1959 में घटित चर्चित नानावटी कांड में एक क्राइम थ्रिलर बनने के सारे गुण मौजूद हैं। एक ऑफिसर, उसकी अकेली पत्नी, पति के दोस्त के साथ अफेयर, एक मर्डर, अदालत में जोरदार बहस और देशभक्ति को लेकर बढ़िया फिल्म बनाई जा सकती है। ऐसा नहीं है कि पहले प्रयास नहीं हुए। ये रास्ते हैं प्यार के और अचानक इस घटना से ही प्रेरित होकर बनाई गई थी।
57 वर्ष पूर्व घटे इस घटनाक्रम को लेकर निर्देशक टीनू सुरेश देसाई ने अक्षय कुमार को लेकर 'रुस्तम' बनाई है। इस फिल्म को भी प्रेरित ही कहा जाएगा क्योंकि इसमें कल्पना के कुछ रेशे भी डाल दिए गए हैं। फिल्म को मनोरंजक बनाने के चक्कर में निर्देशक और लेखक थोड़े बहक गए जिससे इस थ्रिलर की गंभीरता कम हुई है और फिल्म उतना मजा नहीं दे पाती हैं।
रुस्तम पावरी (अक्षय कुमार) नेवी में ऑफिसर है। महीनों वह घर से दूर रहता है। इस दौरान उसकी पत्नी सिंथिया (इलियाना डीक्रूज) रुस्तम के दोस्त विक्रम (अर्जन बाजवा) की ओर आकर्षित हो जाती है और एक रात दोनों तमाम सीमाओं को तोड़ देते हैं। सिंथिया को गलती का अहसास होता है। वह अपने पति को इस बारे में बताए इसके पहले ही रुस्तम को यह बात पता चल जाती है। वह विक्रम की हत्या कर देता है। अदालत में उस पर मुकदमा चलता है जिसमें वह खुद की पैरवी करता है। किस तरह से रुस्तम अपने आपको निर्दोष साबित करता है यह फिल्म का सार है।
इस कहानी में सस्पेंस जैसा ज्यादा कुछ नहीं है। सब कुछ साफ है कि किसने हत्या की है और क्यों की है। मामला कोर्ट रूम ड्रामे पर बहुत ज्यादा निर्भर है। निर्देशक टीनू देसाई और लेखक विपुल के. रावल ने अपने पत्ते (घटनाक्रम) शुरुआत के पन्द्रह मिनट में ही खोल दिए हैं। पत्नी की बेवफाई का राज और उसके प्रेमी की हत्या इस दौरान हो जाती है इससे उत्सुकता जागती है कि अब फिल्म को कैसे समेटा जाएगा, लेकिन धीरे-धीरे निर्देशक और लेखक के हाथ से फिल्म फिसलने लगती है। खूब फैलाव और दोहराव नजर आता है। फिल्म में मनोरंजन का स्तर ऊपर-नीचे होता रहता है और फिल्म अंत तक पहुंचने में लंबा समय लेती है।
फिल्म का पहला हाफ ठीक है। इस दौरान कहानी को खूब घुमाया-फिराया गया है और दर्शकों की उत्सुकता को बनाए रखा है। दूसरे हाफ का 90 प्रतिशत समय अदालत में कटता है। यहां पर लेखक से चूक यह हो गई है कि उन्होंने अदालत वाले घटनाक्रम को गंभीर नहीं रखा है। शायद वे दर्शक को तनाव नहीं देना चाहते थे इसलिए हंसाने के लिए उन्होंने कुछ दृश्य रखे हैं जो बेतुके लगते हैं, कहानी की गंभीरता को कम करते हैं और फिल्म को उस वास्तविकता से दूर ले जाते हैं।
दर्शकों को जो चीज फिल्म से बांध कर रखती है वो है कहानी। इस कहानी में वो पकड़ है जिसकी वजह से दर्शक अंत तक बैठा रहता है। साथ ही कहानी में जो देशप्रेम और राष्ट्रभक्ति वाला रेशा डाला गया है वह फिल्म को ताकत देता है। फिल्म दर्शाती है कि भ्रष्टाचार की जड़ बहुत पुरानी है।
टीनू सुरेश देसाई का निर्देशक और प्रस्तुतिकरण वर्षों पुरानी फिल्मों जैसा है। वे उस फॉर्मूले पर काम करते नजर आए कि दो गंभीर दृश्य हो गए हैं अब दर्शकों को रिलैक्स करने के लिए एक हास्य दृश्य बीच में डाल दो। फिल्म पर से उनका नियंत्रण बार-बार छूटता रहा है। ड्रामे में वे थ्रिल भी पैदा नहीं कर पाए और नाटकीयता का पुट उन्होंने ज्यादा डाल दिया है।
1959 का समय दिखाने में कुछ अतिरिक्त ही प्रयास किए गए हैं। इस वजह से कुछ किरदार कैरीकेचर बन गए हैं। न केवल वे अजीब दिखते हैं बल्कि अजीब व्यवहार भी करते हैं। तकनीकी टीम से भी निर्देशक को सहयोग नहीं मिला है। इफेक्ट्स कमजोर हैं। रंगों का संयोजन इतना खराब है कि रंग आंखों को चुभते हैं।
फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक बेहद लाउड हैं। निर्देशक को पार्श्वसंगीत का सहारा लेकर यह बात बताना पड़ी है कि जो किरदार दिखाया जा रहा है उसके इरादे ठीक नहीं हैं। संपादन ढीला है। आसानी से फिल्म को बीस मिनट कम किया जा सकता था।
अक्षय कुमार ने गंभीरता से अपना काम किया है। अपने स्टारडम से वे बांध कर रखते हैं। नौसेना अधिकारी के रूप में उनकी फिटनेस देखने लायक है। इलियाना डीक्रूज के किरदार को उभरने का अवसर नहीं दिया गया है, लेकिन जितना अवसर उन्हें मिला है उसे उन्होंने अच्छे से निभाया है। ईशा गुप्ता, कुमुद मिश्रा, उषा नाडकर्णी के किरदार शायद दर्शकों को हंसाने के लिए रखे गए हैं। नकारात्मक रोल में अर्जन बाजवा अपना असर छोड़ते हैं।
रुस्तम तभी पसंद आएगी जब बहुत आशा लेकर न जाए क्योंकि कहानी में दम तो है, लेकिन लेखक और निर्देशक इसका पूरा दोहन नहीं कर पाए।