गोबर, कीचड़ और गटर के इर्दगिर्द रहने वाले साधनहीन और गरीबी की मार झेल रहे बच्चे सपना भी नहीं देख सकते हैं कि वे आईआईटी की प्रवेश परीक्षा में सफल होकर एक अच्छा जीवन जी सकेंगे।
ऐसे बच्चों को मुफ्त में शिक्षित करने और उनके रहने, खाने-पीने का खर्चा एक इंसान उठाता है। इस इंसान के प्रति सम्मान तब और बढ़ जाता है जब यह पता चलता है कि वह खुद गरीबी की मार झेल रहा है।
बिहार के रहने वाले आनंद कुमार ने यह अद्भुत काम किया और उनके द्वारा तैयार किए गए बच्चे आज ऊंचे पदों तक पहुंच गए हैं। आनंद कुमार सही मायनो में सुपरहीरो हैं और यह बात साबित करते हैं कि सुपरहीरो बनने के लिए बेहतरीन लुक्स नहीं, काम मायने रखता है।
गणितज्ञ आनंद कुमार के जीवन में घटी प्रमुख घटनाओं को पर आधारित फिल्म 'सुपर 30' निर्देशक विकास बहल ने बनाई जो एक व्यक्ति के संघर्ष और जीत को दर्शाती है।
फिल्म शुरू होती है वर्ष 2017 से, जब फुग्गा (विजय वर्मा) लंदन में आनंद कुमार कही कहानी बयां करता है। वहां से कहानी फ्लैशबैक में जाती है और 1997 के आसपास का समय दिखाया जाता है। गणित में होशियार आनंद कुमार को कैम्ब्रिज यूनिवर्सिट में एडमिशन मिल जाता है, लेकिन आर्थिक तंगी के चलते यह सपना अधूरा ही रह जाता है।
पिता की मृत्यु के बाद आनंद और उसके भाई पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है और वह पापड़ बेचने का काम करता है। इस दौरान एक कोचिंग इंस्टीट्यूट चलाने वाले लल्लन (आदित्य श्रीवास्तव) की नजर आनंद पर पड़ती है। आनंद को वह अपने कोचिंग इंस्टीट्यूट में पढ़ाने की जॉब देता है और आनंद के पास खूब पैसा आने लगता है।
एक दिन आनंद को महसूस होता है कि कोचिंग के नाम पर माफिया टाइप लोग सक्रिय हैं जिनके सिर पर राजनेताओं का भी हाथ है। प्रतिभावान और गरीब छात्र कोचिंग से वंचित हैं। वह इन बच्चों को मुफ्त में कोचिंग देने के लिए अपनी क्लास शुरू करता है जिससे एजुकेशन को बिज़नेस बनाने वालों में खलबली मच जाती है। इसके बाद आनंद का संघर्ष और कठिन हो जाता है क्योंकि न केवल उसे धमकी मिलती है बल्कि हमला भी होता है।
संजीव दत्ता ने फिल्म को लिखा है, लेकिन वे और निर्देशक विकास बहल पूरी तरह से आनंद कुमार की कहानी से न्याय नहीं कर पाए। एक शानदार कहानी उनके हाथ में थी, लेकिन वे डगमगा गए।
फिल्म की शुरुआत अच्छी है और हल्के-फुल्के दृश्यों से समां बंधता है। आनंद की प्रेम कहानी, उसके पिता की आर्थिक स्थिति, आनंद की बुद्धिमानी की झलक इसमें मिलती है। इसके बाद आनंद का संघर्ष देखने को मिलता है। बीच-बीच में कोचिंग क्लास के नाम पर लूटने वालों के साथ टकराव को भी दर्शाया जाता है, लेकिन इसके बाद फिल्म पर से लेखक और निर्देशक की पकड़ छूटने लगती है।
