जलियांवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 को जो घटना घटी थी वो मानव इतिहास की सबसे ज्यादा कलंकित घटनाओं में से एक है। हजारों निहत्थे लोग, जिन्में बच्चे, गर्भवती महिलाएं, वृद्ध और जवान एकत्रित होकर शांतिपूर्ण तरीके से अपनी बात कह रहे थे उन पर गोलियों की बरसात कर दी गई। कहा जाता है कि एक हजार से ज्यादा लोगों की जान गई और कई घायल हुए।
फिल्म 'सरदार उधम' में जब यह घटना दिखाई जाती है तो दर्शकों की हालत खराब हो जाती है। गुस्सा, दु:ख, दर्द जैसी कई भावनाएं एक साथ घुमड़ती हैं और जो महसूस होता है उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। मासूमों की लाशों का ढेर, कराहते लोग, घावों से रिसता खून आपको बैचेन कर देता है। फिल्म देखते समय ये सब देख बुरी हालत हो जाती है तो सोचा जा सकता है कि वास्तव में जिन्होंने इसे देखा होगा उनका क्या हाल हुआ होगा? शायद इस सदमे से उबरने में उन्हें वर्षों लगे होंगे। उधम सिंह भी उन शख्सों में से एक थे। इस घटना के बाद उधम सिंह तो हंसना और खुश रहना ही भूल गए। उधम सिंह के दिल पर लगा घाव हमेशा हरा रहा। नासूर बन गया। लगभग 21 साल बाद उन्होंने माइकल ओ'डायर को गोली मार दी जो जलियांवाला बाग की घटना के समय पंजाब के उपराज्यपाल थे और जिनका इस घटना के पीछे हाथ था।
'सरदार उधम' में दर्शाया गया है कि किस तरह उधम सिंह भारत से अफगानिस्तान और यूएसएसआर होते हुए इंग्लैंड पहुंचे। वहां मौका तलाशा और फिर अपने मिशन को अंजाम दिया। ये 21 साल उनके लिए एक तपस्या की तरह थे और यह बहादुरी वाला कारनामा भारत की गुलामी के दौर में बहुत कठिन था।
इन दिनों हिंदी फिल्मों में देशभक्तों पर बायोपिक बनाने की होड़ लगी हुई है। फिल्म के नाम पर छूट, तथ्यों के साथ आज के दौर के मुताबिक छेड़छाड़ और मनोरंजक का तड़का लगाने के चक्कर में वास्तविकता की अनदेखी कर दी जाती है। चूंकि इस समय देशभक्ति की भावना सिर चढ़ कर बोल रही है इसलिए दर्शक भी इन बातों को अनदेखा कर देते हैं।
हिंदी फिल्म बनाने वालों और देखने वालों को 'सरदार उधम' देखना चाहिए। यह बहुत अध्ययन और शोध (research) कर बनाई गई विस्तृत (detailed) और व्याख्यात्मक (explanatory) फिल्म है। निर्देशक शुजीत सरकार को अपनी बात कहने में 163 मिनट लगे, लेकिन प्रामाणीकता (authenticity) के लिए उन्होंने कोई समझौता नहीं किया। मनोरंजन के नाम पर उनके कदम नहीं बहके। हालांकि फिल्म की शुरुआत में अस्वीकरण (disclaimer) है कि 'सरदार उधम' सच्ची घटनाओं पर आधारित है, लेकिन फिल्म के लेखक शुभेंदु भट्टाचार्य और रितेश शाह ने फिल्म को सटीकता के नजदीक रखने की पूरी कोशिश की है।
सरदार उधम नॉन लीनियर तरीके से पेश की गई है। बार-बार समय की सुई आगे-पीछे होती रहती है। दर्शकों को अलर्ट रहना पड़ता है। पहले घंटे में फिल्म की गति बहुत धीमी है और शुजीत को इस बारे में सोचना चाहिए। फिल्म उधमसिंह की मनोस्थिति और ओ'डायर की दिमागी हलचल को दिखाती है। उधम सिंह एक बार ओ'डायर के घर में उससे इस घटना के बारे में बात करते हैं। उधम सिंह को ओ'डायर को मारने के आसान मौके मिलते हैं, लेकिन वह इस तरह से घटना को अंजाम देने का मौका ढूंढते हैं जिससे यह बात पूरे विश्व तक पहुंचे।
