कश्मीर में पाकिस्तान के ऑपरेशन टोपेक का अंतिम चरण, क्या है यह ऑपरेशन?

अनिरुद्ध जोशी
26 अक्टूबर को 1947 को जम्मू और कश्मीर के तत्कालीन शासक महाराजा हरिसिंह ने अपनी रियासत के भारत में विलय के लिए विलय-पत्र पर दस्तखत किए थे। गवर्नर जनरल माउंटबेटन ने 27 अक्टूबर को इसे मंजूरी दी।

विलय-पत्र का खाका हूबहू वही था जिसका भारत में शामिल हुए अन्य सैकड़ों रजवाड़ों ने अपनी-अपनी रियासत को भारत में शामिल करने के लिए उपयोग किया था। न इसमें कोई शर्त शुमार थी और न ही रियासत के लिए विशेष दर्जे जैसी कोई मांग। संवैधानिक दस्तावेज पर दस्तखत होते ही समूचा जम्मू और कश्मीर, जिसमें पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाला इलाका भी शामिल है, भारत का अभिन्न अंग बन गया। अब हम बात करते हैं कि किस तरह आधे जम्मू और कश्मीर पर कब्जा किया गया।
 
 
1947 के पाकिस्तानी आक्रमण के समय डोगरा सेना, कश्मीरियों और भारतीय सेना के सफल प्रतिरोध- बलिदान और जम्मू और कश्मीर के भारत में विलय के बाद तात्कालीन सरकार और कश्मीरी नेताओं की गलत नीतियों के कारण जम्मू और कश्‍मीर में सेना की जीत पर प्रश्न चिन्ह लग गया। 1947 के बाद 1965 और 1971 की जीत के बाद भी राजनीतिज्ञों की गलत नीतियों के कारण भारत हार गया। सचमुच हमारी सेना के बालिदान और उसकी जीत को हमेशा राजीतिज्ञों ने समझौतों की टेबल पर खून कर दिया?

 
भारत के इस उत्तरी राज्य के 3 क्षेत्र हैं- जम्मू, कश्मीर और लद्दाख। दुर्भाग्य से भारतीय राजनेताओं ने इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति समझे बगैर इसे एक राज्य घोषित कर दिया, क्योंकि ये तीनों ही क्षे‍त्र एक ही राजा के अधीन थे। सवाल यह उठता है कि आजादी के बाद से ही जम्मू और लद्दाख भारत के साथ खुश हैं, लेकिन कश्मीर खुश क्यों नहीं? 
 
1971 में भारतीय सेना के हाथों हुई पाकिस्तान की करारी हार के उपरांत पाकिस्तान के तत्कालीन पाक प्रधानमंत्री जुल्फीकार अली भुट्टो ने कहा था कि पाकिस्तान कश्मीर को पाने के लिए भारत से 1,000 साल तक लड़ सकता है। लेकिन पाकिस्तानी सेना भड़की हुई थी। उसने भुट्टो का तख्तापलट कर उन्हें 1979 में फांसी दे दी और खुद ताकत में आ गई और तत्कालीन सेना अध्यक्ष जनरल जिया-उल-हक ने भारत में छायायुद्ध छेड़ने के इरादों से 'ऑपरेशन टोपाक' को जन्म दिया था।
 
भारत के खिलाफ इस छद्म युद्ध का कार्यान्वय 1988 में में शुरू हुआ। क्योंकि यह एक छद्म युद्ध था इसलिए कश्मीर के कई नेता और केंद्र की भारत सरकार के नेता इस योजना को जाने-अनजाने सहयोग करते रहे या इसके प्रति इसलिए अनजान बनत रहे क्योंकि उन्हें राजनीति करना थी।
 
