स्त्री एक हॉरर-कॉमेडी फिल्म है जिसमें कॉमेडी ज्यादा है। यहां तक कि डरावने दृश्यों में भी आप हंसते रहते हैं। चंदेरी नामक एक कस्बे की कहानी है जहां पर हर वर्ष पूजा के खास चार दिनों में भय का माहौल छा जाता है। कहा जाता है कि एक स्त्री आती है और रात में पुरुष को ले जाती है। यह चुड़ैल पढ़ी-लिखी है। जिस घर की दीवार पर लिखा होता है 'ओ स्त्री कल आना', वहां यह नहीं आती। बेवकूफ भी है जो 'कल' वाली बात उसे समझ में नहीं आती है।
चंदेरी का मनीष मल्होत्रा यानी कि विक्की (राजकुमार राव) लेडिस टेलर है जो मात्र 31 मिनट में लहंगा सिल देता है। उसके दो खास यार हैं, बिट्टू (अपारशक्ति खुराना) और जाना (अभिषेक बैनर्जी)। विक्की की मुलाकात एक लड़की (श्रद्धा कपूर) से होती है जो उसे पसंद आती है। इससे बिट्टू को जलन होने लगती है। यह लड़की पूजा वाले दिनों में ही आती है, नाम नहीं बताती, उसके पास मोबाइल भी नहीं है। बिट्टू को शक है कि यही वो स्त्री है जिसने चंदेरी के पुरुषों को परेशान कर रखा है। बिट्टू, विक्की, जाना और रूद्र (पंकज त्रिपाठी) इस रहस्य से परदा उठाते हैं।
फिल्म की कहानी बहुत दमदार नहीं है। अच्छी शुरुआत के बाद लड़खड़ा जाती है। फिल्म का अंत कई सवाल छोड़ जाता है और दर्शकों को पूरी तरह संतुष्ट नहीं करता। जिस खूबसूरती से बात को शुरू किया गया था वैसा समेट नहीं पाए। आखिर 'स्त्री' का इरादा क्या था, पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाया। उसके अतीत के बारे में एक कहानी बताई गई है कि वह स्त्री एक खूबसूरत वेश्या थी जिससे एक पुरुष प्यार कर बैठता है। यह चंदेरी के लोगों पसंद नहीं आती और वे दोनों को मार डालते हैं।
यह दर्शाने की कोशिश की गई है कि प्रेम को समाज बर्दाश्त नहीं कर पाता। वेश्या से संबंधों पर समाज को आपत्ति नहीं है, लेकिन उससे आप प्यार नहीं कर सकते। फिल्म में कुछ और बातें भी अस्पष्ट हैं जैसे रूद्र एक मृत महिला से फोन पर बात करता रहता है। इसका रहस्य क्या था यह फिल्म में बताना ही भूल गए।
लेकिन ये कमियां भारी नहीं पड़ती हैं क्योंकि फिल्म मनोरंजन से भरपूर है। निर्देशक अमर कौशिक को हंसाने वाले वन लाइनर, शानदार लोकेशन और बेहतरीन एक्टर्स का साथ मिला है और ये खूबियां फिल्म की कमजोरियों पर भारी पड़ती है। दर्शक हंसते-हंसते इन बातों पर ध्यान नहीं देते हैं।
एक कस्बे की बारीकी को निर्देशक ने बहुत खूबी से पकड़ा है। ऐसा लगता है जैसे हम खुद उस छोटे से कस्बे में पहुंच गए हों। पुराने घर, संकरी गलियां, मंदिर, ओटले बहुत अच्छी तरह से फिल्माए गए हैं। इस कस्बे के रहने वाले लोगों के मिजाज को भी अच्छी तरह से दर्शाया गया है। विक्की, बिट्टू और जाना पर फिल्माए गए दृश्य खूब हंसाते हैं।
एक कस्बे में रहने वाले लड़के से जब लड़की बात करती है तो उस लड़के की हालत और उसके दोस्त को होने वाली तकलीफ वाले सीन बेहतरीन बन पड़े हैं। पिता-पुत्र के बीच वाला एक सीक्वेंस भी खूब हंसाता है जिसमें पिता अपने जवान होते बेटे को जवानी काबू में रखने के उपाय बताता है।
निर्देशक और लेखक ने आज की राजनीतिक परिस्थिति को भी बड़ी सफाई के साथ फिल्म से जोड़ा है। एक किरदार (विजय राज) को अभी भी लगता है कि इमरजेंसी लगी हुई है। लोग उसे कहते हैं कि अब हालत सुधर चुकी है, लेकिन वह मानने को तैयार नहीं है। एक दोस्त दूसरे को बोलता है कि कुछ भी बनो पर भक्त ना बनो। इन दृश्यों के साथ कॉमेडी को खूबसूरती के साथ जोड़ा गया है।
निर्देशक के रूप में अमर कौशिक का काम सराहनीय है। उन्होंने फिल्म की कमियों को ज्यादा उभरने नहीं दिया और दर्शकों के एंटरटेनमेंट का भरपूर ध्यान रखा। साथ ही वे अंत तक दर्शकों की यह उत्सुकता बनाए रखने में सफल रहे हैं कि आगे क्या होगा। हालांकि रहस्य से परदा उठ भी जाता है, लेकिन फिल्म में रूचि बनी रहती है। कहानी को कहने का उनका प्रस्तुतिकरण उम्दा है।
फिल्म के संवाद बेहतरीन हैं। चक्षु, आंकलन, निम्नलिखित जैसे गाढ़ी हिंदी शब्द भी सुनने को मिलते हैं। इनका इस्तेमाल इतनी सफाई से किया गया है कि आपके चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। साथ ही कूल दिखने के लिए किरदारों का अंग्रेजी शब्दों का उच्चारण भी खूब हंसाता है।
अभिनय फिल्म का बहुत मजबूत पक्ष है। छोटे शहर के किरदार में राजकुमार राव हमेशा कमाल करते आए हैं। इस फिल्म में भी वे सब पर भारी पड़ते हैं। एक सीन में वे दोस्तों के सामने आत्मविश्वास से भरे नजर आते हैं तो दूसरे ही सीन में वे लड़की के आगे हकलाते नजर आते हैं। उनकी कॉमिक टाइमिंग बढ़िया है। श्रद्धा कपूर के लिए करने को ज्यादा कुछ नहीं था, लेकिन वे जब भी आती हैं रहस्य गहरा जाता है।
बिट्टू के किरदार के रूप में अपारशक्ति खुराना जबरदस्त रहे हैं। 'विक्की प्लीज' वाले सीन में उनका अभिनय कमाल का है। अभिषेक बैनर्जी ने भी शानदार तरीके से इनका साथ निभाया है और वे जब-जब स्क्रीन पर आते हैं, हंसी आती है। पंकज त्रिपाठी का अभिनय इतना बेहतरीन है कि लगता है कि उन्हें और स्क्रीन टाइम मिलना था।
बेहतरीन अभिनय, हास्य से भरपूर दृश्य और चुटीले संवाद 'स्त्री' को देखने के पर्याप्त कारण हैं।