Mission Raniganj movie review: जसवंत सिंह गिल उस शख्स का नाम है जिसने अपनी बहादुरी के बल पर 1989 में पश्चिम बंगाल स्थित रानीगंज कोयला खदान में जमीन के सैकड़ों फीट नीचे फंसे 65 श्रमिकों की जान बचाई थी। यहां लड़ाई समय से भी थी क्योंकि खदान में पानी भरता जा रहा था और कार्बन डाइऑक्साइड गैस श्रमिकों की सांस लेना दूभर कर रही थी। संसाधन ज्यादा नहीं थे, लेकिन जसवंत का साथ कुछ जुगाड़ू देते हैं। वे एक कैप्सूल का निर्माण करते हैं और एक-एक कर सभी खदान में काम करने वाले श्रमिकों को बाहर निकाल लेते हैं। जसवंत सिंह माइनिंग इंजीनियर थे और उनकी सूझबूझ के कारण यह रेस्क्यू ऑपरेशन सफलतापूर्वक हो पाया।
फिल्म 'मिशन रानीगंज: द ग्रेट भारत रेस्क्यू' के निर्देशक टीनू सुरेश देसाई के पास एक बेहतरीन कहानी थी, लेकिन जिस तरह से इसे स्क्रीन पर पेश किया गया है, जिस तरह से स्क्रीनप्ले लिखा गया है वो एक बेहतरीन अवसर को गंवाने का सबूत है। कहानी को नाटकीय बनाने की जिस तरह से छूट ली गई है उससे ही मामला बिगड़ गया है।
यह वास्तविक घटना टिपिकल बॉलीवुड किरदारों, तेज बैकग्राउंड म्यूजिक, मैलोड्रामैटिक घटनाओं और घटिया वीएफएक्स के तले दब गई। नि:संदेह गिल का कारनामा बहुत बड़ा है, लेकिन फिल्म में इसके साथ न्याय नहीं किया गया है।
कहानी को कहने के लिए कुछ प्रसंग लेखक दीपक किंगरानी और विपुल के रावल ने जोड़े हैं, लेकिन वे दिलचस्प नहीं है। भला इस कहानी में गाने का क्या काम है? अक्षय कुमार और परिणीति चोपड़ा का रोमांस फिल्म में फिट नही बैठता।
यूनियन लीडर, ऑफिस पॉलिटिक्स, स्थानीय नेता और कोलकाता में बैठे उच्च अधिकारी जिस तरह से कहानी के इर्दगिर्द रखे गए हैं वो बिलकुल भी अपील नहीं करते। ये सभी प्रसंग आधे-अधूरे से लगते हैं और सिर्फ फिल्म की लंबाई बढ़ाने के काम आते हैं। संभव है कि इसमें से कुछ घटनाएं वास्तविक हों, लेकिन इसे सही तरीके से लिखा और प्रस्तुत नहीं किया गया है। कई बार लगता है कि फिल्म में रेस्क्यू ऑपरेशन की बजाय अच्छाई बनाम बुराई वाले ट्रैक को ज्यादा महत्व दिया जा रहा है।
अंतिम 15 मिनट छोड़ दिए जाए तो इमोशन्स भी ठीक तरह से पैदा नहीं किए गए। खदान में फंसे मजदूर के परिजन फिल्मी स्टाइल में व्यवहार करते हैं और अंदर फंसे मजदूर की मनोदशा भी दर्शकों पर खास असर नहीं छोड़ती।
फिल्म के लेखक अपने काम के जरिये वो जज्बात पैदा नहीं कर पाए कि गिल का कारनामा दर्शकों के दिलों को छू जाए या उन्हें प्रेरित कर सके। निर्देशक के रूप में टीनू सुरेश देसाई निराश करते हैं। उन्होंने उम्दा कलाकारों की टोली को बरबाद तो किया ही, तकनीशियनों से भी अच्छा काम नहीं ले पाए। फिल्म के कई दृश्यों में नकलीपन उभर-उभर कर बार-बार सामने आता है।
अक्षय कुमार की दाढ़ी इतनी नकली लगती है कि आंखों को चुभती है। उनका लुक 'फेक' लगता है। क्या प्रोड्यूसर के पास इतना बजट नहीं था कि ठीक ठाक दाढ़ी चुनी जा सके? क्या अक्षय कुमार के पास इतना समय नहीं था कि वे सचमुच की दाढ़ी रख सके?
अक्षय कुमार की एक्टिंग औसत है। वे किरदार के भीतर घुस नहीं सके। उनके कुछ शॉट परफेक्ट नहीं थे फिर भी फिल्म में रख लिए गए। परिणीति चोपड़ा को दो-चार सीन मिले, लेकिन एक भी सीन ऐसा नहीं है जिसका उल्लेख किया जा सके।
कुमुद मिश्रा की विग हास्यास्पद है और सिवाय सिगरेट फूंकने के उन्होंने कुछ नहीं किया। यही हाल पवन मल्होत्रा का रहा। रवि किशन चीखते-चिल्लाते रहे। दिब्येंदु भट्टाचार्य और राजेश शर्मा ने अपने बंगाली किरदार स्टीरियो टाइप तरीके से निभाए। वीरेन्द्र सक्सेना, जमील खान, ओंकार दास मणिकपुरी, शिशिर शर्मा ओवर एक्टिंग करते दिखाई दिए।
आरिफ शेख की एडिटिंग लूज है। फिल्म कम से कम आधा घंटा छोटी की जा सकती थी। फिल्म के प्रोडक्शन डिजाइन में बजट की कमी महसूस की जा सकती है।
एक ऐसी कहानी जिसमें साहस है, इंसान के लड़ने की अद्भुत कला है, उसके साथ न्याय करने की क्षमता 'मिशन रानीगंज' फिल्म से जुड़े लोगों के पास नहीं थी।