क्या है ऑपरेशन टोपेक?
*दीर्घकालिक रणनीति को दिमाग में रखते हुए इस योजना के अंतर्गत पहले चरण में पाकिस्तानी सेना और आईएसआई ने मिलकर कश्मीरी युवकों को सर्वप्रथम बरगलाकर जेहाद के लिए तैयार करना, घुसपैठ के माध्यम से आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देना और सुन्नी मदरसे और मस्जिदों की तादाद बढ़ाना था।
 
*दूसरे चरण में कश्मीर के गैर-मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा को अंजाम देना था। इस षड्‍यंत्र के अंतर्गत राज्य में सांप्रदायिक तनाव तथा दंगों को बढ़ावा देना ताकि भारत समर्थक तत्वों को अपने घरों से पलायन कर देश के अन्य भागों में शरण लेनी पड़े।
 
*तीसरे चरण में गैर-सुन्नी मुसलमानों को भी पलायन के लिए मजबूर करना और बगावत के लिए जनता को तैयार करना। इसके लिए उन्होंने 1988 से पंडितों और सिखों का नरसंहार करना प्रारंभ किया।
 
*चौथे चरण में राज्य में बड़े पैमाने पर लोगों को पुलिस बल के खिलाफ भड़का कर हिंसा फैलाना, सरेआम भारत विरोधी नारे लगाकर भारत की खिलाफत करना आदि।
 
*पांचवें चरण में राज्य पुलिस के सिपाहियों की हत्या करना और उन्हें पुलिस की नौकरी छोड़ने पर मजबूर करना। पत्थरबाजी उसी का एक हिस्सा है।
 
*इसके बाद अंतिम तथा निर्णायक चरण के तहत आंतरिक गड़बड़ पैदा करने के उपरांत सीमाओं पर बड़े पैमाने पर हमले करने की योजना को अंजाम देना ताकि एक ओर से भारतीय सेनाओं पर पाक सेना हमले करे तो दूसरी ओर से घुसपैठ में सफल होने वाले आतंकवादी और स्थानीय अलगावावादी।

 
वर्तमान में कश्मीर में छेड़े गए तथाकथित जेहाद की सफलता के लिए पाकिस्तानी सेना 'ऑपरेशन टोपाक' के अंतिम, निर्णायक तथा चौथे चरण को लागू करने की तैयारी में पूरी तरह से जुट गई है। विश्वस्त सूत्रों तथा अधिकारियों द्वारा एकत्र किए जाने वाले दस्तावेजों के अनुसार, पाकिस्तान निकट भविष्य में अपनी नियमित सेना के जवानों को जम्मू-कश्मीर में बड़ी संख्या में धकेल सकता है, क्योंकि कश्मीर में छेड़े गए जेहाद के लिए उतनी संख्या में न ही स्थानीय आतंकवादी तथा न ही विदेशी आतंकवादी उपलब्ध हो रहे हैं।
 
अब दुश्मन का इरादा सिर्फ कश्मीर को ही अशांत रखना नहीं रहा, वे जम्मू और लद्दाख में भी सक्रिय होने लगे। घाटी में मस्जिदों की तादाद बढ़ाना, गैर मुस्लिमों और शियाओं को भगाना और बगावत के लिए जनता को तैयार करना 'ऑपरेशन टोपाक' के ही चरण हैं। इसी के तहत कश्मीर में सरेआम पाकिस्तानी झंडे लहराए जाते हैं और भारत की खिलाफत की जाती है। पत्थरबाजी और आतंकियों की घुसपैठ भी इसी का हिस्सा है।
 
हालांकि विशेषज्ञ कहते हैं कि पाकिस्तान की चाल में फिलहाल 2 फीसदी कश्मीरी ही आए हैं बाकी सभी भारत से प्रेम करते हैं। यह बात महबूबा मुफ्ती अपने एक इंटरव्यू में कह चुकी हैं। लंदन के रिसर्चरों द्वारा पिछले साल राज्य के 6 जिलों में कराए गए सर्वे के अनुसार एक व्यक्ति ने भी पाकिस्तान के साथ खड़ा होने की वकालत नहीं की, जबकि कश्मीर में कट्टरपंथी अलगाववादी समय समय पर इसकी वकालत करते रहते हैं जब तक की उनको वहां से आर्थिक मदद मिलती रहती है। वहीं से हुक्म आता है बंद और पत्थरबाजी का और उस हुक्म की तामिल की जाती है।
 
