ज्यादातर स्त्रियों के सपने शादी और मां बनने के बाद चकचनाचूर हो जाते हैं। शादी के बाद उनकी दुनिया पति, बच्चे और गृहस्थी के इर्दगिर्द ही घूमती है और वे सबसे ज्यादा खुद की उपेक्षा करती हैं।
'पंगा' फिल्म दर्शाती है कि अपना सपना पूरा करने का स्त्रियों को दूसरा अवसर मिलना चाहिए। इसमें उनके पति, बच्चों को सहयोग करना चाहिए।
दरअसल स्त्री शादी के बाद अपने सपनों को पूरा करने में इसलिए भी हिचकती हैं क्योंकि उन्हें इस बात का डर सताने लगता है कि कहीं वे स्वार्थी तो नहीं बन रही हैं? कहीं वे अपने पति और बच्चों के साथ अन्याय तो नहीं कर रही है?
क्या उसके बिना पति और बच्चे अपने आपको संभाल पाएंगे? दूसरी ओर ससुराल वालों का भी दबाव हो सकता है। इस कुचक्र में सपने दम तोड़ देते हैं।
इन सारे सवालों के जवाब 'पंगा' में मिलते हैं और यह फिल्म निश्चित रूप से उन महिलाओं को प्रेरित करेगी जिन्होंने अपने सपने शादी के बाद अधूरे छोड़ दिए हैं।
निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी की फिल्म 'पंगा' की कहानी जया निगम (कंगना रनौट) की है जो कबड्डी में भारतीय टीम की खिलाड़ी रह चुकी हैं।
शादी हो चुकी है और वे एक 6-7 साल के बेटे की मां हैं। वह फिर से कबड्डी खेल भारतीय टीम में शामिल होना चाहती है। उसके इसी संघर्ष को फिल्म में बहुत ही उम्दा तरीके से दिखाया है।
फिल्म की पहली फ्रेम में दिखाया गया है कि जया और उसका पति रात में सो रहे हैं और नींद में जया अपने पति को लात मारती है। निर्देशक ने इस सीन के जरिये दिखाया है कि जया सोते हुए वही सपना देख रही है जो वह जागते हुए भी देख रही है। इस कमाल के सीन के साथ फिल्म शुरू होती है।
एक मध्यमवर्गीय परिवार की उलझन, प्यार और काम को बढ़िया तरीके से दिखाया गया है। भोपाल में जया रहती है और रेलवे में नौकरी करती है।
नौकरी और परिवार के बीच उसने अच्छा संतुलन बना रखा है। पति और बच्चे का वह पूरा-पूरा ध्यान रखती है। पति और बेटे का भी उसे हर तरह से सहयोग मिलता है।
जया पति और बेटे को देख खुश होती है, लेकिन अपने आपको देख उसे खुशी नहीं मिलती। वह झुंझलाती है। गुस्सा करती है और उसे लगता है कि वह राह भटक गई है।
उसका बेटा उसे प्रेरित करता है कि वह फिर कबड्डी खेले। जया के लिए यह आसान नहीं था। बढ़ा वजन, वर्षों से खेल से बाहर, जैसी समस्या सामने थीं, लेकिन वह इनसे पार पाती है।
फिल्म दो हिस्सों में बंटी हुई है। पहले हाफ में जया का खुद से संघर्ष है कि वह सभी ड्यूटी निभाते हुए, अच्छे परिवार के होने के बावजूद आंतरिक रूप से खुश नहीं है। दूसरे हाफ में खिलाड़ी जया के संघर्ष को दर्शाया गया है।
पहला हाफ बहुत अच्छा है। इसमें कई छोटे-छोटे मोमेंट्स निर्देशन के क्रिएट किए हैं जो दर्शकों को खुश करते हैं। चाहे वो जया के अपने पति के साथ रात में की गई वॉक हो या उसके बेटे के मजेदार सवाल-जवाब।
ऐसा ही एक बढ़िया सीन है जिसमें जया कबड्डी खिलाड़ियों की टीम से ये सोच कर मिलने जाती है कि शायद उसे कोई पहचान लेगा, लेकिन उसे कोई नहीं पहचानता। यह भारत में कबड्डी खिलाड़ियों की दशा दर्शाने वाला छोटा सा उम्दा सीन है।
फिल्म का दूसरा हाफ पहले हाफ जैसा प्रभावी नहीं है। फिल्म ठहर सी जाती है। 'दंगल' की याद दिलाने लगती है, जिसे अश्विनी के पति ने ही बनाया था। खिलाड़ी के रूप में जया की जो तैयारियां दिखाई गई हैं वो हम पहले भी कई फिल्मों में देख चुके हैं। कुछ सीन दोहराव के शिकार होते हैं।
यहां पर निर्देशक ने थोड़ी छूट भी ली है। जया की खिलाड़ी के रूप में जिस तरह से इंडिया टीम में वापसी होती है उस पर यकीन करना थोड़ा मुश्किल होता है। लेकिन क्लाइमैक्स रोमांचक है जैसा कि स्पोर्ट्स बेस्ड फिल्मों का होता है।
अश्विनी अय्यर तिवारी का निर्देशन बढ़िया है। जया के अंदर जो चल रहा है उसे वे स्क्रीन पर लाने में कामयाब रही हैं। उनकी फिल्म बिना कुछ कहे भी बहुत कुछ कह जाती है। भोपाल, मुंबई और कोलकाता का स्वाद उनकी फिल्म से मिलता है। पति-पत्नी की ट्यूनिंग को भी उन्होंने अच्छे से दर्शाया है।
कंगना रनौट ने बहुत ही सहजता से अपना काम किया है। उन्हें देख लगता ही नहीं कि वे एक्टिंग कर रही हैं। वे जया ही लगती हैं। उनके चेहरे के एक्सप्रेशन्स बहुत कुछ कहते हैं। खिलाड़ी के रूप में उनकी मेहनत झलकती है।
जया के पति के किरदार में जस्सी गिल की सादगी देखते बनती है। मास्टर यज्ञ भसीन का अभिनय कमाल का है। उसे स्मार्ट किड दिखाया गया है जो बड़ी-बड़ी बातें करता है, लेकिन 'टिपीकल फिल्मी बच्चा' नहीं लगता।
रिचा चड्ढा का रोल कलरफुल है और वे दमदार तरीके से इसे निभाने में सफल रही हैं।
नीना गुप्ता छोटे रोल में अपना असर छोड़ती हैं। उस सीन में उनका अभिनय देखने लायक है जब वे बेटी जया को समझाती है कि जब भी वह टीवी में कुछ बोले तो मां का भी उल्लेख करे।
कोलकाता में जया की रूम मेट बनी मेघना बर्मन दर्शकों का ध्यान खींचती हैं। फिल्म का संगीत अच्छा है और जावेद अख्तर के बोल अर्थ लिए हुए हैं।
पंगा में गहरी बात सादगी से कही गई है और यही इस फिल्म की खूबी है।