देओल्स के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे समय के हिसाब से बदलने को तैयार ही नहीं हैं। वे अपनी परछाई से ही बाहर नहीं निकलना चाहते हैं जबकि पिछले कुछ वर्षों में हिंदी सिनेमा और उसके दर्शक बहुत बदल गए हैं। कमर्शियल फॉर्मेट में भी उनको लेकर सही फिल्में नहीं बन पा रही है।
सात वर्ष पहले धर्मेन्द्र, सनी देओल और बॉबी देओल को लेकर 'यमला पगला दीवाना' नामक हास्य फिल्म बनी थी जो पसंद की गई थी। बस, देओल्स को लगा कि उनके हाथ सफलता का फॉर्मूला लग गया है और उसे उन्होंने दोबारा और तिबारा आजमाया।
आश्चर्य की बात तो यह है कि इस सीरिज की दूसरी फिल्म असफल रही थी इसके बावजूद उन्होंने तीसरी कड़ी बनाई। यहां तक भी ठीक है, लेकिन गलतियों से उन्होंने कोई सबक नहीं सीखा और 'यमला पगला दीवाना फिर से' को देख घोर निराशा होती है। पैसा, समय, मेहनत सब व्यर्थ हो गया।
पूरन (सनी देओल) एक वैद्य है जो अपने निकम्मे भाई काला (बॉबी देओल) के साथ अमृतसर में रहता है। परमार (धर्मेन्द्र) एक वकील है और पूरन का किराएदार है। पूरन द्वारा बनाई गई 'वज्रकवच' एक ऐसी आयुर्वेदिक दवाई है जिससे सभी स्वस्थ रहते हैं। मारफतिया (मोहन कपूर) सूरत में एक दवाई कंपनी चलाता है और वह वज्रकवच का फॉर्मूला हासिल कर करोड़ों रुपये कमाना चाहता है।
वह पूरन को फॉर्मूला बेचने के करोड़ों रुपये ऑफर करता है, लेकिन पूरन नहीं मानता। चीकू (कृति खरबंदा) नामक लड़की को मारफतिया, पूरन के पास आयुर्वेद सीखने को भेजता है। इस दौरान चीकू उस फॉर्मूले को चुरा लेती है। मारफतिया वज्रकवच को रजिस्टर्ड करवा लेता है और पूरन को नोटिस भेजता है कि वह उसकी दवाई का गलत उपयोग कर रहा है। पूरन, काला और परमार गुजरात जाकर उसके खिलाफ मुकदमा लड़ते हैं।
धीरज रतन नामक शख्स ने यह बचकानी कहानी लिखी है जिसे बच्चे भी पसंद नहीं करे। खास बात तो धीरज के इस टैलेंट में है कि उनकी कहानी पर करोड़ों रुपये लगाने वाले तैयार हो गए। 'चूज़ी' कलाकार इस पर काम करने को तैयार हो गए और 'यमला पगला दीवाना फिर से' नामक फिल्म बनकर रिलीज भी हो गई। किसी ने भी इस घटिया कहानी पर सवाल नहीं उठाए?
कॉमेडी के नाम पर इस घटिया कहानी को बर्दाश्त किया जा सकता है यदि स्क्रीनप्ले ढंग का हो। हंसने लगाने की गुंजाइश हो। लेकिन स्क्रीनप्ले भी कमजोर है। काला का रोजाना रात को दस बजे दारू पीकर बहक जाना, परमार को अप्सरा नजर आना, परमार का पुराने हिट गाने सुनना, जैसे सीन पहली बार हंसाते हैं, लेकिन यही सीन फिल्म में बार-बार दोहराए जाते हैं तो खीज पैदा होती है। ऐसा महसूस होता है कि राइटर्स का खजाना बहुत जल्दी खाली हो गया और उसके पास अब देने को कुछ नहीं है।
पंजाब से फिल्म गुजरात शिफ्ट होती है तो दर्शकों का धैर्य जवाब देने लगता है। अदालत में जो हास्य पैदा करने की कोशिश की है उसे देख फिल्म से जुड़े लोगों की अक्ल पर तरस आता है। आखिर वे क्या दिखाना चाहते हैं? आखिर वे कैसे मान सकते हैं कि इस तरह के सीन/संवाद से दर्शक हंसेंगे?
नवनीत सिंह निर्देशक के रूप में बुरी तरह असफल रहे। उनके द्वारा फिल्माए गए दृश्य बेहद लंबे और उबाऊ हैं। एक घटिया से टीवी सीरियल जैसा उन्होंने फिल्म को बनाया है। दर्शकों को वे फिल्म से बिलकुल भी नहीं जोड़ पाए। सलमान खान जैसे सुपरस्टार तक का वे ठीक से उपयोग नहीं कर पाए।
सनी देओल इस फिल्म के सबसे बड़े सितारे हैं, लेकिन उन्हें फिल्म में कुछ करने का मौका ही नहीं मिला। लोग सनी को देखने के लिए आए थे और उनसे ज्यादा फुटेज बॉबी पर खर्च किया गया। फाइट सीन सनी की यूएसपी है और सनी की इस खासियत को भी उभारा नहीं गया है। धर्मेन्द्र को इस तरह के बचकाने रोल से बचना चाहिए। बॉबी देओल ने रोमांस किया, गाने गाए और कॉमेडी के नाम पर तरह-तरह के चेहरे बनाए। कृति खरबंदा ठीक-ठाक रहीं। सतीश कौशिक, शत्रुघ्न सिन्हा के रोल नहीं भी होते तो कोई फर्क नहीं पड़ता।
तकनीकी रूप से फिल्म कमजोर है। सिनेमाटोग्राफी में कोई खास बात नहीं है। गाने 'ब्रेक' का काम करते हैं। संपादन बेहद ढीला है। कम से कम आधा घंटा फिल्म को कम किया जा सकता था।
उम्मीद की जानी चाहिए कि 'यमला पगला दीवाना' सीरिज का यहीं 'द एंड' हो जाएगा और देओल्स कुछ नया सोचेंगे।
बैनर : पेन इंडिया लि., सनी साउंड्स प्रा.लि., इंटरकट एंटरटेनमेंट