साबिर खान उन फिल्मेकर्स में से हैं जो कुछ नया नहीं सोच पाते हैं और दक्षिण भारतीय फिल्मों के हिंदी रीमेक बनाते हैं। अब वे निकम्मा लेकर आए हैं, जिसके जरिये लंबे समय बाद शिल्पा शेट्टी बिग स्क्रीन पर नजर आई हैं। तो निकम्मा जो है वो 2017 में रिलीज हुई तेलुगु फिल्म मिडिल क्लास अब्बाई का हिंदी रीमेक है। मिडिल क्लास अब्बाई का हिंदी में डब किया वर्जन टीवी पर कई बार दिखाया जा चुका है। उसमें नानी और भूमिका चावला ने शानदार काम किया है और फिल्म भी बहुत ही देखने लायक है, लेकिन साबिर खान को रीमेक बनाते भी नहीं आया और उन्होंने निकम्मा में सब कबाड़ा कर दिया। अब एक हिट फिल्म का रीमेक भी देख-देख कर बनाना नहीं आता है तो निर्देशक को खुद के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए।
कहानी एक मिडिल क्लास लड़के की है जो निकम्मा है। कुछ काम धाम नहीं करता। वो निकम्मा क्यों है, क्यों नौकरी या पढ़ाई नहीं कर रहा है, ये फिल्म में नहीं बताया गया है। बस, निकम्मा कहा गया है तो आपको मानना होगा।
इन निकम्मे भाई साहब को मजबूरी वश अपनी भाभी के साथ रहना पड़ता है जिसे ये बिलकुल पसंद नहीं करते। पसंद क्यों नहीं करते, ये भी फिल्म में नहीं बताया गया है। आपको मानना होगा कि यह निकम्मा भाभी को पसंद नहीं करता है तो नहीं करता है।
कहानी आगे बढ़ती है। भाभी अपने निकम्मे देवर से नौकरों जैसा काम लेती है। भाभी आरटीओ ऑफिसर है। वैसे, आरटीओ में शिल्पा शेट्टी जैसी खूबसूरत ऑफिसर कभी देखने को नहीं मिलती, लेकिन ये फिल्म है तो ये बात मान लेते हैं।
भाभी का एक दिन एक गुंडे से पंगा हो जाता है जो चुनाव लड़ने वाला है और बात-बात पर बंदूक निकाल लेता है। अपने चेले-चपाटियों से सवाल पूछता है कि गोली किसे मारूं। संतुष्ट होने पर ही सामने वाले के सीने में गोली उतार देता है। वह भाभी को मारना चाहता है लेकिन बीच में निकम्मा देवर आ जाता है जिसकी सोच भाभी के प्रति बदल गई है।
गुंडा और निकम्मा देवर आपस में सुपर ओवर-सुपर ओवर खेलते हैं। गुंडा बोलता है कि तेरी भाभी को मैं 6 दिन में टपका दूंगा और ऐसा नहीं हुआ तो कभी नहीं मारूंगा। सुपर ओवर में कौन जीतता है ये फिल्म के अंत में पता चलता है।
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि वेणु श्रीराम की कहानी शानदार है। इसमें एक्शन, इमोशन, रोमांस, चैलेंज जैसी बातें उभर कर आती हैं। उन्होंने ही मिडिल क्लास अब्बाई का निर्देशन भी किया था और टीवी पर मौका मिले तो जरूर देखिए कि कमर्शियल फॉर्मेट में उन्होंने कितनी शानदार फिल्म बनाई थी जिसमें हर पल यह जानने की उत्सुकता रहती है कि आगे क्या होने वाला है।
इसी कहानी पर जब साबिर खान जैसा निर्देशक फिल्म बनाता है तो क्या हश्र होता है ये आप 'निकम्मा' में देख सकते हैं। कहते हैं ना कि फिल्म डायरेक्टर का मीडियम है, तो निकम्मा देख पता चलता है कि ये बात बिलकुल सही है। साबिर ने अच्छी कहानी को इतने बुरे तरीके से पेश किया है कि फिल्म झेलना मुश्किल हो जाती है। वे ड्रामे को ठीक से पेश ही नहीं कर पाए। कुछ सवाल पैदा होते हैं जिनके जवाब वे दे ही नहीं पाए।
फिल्म मिडिल क्लास अब्बाई में देवर-भाभी के किरदार सीधे दर्शकों से कनेक्ट होते हैं, लेकिन निकम्मा में ऐसा हो ही नहीं पाता। फिल्म में नकलीपन बुरी तरह हावी है और वो भी पहली फ्रेम से आखिरी फ्रेम तक। साबिर खान ड्रामे को दिलचस्प नहीं बना पाए जबकि उनके पास कहने को अच्छी कहानी थी। फिल्म में इमोशन्स और रोमांस की फीलिंग नहीं ला पाए। कहीं-कहीं तो दृश्यों की सीक्वेंसिंग भी सही नहीं है। कौन किस शहर में रहता है और वहां से उसकी दूरी कितनी है ये भी स्पष्ट नहीं है। नाहक ही फिल्म को यूपी का टच देने की कोशिश की गई है।
इंटरवल तक तो फिल्म बहुत उबाऊ है। इंटरवल के बाद थोड़ा सा रोमांच आता है, लेकिन ये उबाल बहुत जल्दी ठंडा हो जाता है। क्लाइमैक्स में चौंकाया गया है, लेकिन तब तक दर्शकों की रूचि फिल्म में खत्म हो जाती है।
अभिमन्यु दस्सानी और शिल्पा शेट्टी का काम अच्छा है। शर्ली सेठिया प्रभावित नहीं करती। अभिमन्यु सिंह विलेन जरूर बने हैं, लेकिन उनसे डर नहीं लगता।
कुछ गाने भी हैं जो ब्रेक के काम आ सकते हैं। टेक्नीकली भी फिल्म ओके-ओके है। कुल मिलाकर 'निकम्मा' देखने से बेहतर है कि मिडिल क्लास अब्बाई देख ली जाए।
निर्माता : सोनी पिक्चर्स इंटरनेशनल प्रोडक्शन्स, साबिर खान