सरकारी एजेंसियों/ अधिकारियों की कार्यशैली पर फिल्म बनाना निर्माता-निर्देशक नीरज पांडे को बेहद पसंद है। ए वेडनेस डे, स्पेशल 26, बेबी, अय्यारी में हम यह बात देख चुके हैं।
सरकारी कार्यशैली को नीरज इतनी बारीकी से दिखाते हैं कि दर्शकों को लगता है कि वे सरकारी दफ्तर में मौजूद हैं और उस दफ्तर के माहौल को आत्मसात कर लेते हैं।
नीरज ने अब वेबसीरिज में हाथ आजमाया है और 'स्पेशल ऑप्स' नामक उनकी वेबसीरिज हॉट-स्टार पर दिखाई जा रही है।
इसमें एक ऑपरेशन दिखाया है जो 19 साल लंबा है और कई देशों में फैला हुआ है। इस ऑपरेशन में वो तमाम उतार-चढ़ाव और थ्रिल मौजूद हैं जो इस विषय की मांग है।
जैसा कि नीरज के काम में देखने को मिलता है कि वे वास्तविक घटनाओं के इर्दगिर्द कल्पना का तानाबुना बुनते हैं जिससे मामला दिलचस्प हो जाता है।
13 दिसम्बर 2001 में नई दिल्ली स्थित भारत की संसद पर आतंकी हमला हुआ था। इसके पीछे दो पाकिस्तानी आतंकवादियों संगठन 'लश्कर-ए-तोइबा' और 'जैश-ए-मोहम्मद' का हाथ माना गया था।
पांच आतंकी कार के जरिये संसद के परिसर में घुस गए। इन्हें मार गिरा दिया गया, लेकिन 6 दिल्ली पुलिसवाले, दो सिक्योरिटी पर्सनल और एक माली को भी जान गंवाना पड़ी। इस वास्तविक घटना को 'स्पेशल ऑप्स' का आधार बनाया गया है।
रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के हिम्मत सिंह (केके मेनन) का मानना है कि पांच आतंकवादी कार में हमला करने आए थे और उनका एक आतंकवादी साथी जो कि उनका मास्टरमाइंड था वो संसद परिसर में पहले से ही मौजूद था।
इस छठे आदमी को पकड़ने के लिए वह अपनी टास्क फोर्स टीम बनाता है जिसमें पांच एजेंट्स दुनिया के अलग-अलग देशों में सूत्र जुटाने की कोशिश करते हैं।
छठे आदमी की थ्योरी पर हिम्मत सिंह को पूरा यकीन है, लेकिन इस बात का उसके पास कोई ठोस सबूत नहीं है। उसके इस विचार की खिल्ली भी उड़ाई जाती है।
19 साल बीतने पर हिम्मत सिंह के खिलाफ एक जांच बैठाई जाती है और उससे उन पैसों का हिसाब पूछा जाता है जो उसने इस मिशन पर खर्च किया है।
क्या कोई छठा आदमी है? क्या यह हिम्मत सिंह की कोरी कल्पना है? हिम्मत सिंह की टीम किस तरह से अंतिम फैसले या टारगेट तक पहुंचती है? इन प्रश्नों के जवाब रोचक अंदाज में 'स्पेशल ऑप्स' में मिलते हैं।
कहानी बेहद सधी हुई है और अंत तक दर्शकों को बांध कर रखती है। आठ एपिसोड्स में इन्हें बांट रखा है और एक एपिसोड के बाद दूसरा तत्काल देखने का आप लोभ संवरण नहीं कर पाते।
हर एपिसोड को नाम दिया गया है- कागज़ के फूल, गाइड, मुगल-ए-आज़म, हम किसी से कम नहीं, चौदहवीं का चांद, कुरबानी, शतरंज के खिलाड़ी और शोले। जो मेकर्स का हिंदी फिल्मों के प्रति अगाध प्रेम को दर्शाता है।
पहले चार एपिसोड कमाल के हैं जब परत दर परत राज खुलते हैं। हर एपिसोड में दर्शकों को चौंकाया जाता है। नए-नए किरदारों की एंट्री होती रहती है।