आतंकवाद, अलगाववाद, फसाद और दंगे- ये 4 शब्द हैं जिनके माध्यम से पाकिस्तान ने दुनिया के कई मुल्कों को परेशान कर रखा है। खासकर भारत उसके लिए सबसे अहम टारगेट है। क्यों? इस 'क्यों' के कई जावाब हैं। भारत के पास कोई स्पष्ट नीति नहीं है। भारतीय राजनेता निर्णय लेने से भी डरते हैं या उनमें शुतुरमुर्ग प्रवृत्ति विकसित हो गई है। अब वे आर या पार की लड़ाई के बारे में भी नहीं सोच सकते क्योंकि जब वे ऐसा सोचते हैं तो उनके मन में चीन और अमेरिका के बुरे खयाल आते हैं।  
 
 
क्यों शुरू हुआ टोपेक?
ऑपरेशन टोपेक की शुरुआत : 1971 में पाकिस्तान ने कश्मीर को कब्जाने का प्रयास किया इसी दौरान पूर्वी पाकिस्तान में विद्रोह भड़कर गया जिसका परिणाम हुआ युद्ध। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसका डटकर मुकाबला किया और अंतत: पाकिस्तान की सेना के 1 लाख सैनिकों ने भारत की सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया और 'बांग्लादेश' नामक एक स्वतंत्र देश का जन्म हुआ। इंदिरा गांधी ने यहां एक बड़ी भूल की थी। यदि वे चाहतीं तो यहां कश्मीर की समस्या हमेशा-हमेशा के लिए सुलझ जाती, लेकिन वे जुल्फिकार अली भुट्टो के बहकावे में आ गईं और 1 लाख सैनिकों को छोड़ दिया गया।
 
इस युद्ध के बाद पाकिस्तान को समझ में आ गई कि कश्मीर हथियाने के लिए आमने-सामने की लड़ाई में भारत को हरा पाना मुश्किल ही होगा। 1971 में शर्मनाक हार के बाद काबुल स्थित पाकिस्तान मिलिट्री अकादमी में सैनिकों को इस हार का बदला लेने की शपथ दिलाई गई और अगले युद्ध की तैयारी को अंजाम दिया जाने लगा लेकिन अफगानिस्तान में हालात बिगड़ने लगे। 1971 से 1988 तक पाकिस्तान की सेना और कट्टरपंथी अफगानिस्तान में उलझे रहे। यहां पाकिस्तान की सेना ने खुद को गुरिल्ला युद्ध में मजबूत बनाया और युद्ध के विकल्पों के रूप में नए-नए तरीके सीखे। यही तरीके अब भारत पर आजमाए जाने लगे।
 
 
पहले उसने भारतीय पंजाब में आतंकवाद शुरू करने के लिए पाकिस्तानी पंजाब में सिखों को 'खालिस्तान' का सपना दिखाया और हथियारबद्ध सिखों का एक संगठन खड़ा करने में मदद की। पाकिस्तान के इस खेल में भारत सरकार उलझती गई। स्वर्ण मंदिर में हुए दुर्भाग्यपूर्ण ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार और उसके बदले की कार्रवाई के रूप में 31 अक्टूबर 1984 को श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भारत की राजनीति बदल गई। एक शक्तिशाली नेता की जगह एक अनुभवहीन नेता राजीव गांधी ने जब देश की बागडोर संभाली तो उनके आलोचक कहने लगे थे कि उनके पास कोई योजना नहीं और कोई नीति भी नहीं है। 1984 के दंगों के दौरान उन्होंने जो कहा, उसे कई लोगों ने खारिज कर दिया। उन्होंने कश्मीर की तरफ से पूरी तरह से ध्यान हटाकर पंजाब और श्रीलंका में लगा दिया। इंदिरा गांधी के बाद भारत की राह बदल गई।
 
