एक्शन, आइटम नंबर, बड़े सेट और विदेश में शूटिंग जैसे चिर-परिचित फॉर्मूलों के बिना भी एक अच्छी तथा मनोरंजन फिल्म बनाई जा सकती है, ये बात डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने फिल्म 'ज़ेड प्लस' बना कर साबित की है। ज़ेड प्लस एक साधारण आदमी की कहानी है जो पुलिस, महंगाई और बीवी से डरता है तथा असाधारण परिस्थितियों में फंस जाता है। उस आम आदमी का नेता, अफसरशाही, पुलिस किस तरह इस्तेमाल करती है यह बात व्यंग्यात्मक तरीके से पेश की गई है।
राजस्थान के छोटे से शहर स्थित पीपल वाले पीर की दरगाह पर प्रधानमंत्री अपनी गठबंधन की सरकार बचाने के लिए 'चादर' चढ़ाने आते हैं। पीएम की इस यात्रा पर एक ग्रामीण कहता है कि लगता है तीर तो याद आते हैं पीर। पीएम जिस दिन दरगाह पर आते हैं उस दिन दरगाह का खादिम एक पंक्चर पकाने वाला शख्स असलम था। प्रधानमंत्री हिंदी नहीं जानते और असलम को शायद अंग्रेजी में एक-दो शब्द मालूम होंगे। गलतफहमी होती है और असलम को ज़ेड प्लस की सिक्यूरिटी मिल जाती है।
असलम के टूटे-फूटे घर के आगे दर्जन भर हट्टे-कट्टे जवान आधुनिक हथियार के साथ खड़े हो जाते हैं। असलम शौच के लिए जंगल जाता है तो जवान वहां भी उसका पीछा नहीं छोड़ते। कुछ दिन अच्छे लगने वाली यह सिक्यूरिटी असलम के लिए जी का जंजाल बन जाती है। वह अपनी माशूका से मिलने भी नहीं जा सकता है क्योंकि उसे अपनी पोल खुलने का डर है।
ज़ेड सिक्यूरिटी के कारण असलम मीडिया की निगाह में भी आ जाता है। मीडिया को बताया जाता है कि उसे पड़ोसी मुल्क से जान का खतरा है। पड़ोसी देश के आतंकवादी भी हरकत में आ जाते हैं कि यह ऐसा कौन-सा शख्स है जिसे भारत में सुरक्षा दी जा रही है। वे भी असलम की जान लेने के लिए उसके पीछे पड़ जाते हैं ताकि ज़ेड सिक्यूरिटी से घिरे आदमी की हत्या कर अपनी ताकत साबित कर सके। असलम की लोकप्रियता इतनी बढ़ जाती है कि राजनीतिक दल उसका फायदा उठाना चाहते हैं। तमाम दुष्चक्रों के बीच असलम का जीना मुश्किल हो जाता है।
फिल्म में राजनीतिक और प्रजातंत्र की विसंगतियों को बारीकी से पेश किया गया है। बातें गंभीर हैं, लेकिन हल्के-फुल्के तरीके से कही गई हैं। शुरुआती हिचकोले के बाद फिल्म धीरे-धीरे दर्शकों को अपनी गिरफ्त में लेती है और इसका असर देर तक रहता है।
फिल्म में दिखाया गया है कि नौकरशाही और नेता किस तरह से काम करते हैं। उनके लिए आम आदमी की अहमियत क्या है। किस तरह चुनाव जीतने के लिए लोकप्रिय चेहरे तलाश किए जाते हैं क्योंकि जनता भी इसी के आधार पर वोट देती है। नेता बनने के लिए मेकओवर किया जाता है। घर में गांधी और आंबेडकर की तस्वीरें लगाई जाती हैं।
जब असलम को चुनाव लड़ने का ऑफर दिया जाता है तो वह हिचकता है क्योंकि वह एक पंक्चर पकाने वाला आम आदमी है। उसे मुख्यमंत्री का पिठ्ठू समझाता है कि राजनीति करना और पंक्चर बनाना एक जैसे ही हैं। नेता जानता है कि कब बड़ी योजनाओं को पंक्चर करना है और कब इन पंक्चरों को ठीक करना है।
असलम को भी बात समझ में आती है। जब उसे पता चलता है कि उससे भी गंवार लोग संसद सदस्य हैं तो वह भी चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो जाता है। फिल्म में कई गहरी बातें संवादों और दृश्यों के जरिये पेश की गई हैं जो दर्शक अपनी समझ के मुताबिक ग्रहण करते हैं।
फिल्म में कई हल्के-फुल्के दृश्य भी हैं जो दर्शकों को गुदगुदाते हैं। प्रधानमंत्री का दरगाह पर चादर चढ़ाने वाला सीन कमाल का बना है। जेड सिक्यूरिटी के कारण उत्पन्न हुई परेशानियां और फायदों को भी हास्य के रंग में पेश किया गया है।
फिल्म से एक ही शिकायत रहती है कि यह बहुत लंबी हो गई है, इसलिए बात का असर कम हो जाता है। आतंकवादियों वाला हिस्सा खींचा गया है। फिल्म कम से कम 20 मिनट छोटी की जा सकती थी।
निर्देशक के रूप में चंद्रप्रकाश द्विेवेदी ने सीधे-सीधे तरीके से फिल्म को पेश किया है और वे विषय के साथ पूरी तरह न्याय नहीं कर पाए। तकनीक पर उनकी पकड़ मजबूत नहीं है, लेकिन मजबूत कंटेंट ने उनके निर्देशन की कमियों को कुछ हद तक छिपा लिया है। एक छोटे शहर की बारीकियों को उन्होंने अच्छी तरह पकड़ा और पेश किया है। अपने किरदारों को भी वे दर्शकों से जोड़ने में असफल रहे हैं।
असलम का रोल आदिल हुसैन ने निभाया है। फिल्म में उनका अभिनय बेहतरीन है लेकिन वे अपने किरदार में पूरी तरह घुस नहीं पाए। अनपढ़ या जाहिल लगने की बजाय वे पढ़े-लिखे शहरी व्यक्ति लगते हैं। कुलभूषण खरबंदा लंबे समय बाद दिखाई दिए और प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने कमाल का अभिनय किया है। मोना सिंह, मुकेश तिवारी, केके रैना, रवि झांकल, संजय मिश्रा बेहतरीन अदाकार हैं और इस फिल्म में उनका अभिनय इस बात को पुख्ता करता है।
ज़ेड प्लस उन लोगों को अवश्य देखनी चाहिए जिन्हें नए विषय और किरदार वाली फिल्मों की तलाश रहती है।