अंतिम चार एपिसोड्स में लेखकों ने थोड़ी सहूलियत ली है। कुछ घटनाक्रम ऐसे हैं जो विश्वसनीय नहीं लगते। विदेश में जिस तरह से वे लोगों को मारते हैं, हथियार जुटाते हैं, स्थानीय पुलिस को चकमा देते हैं उस पर यकीन करना मुश्किल होता है, लेकिन मनोरंजन और थ्रिल का तत्व इतना हावी है कि आप इसे छोटी-मोटी गलतियां मान कर इग्नोर कर देते हैं। कहने का मतलब ये है कि ये कमियां आपके मनोरंजन में खलल नहीं डालतीं।
तकनीकी रूप से स्पेशल ऑप्स बेहतरीन है। इसके कुछ एपिसोड्स नीरज पांडे और कुछ शिवम नायर ने डायरेक्ट किए हैं। जिस तरह से कहानी को पेश किया गया है वो इसे कहानी से ज्यादा दिलचस्प बनाता है।
हिम्मत सिंह जांच समिति के सदस्यों को खर्च पैसों का हिसाब देता है और कहानी बार-बार आगे-पीछे होती रहती है। दुबई, इस्तांबुल, ईरान, पाकिस्तान, रूस सहित कई देशों में कहानी को घुमाया जाता है जिसमें से ज्यादातर रियल लोकेशन्स पर शूट की गई है।
शुरुआत में किरदारों और लोकेशन्स को याद रखने में थोड़ी तकलीफ हो सकती है, लेकिन यह बहुत कठिन नहीं है और न ही इससे कोई कन्फ्यूजन पैदा होता है। नीरज और शिवम ने कहानी को जरूरी उतार-चढ़ाव दिए हैं और फ्लेशबैक का इस्तेमाल किया है।
कहीं-कहीं यह बात महसूस होता है कि निर्देशक ने लंबाई बढ़ाने के लिए कुछ बातों को खींचा है। मसलन हर एजेंट्स के एंट्री वाले और उनके टेस्ट वाले सीन कि वे कितने चुस्त-दुरुस्त बने हुए हैं।
इसी तरह हिम्मत सिंह के पारिवारिक सीन देख लगता है कि नीरज ने अपने पुराने कामों को ही दोहराया है। हालांकि हिम्मत का अपनी 17 वर्षीय बेटी को लेकर चिंतित होने वाले सीन मजेदार भी हैं।
सिनेमाटोग्राफी, बैकग्राउंड म्युजिक, लोकेशन्स, किरदारों का गेटअप, आर्ट डायरेक्शन ऊंचे स्तर का है। खूब पैसा खर्च किया गया है और छोटे-छोटे शॉट्स में भी किसी तरह का समझौता नहीं किया गया है। जिस तरह का माहौल क्रिएट किया गया है उसे आपकी दिलचस्पी इस सीरिज में खासी पैदा हो जाती है।
स्पेशल ऑप्स में बेहतरीन एक्टर्स की फौज है। केके मेनन अभिनय की दुनिया के कितने मजबूत खिलाड़ी हैं कहने की जरूरत नहीं है। उन्होंने बहुत ठहराव के साथ काम किया है। छोटे-छोटे एक्सप्रेशन्स तल्लीनता के साथ दिए हैं।
उनकी डॉयलॉग डिलेवरी कमाल की है। किस शब्द पर जोर देना है, कहां ठहराव लाना है ये बातें अभिनय के विद्यार्थी उनसे सीख सकते हैं।
अब्बास शेख की भूमिका में विनय पाठक ने कमाल का अभिनय किया है। हाफिज़ अली की भूमिका में सज्जाद डेलाफ्रूज़ ने टेरर पैदा किया है। सरोज की भूमिका में गौतमी कपूर ने दिखाया कि वे कितनी बेहतरीन अभिनेत्री हैं।
परमीत सेठी, काली प्रसाद मुखर्जी, एसएम ज़हीर भी अपना असर छोड़ते हैं। सैयामी खेर बड़ा नाम हैं, लेकिन उन्हें पर्याप्त अवसर नहीं मिले। मेहर विज़ मिसफिट लगीं। इस्माइल के रूप में रजत कौल कमजोर लगे। सना खान को अच्छा अवसर मिला जिसे वे ठीक से भुना नहीं पाई।
फारूक/अमजद/रशीद के रूप में करण टेकर लीड रोल में हैं। उन्हें बेहतरीन अवसर मिला है जिसका उन्होंने भरपूर फायदा उठाया। वे हैंडसम लगे और एक्टिंग में उनकी रेंज भी नजर आती है।
स्पेशल ऑप्स वेबसीरिज की भीड़ में 'स्पेशल' है और इसे मिस नहीं करना चाहिए।