लुटा-पिटा है ये सिकंदर, मनोरंजन की जगह सिरदर्द | सिकंदर फिल्म समीक्षा

दर्शकों के चहेते स्टार सलमान खान, जो अपने नाम पर दर्शकों की भीड़ जमा कर लेते हैं। निर्देशक एआर मुरुगोदास जिनके नाम पर गजनी जैसी कुछ बेहतरीन फिल्में दर्ज है। साजिद नाडियाडवाला जो फिल्म बनाने पर पानी की तरह पैसा बहाते हैं। ये तीनों साथ हुए तो लगा कि मनोरंजन की बाढ़ आ जाएगी, लेकिन खोदा पहाड़ और ‘सिकंदर’ नामक चूहा बाहर आया। मनोरंजन तो दूर की बात है, फिल्म की मेकिंग भी ढंग की नहीं है। इन दिनों जहां तमाम निर्माता-निर्देशक-कलाकार दर्शकों के मनोरंजन के ‍लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं, वहीं सिकंदर जैसी फिल्म सी ग्रेड फिल्म सामने आती है जिससे ए-ग्रेड के लोग जुड़े हुए हैं और जिसमें ‍क्रिएटिविटी के नाम पर कुछ नहीं है। 
 
सिकंदर जिसका रियल नेम संजय है, उसे लोग राजा साब भी कहते हैं। उसके ये नाम क्यों पड़े हैं इसको लेकर लंबा-चौड़ा सीन है। ये राजकोट के राजा है। आलीशान महल में रहते हैं और जनता की सेवा के लिए जम कर नोट खर्च करते हैं। अब ये पैसे कहां से आते हैं, पूछिए मत। और राजा-प्रजा के दौर को आज के जमाने में फिट करना लेखकों के दिमाग के दिवालिएपन का सबूत है। 
 
एक नेता (सत्याराज) के बेटे (प्रतीक) से सिकंदर का झगड़ा हो जाता है। मुंबई जब सिकंदर पहुंचता है तो नेता पूरी पुलिस को सिकंदर को ढूंढने के लिए भेज देता है। सिकंदर आराम से घूमता है, लेकिन पुलिस को कहीं नजर नहीं आता।  
 
कहने का मतलब ये कि मुरुगादोस ने कहानी के नाम पर कुछ भी लिख कर टिका ‍दिया। ऊपर से स्क्रीनप्ले भी इतना घटिया है ‍कि दर्शकों का कहीं भी मनोरंजन नहीं होता। रोमांस फीका है। सलमान और रश्मिका की जोड़ी नहीं जमती। रोमांटिक सीन में दोनों असहज नजर आते हैं और दर्शक बोर होते हैं। 

 
कॉमेडी सीन जो भी थोड़े बहुत हैं, उन पर हंसी नहीं छूटती। एक्शन सीन की भरमार है, लेकिन उनमें थ्रिल नहीं है। गुंडे बदमाश उछलते रहते हैं और सलमान स्लो मोशन वॉक करते रहते हैं। क्या सलमान इतने फिट नहीं है कि भागदौड़ कर सके? एक्शन सीन में उन्होंने सिर्फ क्लोजअप्स दिए हैं। 
 
कहानी के नाम पर कुछ भी लिखने के बाद लेखक ने सोचा कि कुछ मैसेज भी डालना चाहिए, तो उन्होंने ऑर्गन डोनेशन, महिलाओं को काम करने की आजादी, अल्फा मेल की सोच जैसी कुछ बातें भी ठूंस डाली है। फिल्म में इन बातों का कोई कनेक्शन नजर नहीं आता। दृश्य फिल्मा लिए गए और उन्हें बेतरतीब तरीके से जोड़ दिया गया। इससे दर्शक कहीं भी फिल्म से कनेक्ट नहीं हो पाते। 
 
निर्देशक के रूप में भी एआर मुरुगादोस बहुत निराश करते हैं। फिल्म देख लगता ही नहीं कि कोई इसका निर्देशक भी है। बिना ड्रायवर के चलने वाली गाड़ी की तरह फिल्म लगती है जो कहीं भी घुस जाती है। जोड़-तोड़ काट-पीट कर कुछ भी उन्होंने बना कर पेश कर दिया है। सलमान के कैरेक्टर को उदास व्यक्ति के रूप में पेश कर भी उन्होंने बड़ी गलती की। फिल्म में खलनायक का रोल इतना दबा हुआ है कि हीरो-विलेन की टक्कर की आंच दर्शकों को महसूस ही नहीं होती। विलेन सिर्फ चिल्लाता रहता है।  
 
सलमान खान अपने फैंस को निराश करते हैं। पहली गलती तो उन्होंने इस घटिया फिल्म को हां कह कर की। दूसरी ये कि पूरी फिल्म में वे काम के प्रति अनिच्छुक लगे। अपने रोल को बेहतर तरीके से पेश करने की ‍दिशा में उन्होंने कुछ भी नहीं किया। 

 
रश्मिका मंदाना कम समय के लिए स्क्रीन पर रहती हैं, लेकिन उपस्थिति दर्ज कराती हैं। विलेन के रूप में सत्यराज ने जम कर ओवर एक्टिंग की है और वे फिल्म की बेहद कमजोर कड़ी साबित हुए हैं। इंस्पेक्टर के रूप में ‍किशोर और नेता के बेटे के रूप में प्रतीक बब्बर जरूर काम के प्रति गंभीर नजर आए। काजल अग्रवाल और शरमन जोशी ने यह फिल्म क्यों साइन की, ये सवाल वे खुद से जरूर पूछेंगे। 
 
टेक्नीकल डिपार्टमेंट में भी फिल्म कमजोर है। सेट निहायत ही नकली है। सिनेमाटोग्राफी स्तरीय नहीं है। एडिटिंग ऐसी है कि दर्शकों को लगातार झटके महसूस होते हैं। बैकग्राउंड म्यूजिक के नाम पर शोर है। संगीतकार प्रीतम एक भी हिट गाना नहीं दे पाए। गानों का पिक्चराइजेशन भी औसत है।  
 
कुल मिला कर यह सिकंदर बहुत ही कमजोर है और हर जगह से पिटा हुआ है। इसे सिर्फ सलमान खान की घटिया ‍फिल्म के लिए ही याद किया जाएगा।
 

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