आमतौर पर देशभक्ति की फिल्मों में अंग्रेजों को बेहद लाउड दिखाया जाता है या फिर उनके कैरेक्टर को कैरीकेचर कर दिया जाता है, लेकिन 'सरदार उधम' में इस चीज से बचा गया है। फिल्म में इंस्पेक्टर स्वैन जैसे किरदार भी हैं जो उधम सिंह की सोच और उसके इरादों को बिना किसी पूर्वाग्रह के समझते हैं।
निर्देशक और लेखक ने उधम सिंह की सोच को सामने रखा है। उधम सिंह पकड़े जाने के बाद लंबे समय तक अपना सही नाम पुलिस को नहीं बताते। बाद में वह अपने हाथ पर गुदा हुआ राम मोहम्मद सिंह आजाद नाम दिखाते हैं, यह नाम दर्शाता है कि उधम सिंह विभिन्न धर्मों की एकता के पक्षधर थे और अंग्रेजों के धर्म के आधार पर बांटने की नीति के विरोधी थे। वे ऐसे स्वतंत्र देश का सपना देख रहे थे जो किसानों, छात्रों और श्रमिकों के लिए समानता का लक्ष्य रखता हो।
फिल्म में एक दृश्य हैं जहां उधम सिंह की फैक्ट्री में काम करते समय अपने सीनियर अंग्रेज से लड़ाई हो जाती है जो श्रमिकों को सम्मान भी नहीं करता और काम के नाम पर शोषण करता है। उधम सिंह इस शोषण के खिलाफ आवाज उठाते हैं और कहते हैं कि सरकार से लेकर तो श्रमिक तक शोषण का यह सिलसिला चलता है।
निर्देशक शुजीत सरकार ने इस बात की पूरी कोशिश की है कि फिल्म ज्यादा से ज्यादा वास्तविकता के निकट और सटीक हो। हालांकि उनका प्रस्तुतिकरण आम दर्शकों के लिए थोड़ा कठिन है। यदि इसे वे थोड़ा आसान रखते तो ज्यादा से ज्यादा दर्शक बातों को समझते। आसान फिल्मों को पसंद करने वाले दर्शकों को यह फिल्म बेतरतीब लग सकती है।
ओ'डायर की हत्या वाला घटनाक्रम भी फिल्म में उन्होंने बहुत जल्दी दिखाया है और इसे बहुत ज्यादा हाईलाइट नहीं किया। शुजीत का फोकस इस बात पर ज्यादा रहा है कि किस तरह से उधम सिंह धीरे-धीरे स्टेप बाय स्टेप आगे बढ़ते हैं। उधम सिंह की बहादुरी को उन्होंने 'हीरो' की तरह पेश नहीं किया है बल्कि एक आम आदमी की तरह उन्हें दिखाया है। जलियांवाला बाग हत्याकांड को बेहद सूक्ष्मता के साथ दिखाया है जो दहला देने वाला है।
कुछ सीन जरूर हटाए जा सकते थे, जिनका फिल्म से जुड़ाव कम है। फिल्म का मूड उदास है जिसे की उधमसिंह की मनोस्थिति से कनेक्ट किया गया है, लेकिन इस तरह की उदास फिल्में भारतीय दर्शक कम ही पसंद करते हैं।
तकनीकी रूप से फिल्म शानदार है। अविक मुखोपाध्याय की सिनेमाटोग्राफी वर्ल्ड क्लास है। उनके द्वारा शूट किए गए दृश्य दर्शकों पर गहरा असर छोड़ते हैं। शांतनु मोइत्रा का बैकग्राउंड म्यूजिक फिल्म को गहराई देता है।
विक्की कौशल ने अपने किरदार को बेहद संयमित तरीके से निभाया है। उनकी जलती आंखें, दर्द, गुस्से और दु:ख को बयां करती है। बिना लाउड हुए उन्होंने बेहद ठोस एक्टिंग की है और इसके पीछे निर्देशक शुजीत सरकार का भी अहम योगदान है। अमोल पाराशर, बनिता संधू, शॉन स्कॉट, स्टीफेन होगेन, किर्स्टी एवर्टन सहित अन्य कलाकार भी असर छोड़ते हैं।
'सरदार उधम' एक त्रासदी, एक वीर की कहानी और उसकी सोच को बहुत ही सूक्ष्मता के साथ दिखाती है।