आनंद कुमार ने किस तरह से बच्चों को तैयारी कराई, क्या प्रोसेस उन्होंने अपनाई, क्या दृष्टिकोण उन्होंने अपनाया, ये बातें फिल्म में बहुत कम दिखाई गई। इसके बजाय माफियाओं से टकराव पर ज्यादा फुटेज खर्च किए गए। जहां-जहां आनंद और शिक्षा की बातें होती हैं वहां पर फिल्म का ग्राफ ऊपर की ओर जाता है, लेकिन जहां पर टकराव होता है वहां पर फिल्म का ग्राफ नीचे आ जाता है।
कहीं जगह तो फिल्म 80 के दशक की टिपिकल बॉलीवुड मूवी की तरह हो जाती है जिनमें नाटकीय तरीके से विलेन अपनी खलनायकी दिखाया करते थे। लल्लन और शिक्षा मंत्री के आनंद कुमार के साथ इसी तरह के दृश्य हैं। यहां पर फिल्म नकली लगने लगती है। खासतौर पर फिल्म के दूसरे हाफ में ऐसे सीन कुछ ज्यादा ही हैं।
अस्पताल में हमले वाला सीन तो बिलकुल फिल्मी है। तो दूसरी ओर होली पर आनंद कुमार के स्टूडेंट्स का इंग्लिश बोलने वाला प्रसंग भी बहुत लंबा है और इसे ठीक से प्रस्तुत नहीं किया गया है। ये बातें फिल्म के प्रभाव को कम करती हैं।
फिल्म में कुछ अच्छे दृश्य भी हैं जो सीधे दिल को छूते हैं। आनंद कुमार की कैम्ब्रिज जाने की झटपटाहट, पापड़ बेचने वाला घटनाक्रम, पिता को बरसात में साइकल पर अस्पताल ले जाने वाला दृश्य, अपने स्टूडेंट्स से परिचय लेने वाला सीन आपको इमोशनल कर देते हैं।
निर्देशक के रूप में विकास बहल को बेहतरीन कहानी पेश करने को मिली थी, लेकिन वे अपने प्रस्तुतिकरण में उस स्तर तक नहीं पहुंच पाए जो कि कहानी की डिमांड थी। शिक्षा के व्यावसयीकरण वाला मुद्दा कहीं ना कहीं आनंद कुमार की कहानी पर हावी हो गया।
फिल्म के कुछ गाने अच्छे हैं, लेकिन फिल्म में मिसफिट हैं और सिर्फ लंबाई बढ़ाते हैं।
रितिक रोशन को जब आनंद कुमार की भूमिका निभाने के लिए चुना गया था तो खुद आनंद कुमार को लगा था कि यह सही चुनाव नहीं है। हालांकि रितिक रोशन ने बेहतरीन अभिनय किया है, लेकिन कहीं ना कहीं यह बात फिल्म देखते समय खटकती रहती है कि हम रितिक को देख रहे हैं।
आनंद कुमार के संघर्ष, गरीबी, इंटेलीजेंसी को रितिक ने अपने अभिनय से अच्छे से व्यक्त किया है। उस सीन में रितिक का अभिनय देखने लायक है जब उन्हें पता चलता है कि उनके द्वारा पढ़ाए गए सभी बच्चें आईआईटी के लिए चुन लिए गए हैं। बिना कोई संवाद बोले रितिक ने केवल अपने एक्सप्रेशन्स से इस सीन को यादगार बना दिया है। उनकी स्किन कलर में बदलाव भी आंखों को खटकता है।
आदित्य श्रीवास्तव, पंकज त्रिपाठी और वीरेन्द्र सक्सेना ने अपने अभिनय से फिल्म को सजाया है। ये तीनों मंझे हुए कलाकार हैं और अपने किरदारों को इन्होंने बारीकी से पकड़ा है। मृणाल ठाकुर का रोल लंबा नहीं है, लेकिन जो भी सीन उन्हें मिले, उन्होंने अच्छे से किए। अमित सध का रोल कुछ ज्यादा ही फिल्मी हो गया।
कुल मिलाकर 'सुपर 30' एक मिली-जुली फिल्म है, जिसमें कुछ गैरजरूरी और उबाऊ घटनाक्रम हैं, तो दूसरी ओर रितिक रोशन का शानदार अभिनय और अच्छे इमोशनल सीन फिल्म को कुछ हद तक बचा लेते हैं।