 
पंजाब में आतंकवाद के इस नए खेल के चलते पाकिस्तान की नजर एक बार फिर मुस्लिम बहुल भारतीय कश्मीर की ओर टिक गई। उसने पाक अधिकृत कश्मीर में लोगों को आतंक के लिए तैयार करना शुरू किया। अफगानिस्तान का अनुभव यहां काम आने लगा था। तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल जिया-उल-हक ने 1988 में भारत के विरुद्ध 'ऑपरेशन टोपाक' नाम से 'वॉर विद लो इंटेंसिटी' की योजना बनाई। इस योजना के तहत भारतीय कश्मीर के लोगों के मन में अलगाववाद और भारत के प्रति नफरत के बीज बोने थे और फिर उन्हीं के हाथों में हथियार थमाने थे।
 
 
कई बार मुंह की खाने के बाद पाकिस्तान ने अपने से ज्यादा शक्तिशाली शत्रु के विरुद्ध 90 के दशक में एक नए तरह के युद्ध के बारे में सोचना शुरू किया और अंतत: उसने उसे 'वॉर ऑफ लो इंटेंसिटी' का नाम दिया। दरअसल, यह गुरिल्ला युद्ध का ही विकसित रूप है। 
 
भारतीय राजनेताओं को सब कुछ मालूम था लेकिन फिर भी वे चुप थे, क्योंकि उन्हें भारत से ज्यादा वोट की चिंता थी, गठजोड़ की चिंता थी, सत्ता में बने रहने की चिंता था। भारतीय राजनेताओं के इस ढुलमुल रवैये के चलते कश्मीर में 'ऑपरेशन टोपाक' बगैर किसी परेशानी के चलता रहा और भारतीय राजनेता शुतुरमुर्ग बनकर सत्ता का सुख लेते रहे। कश्मीर और पूर्वोत्तर को छोड़कर भारतीय राजनेता सब जगह ध्यान देते रहे। 'ऑपरेशन टोपाक' पहले से दूसरे और दूसरे से तीसरे चरण में पहुंच गया। अब उनका इरादा सिर्फ कश्मीर को ही अशांत रखना नहीं रहा, वे जम्मू और लद्दाख में भी सक्रिय होने लगे।
 
पाकिस्तानी सेना और आईएसआई ने मिलकर कश्मीर में दंगे कराए और उसके बाद आतंकवाद का सिलसिला चल पड़ा। पहले चरण में मस्जिदों की तादाद बढ़ाना, दूसरे में कश्मीर से गैरमुस्लिमों और शियाओं को भगाना और तीसरे चरण में बगावत के लिए जनता को तैयार करना। अब इसका चौथा और अंतिम चरण चल रहा है। अब सरेआम पाकिस्तानी झंडे लहराए जाते हैं और सरेआम भारत की खिलाफत की जाती है, क्योंकि कश्मीर घाटी में अब गैरमुस्लिम नहीं बचे और न ही शियाओं का कोई वजूद है।
 
कश्मीर में आतंकवाद के चलते करीब 7 लाख से अधिक कश्मीरी पंडित विस्थापित हो गए और वे जम्मू सहित देश के अन्य हिस्सों में जाकर रहने लगे। इस दौरान हजारों कश्मीरी पंडितों को मौत के घाट उतार दिया गया। इस छद्म युद्ध के चलते हर साल 80 से ज्यादा सैनिक शहीद होते हैं। और क्या यह युद्ध इसी तरह तब तक चलता रहेगा जब तक की जम्मू और लद्दाख भी पूर्णत: बर्बाद न हो जाए?
 

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