दुकान की मालकिन, स्टेशन मास्टर, को जिस तरह से गढ़ा गया है वो फिल्म को दिलचस्प बनाता है।
फिल्म का अंत जिस तरह से किया गया है वो बेहतरीन है। कहानी को समेटने में निर्देशक और लेखकों की टीम ने जो कल्पना दिखाई वो आइसिंग ऑन द केक की तरह है।
निर्देशक किरण राव ने अपने कुशल निर्देशन से एक ऐसी फिल्म बनाई है जो मनोरंजक होने के साथ-साथ विषमताओं को दर्शाती है।
किरण राव के दो फैसले बहुत बढ़िया रहे। एक तो ये कि इस कहानी पर उन्होंने एकदम नए या ऐसे कलाकार लिए जिनसे दर्शक बिलकुल परिचित नहीं हैं। किसी परिचित चेहरे या स्टार की उपस्थिति मजा बिगाड़ देती। रवि किशन ही एकमात्र परिचित चेहरा फिल्म में नजर आते हैं और उनका रोल कुछ ऐसा है जो सिर्फ रवि किशन ही कर सकते थे।
दूसरा, फिल्म को रियल लोकेशन में फिल्माने का फैसला। किरण ने कहानी को रियलिटी के इतने नजदीक रखा है कि कुछ भी नकली नहीं लगता। मध्यप्रदेश के सीहोर जिले में इस मूवी को फिल्माया गया है और लोकेशन, किरदार, रेलवे स्टेशन इतने सजीव लगते हैं कि जो ठेठ देसीपन उभर कर सामने आता है वो फिल्म को ऊंचाई पर ले जाता है।
मैसेज को थोपने की कोशिश नहीं की गई है। ये कहानी का ही हिस्सा लगते हैं। किरण ने फिल्म का मूड हल्का-फुल्का रखा है और नाहक गंभीर होने से फिल्म को बचाए रखा है। उन्होंने फिल्म को तमाम लटको-झटकों से दूर रखा।
नितांशी गोयल, प्रतिभा रांटा, स्पर्श श्रीवास्तव, छाया कदम लीड रोल में हैं। इनके नाम बहुत कम लोगों ने सुने होंगे, लेकिन इनकी एक्टिंग कमाल की है। सपोर्टिंग कास्ट का काम भी ऐसा है कि लगता ही नहीं वे एक्टिंग कर रहे हैं। रवि किशन ने खूब मजे लेकर काम किया है क्योंकि उनका रोल ही ऐसा है और केवल वही इस रोल को कर सकते थे।
विकास नौलखा की फोटोग्राफी और जबीन मर्चेंट की एडिटिंग बढ़िया है। फिल्म के गीत अर्थपूर्ण हैं और राम सम्पत की धुन गीतों को सुनने लायक बनाती है।
लापता लेडीज़ उन दो दुल्हनों के बारे में तो है ही जो लापता हैं, लेकिन उन सभी महिलाओं के बारे में भी है जो 'लापता' सा जीवन जीती हैं या फिर खुद से ही 'लापता' है। इसे जरूर देखना चाहिए।
निर्माता : आमिर खान, किरण राव, ज्योति देशपांडे
निर्देशक : किरण राव
गीतकार : स्वानंद किरकिरे, प्रशांत पांडे, दिव्यनिधि शर्मा