फिल्म अभिनेता ऋषि कपूर की ख्वाहिश थी कि वे अपनी पुश्तैनी हवेली देखने जाए जो अब पाकिस्तान में है, लेकिन यह कभी पूरी नहीं हो पाई। यह ख्वाहिश कई लोगों के दिलों में थी/है, जिनका बचपन/जवानी उन गली-मुहल्ले और शहरों में बीता है जो आजादी के बाद हुए बंटवारे में पाकिस्तान के हिस्से में आ गया और उन्हें मजबूरीवश भारत आना पड़ा।
फिल्म सरदार का ग्रैंडसन की सरदार (नीना गुप्ता) की उम्र हो चली है। ऐसी बीमारी हो गई है कि डॉक्टरों ने कह दिया है कि उसके पास ज्यादा समय नहीं है। अमृतसर में रहने वाली सरदार अमेरिका में व्यवसाय कर रहे अपने पोते अमरीक सिंह (अर्जुन कपूर) को कहती है कि उसकी ख्वाहिश है कि मरने के पहले वह लाहौर स्थित अपने उस घर में जाना चाहती है जो उसके पति गुरशेर सिंह (जॉन अब्राहम) ने बनवाया था। बटवारे के तुरंत बाद हुए दंगे में गुरशेर सिंह की हत्या हो गई थी और सरदार वहां से भाग कर अपने बेटे के साथ अमृतसर आ गई थी। अब उसके बेटे (कंवलजीत सिंह) का साइकिल का बड़ा कारोबार है।
अमरीक अपनी दादी को बेहद चाहता है। उसे जब लगता है दादी को पाकिस्तान ले जाना मुश्किल है तो वह वहां जाकर घर को भारत लाने का निश्चय करता है। आज के दौर में घरों, पेड़ों को एक जगह से दूसरी जगह शिफ्ट करना कठिन बात नहीं है। अमरीक के लिए यह काम आसान नहीं है क्योंकि घर उसे एक मुल्क से दूसरे मुल्क में शिफ्ट करना है। क्या वह अपनी दादी की अंतिम इच्छा को पूरा कर पाता है? कैसे वह यह काम करेगा? यह कहानी का सार है।
अनुजा चौहान द्वारा लिखी गई कहानी पर विश्वास करना कठिन है, लेकिन इससे भी इंकार नहीं है कि यह संभव नहीं है। हां, ऐसा करने में कई कठिनाइयां हैं और ये मुश्किलें फिल्म में नजर नहीं आतीं। इससे कहानी कई बार अतार्किक हो जाती है। लॉजिक साथ छोड़ता नजर आता है। हालांकि कहानी को हास्य का जामा पहनाया गया है, लेकिन कई बार फिल्म ट्रेक छोड़ते हुए ज्यादा ही फिल्मी हो जाती है। जैसे अमरीक का पाकिस्तान पहुंचकर देखना कि उसकी पुश्तैनी हवेली को तोड़ा जा रहा है तो वह वहां जिस तरह से हंगामा करता है वो हास्यास्पद है। हालांकि कॉमेडी करने की कोशिश की गई है, लेकिन ये सीक्वेंस इतने मनोरंजक नहीं है कि दर्शक सब कुछ भूल जाए।
कहानी में नई बात तो है, लेकिन यह वन लाइनर है। बात को विस्तार देने के लिए कुछ और प्रसंग शामिल किए गए हैं, जैसे अमरीक और राधा (रकुल प्रीत सिंह) का ब्रेकअप, अमरीक का अपनी दादी की साइकिल कंपनी को लेकर अपने सौतेले भाइयों से पंगा, लाहौर के मेयर का अमरीक की दादी से खुन्नस वाला प्रसंग, लेकिन ये कहानी को आगे बढ़ाने में कोई मदद नहीं करते, न ही मनोरंजक हैं। आधे-अधूरे से, अधपके से लगते हैं। खासतौर पर अमरीक-राधा का ब्रेकअप वाला पोर्शन तो देखना आसान नहीं है। अमरीक के अमृतसर आने पर ही फिल्म में थोड़ी जान आती है। भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों का घर शिफ्टिंग वाले मामले में शामिल होना और मामले का अंतरराष्ट्रीय बनना जल्दबाजी में निपटाया गया है।
काशवी नायर ने फिल्म का निर्देशन किया है। उन्होंने ड्रामे को कॉमेडी और इमोशनल की चाशनी में डूबोकर पेश किया है बजाय तर्क-वितर्क के। वे शायद दर्शकों से यह उम्मीद लगाए बैठे कि वे इमोशन की धारा में बह जाए और घर को पाकिस्तान से भारत कैसे लाया जाए, इस बहस में ना उलझे, लेकिन वैसी इमोशन की धारा बहा नहीं पाए। फिल्म अंतिम 30 मिनट में बढ़िया है जब इमोशन उभर कर आते हैं, लेकिन पूरी फिल्म में यह बात नजर नहीं आती। हालांकि बीच-बीच में कुछ सीन अच्छे लगते हैं, लेकिन इनकी संख्या कम है।
अर्जुन कपूर अपने किरदार में डूबने में वक्त लेते हैं। फिल्म की शुरुआती दृश्यों में उनका अभिनय खराब है, लेकिन इसके बाद वे रंग में आते हैं और इस फिल्म में उनका अभिनय थोड़ा निखरा है। वजन का उन्हें ध्यान रखना चाहिए। फिटनेस के दौर में उनका मोटापा आंखों को चुभता है। रकुल प्रीत सिंह के पास करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था, उनका रोल ठीक से लिखा भी नहीं गया है और न ही वे एक्टिंग से प्रभावित कर पाईं।
सरदार बनीं नीना गुप्ता का अभिनय असरदार है। कई दृश्यों में उन्होंने जान फूंकी है। उनका मेकअप अच्छा नहीं किया गया है। कुमुद मिश्रा, कंवलजीत, सोनी राजदान ने अपने किरदारों से न्याय किया है। जॉन अब्राहम और अदिति राव हैदरी के कैमियो हैं और अदिति ही याद रहती हैं। गाने केवल फिल्म की लंबाई बढ़ाते हैं। फिल्म को चुस्त संपादन की जरूरत थी और कम से कम तीस मिनट छोटी की जा सकती थी।
सरदार का ग्रैंडसन की कहानी दिलचस्प है, लेकिन प्रस्तुतिकरण में वो बात नहीं है।
निर्माता : भूषण कुमार, दिव्य कुमार खोसला, कृष्ण कुमार, मोनिषा आडवाणी, मधु भोजवानी, निखिल आडवाणी, जॉन अब्राहम