क्या मांस के सेवन से बढ़ रहा है कोरोना का संक्रमण

बुधवार, 12 जनवरी 2022 (21:14 IST)
डॉ. राम श्रीवास्तव

ताजा रिसर्च ने यह सिद्ध कर दिया है कि 'कोरोना डेल्टा वायरस' के नए संस्करण 'ओमिक्रॉन' के वायरस की सतह पर जो खतरनाक कांटे मौजूद हैं उन कांटों में 35 से लेकर 40 सबसे पैने कांटे  'फ्यूरिन' कहे जाने वाले 'ग्लायको-प्रोटीन' के बने हैं। यह भी एक आश्चर्यजनक सत्य है कि 'फ्यूरिन' नामक ‘एन्झाइम’ सर्वाधिक 'गौ-मांस' में पाया जाता है। 'सूअर' के मांस की आंतों में भी ‘फ्यूरिन एन्झाइम’ होता है। 
 
एक सिद्धांत के अनुसार जब व्यक्ति किसी भी मांसाहारी जानवर के मांस का भक्षण करता है, तब वह कच्चे, अधपके या भुने हुए मांस की जीव कोशिकाओं का भक्षण करता है।  जानवरों की इन कोशिकाओं के भीतर उनके क्रोमोझोन और 'जीन्स' होते हैं। इनमें उस मांसाहारी जानवर की 'आनुवांशिक' जानकारी भरी रहती है, जो उस जानवरों की आयु, रहन-सहन, स्वसन प्रजजन,और स्वभाव तथा आदतों की सब याददास्त भरी रहती है। इसी जेनेटिक कोडिंग के आधार पर जानवर काम करता है।
 
 मांसाहारी जानवरों का एक गुण होता है जो उनके स्वभाव और जीवनयापन को दर्शाता है : 'बड़ा और ताकतवर जानवर सदैव छोटे और कमजोर जानवर को मारकर खाता है जबकि पेड़-पौधों, वनस्पति में यह गुण नहीं होता। इस कारण मांस भक्षण करने पर आदमी की आंतों में जब मांस से बनी कोशिकाएं जाती हैं तो जानवरों के जीन्स में निहित उनकी 'जेनेटिक इन्फर्मेशन' इन्टेसटाइन में मौजूद 'गट बैक्टीरिया' को हस्तांतरित होने लगती है। इस बात के भी पुख्ता प्रमाण मौजूद हैं कि मनुष्य के उदर में मौजूद 'गट बैक्टीरिया' उस आदमी के मस्तिष्क में निर्मित 'न्यूरल-कन्डकशन' को नियन्त्रित करता है। यही एक कारण है कि मांसाहारी व्यक्ति के आचरण में धीरे धीरे जानवरों के पाशविक गुणों का विकास होने लगता है। इस काम में 'फ्यूरिन नामक एन्झाईम' उत्प्रेरक के रूप में महती भूमिका निभाता है। 
 
कोरोनावायरस और उसके पचास से ज्यादा ज्ञात बहरूपिया चरित्र से उपजे 'आोमिक्रोन' वायरस मूलत: 'पशु प्रजाति' का वायरस है। अगर कोई चोर डाकू या आतंकवादी कहीं आता है तो वह अपना 'ठिआ' उस स्थान पर चुनने की प्राथमिकता को देता है ,जहां उसके स्वभाव के अनुकूल वातावरण मिले। यद्यपि अभी तक किसी अधिकृत संस्थान ने इस तथ्य का वैज्ञानिक परीक्षण नहीं किया है कि कोरोना के संक्रमण फैलने में क्या 'शाकाहारी और मांसाहारी' मरीजों पर प्रकोप में कोई फर्क है?

फिर भी अगर कोरोना मरीजों और उससे हुई जनहानि की दुनिया के सब देशों के आंकड़ो का विश्लेषण करें तो साफ जाहिर हो रहा है जिन देशों में 'गौमांस-भक्षण' आम बात है, वहां पर कोरोना के मरीज ज्यादा हैं और उनकी मृत्यु दर भी ज्यादा है। 
 
हमारे देश भारत में आज भी 47.67 % लोग 'शाकाहारी' हैं, 32% मांसाहारी हैं, वह भी कभी-कभी क्योंकि मांस भक्षण इतना मंहगा है कि वह आम आदमी की जेब की पहुंच से बाहर है। शेष आबादी समुद्रीय तट के आसपास समुद्रीय जीवों के आहार पर आश्रित हैं; जो कि उनकी अपनी भौगोलिक मजबूरी है। 
 
आज इग्लैंड अमेरिका और दूसरे विकसित और सक्षम देश कोरोना के कहर से थर्र-थर्र कांप रहे हैं जबकि उनके यहां दो-दो डोज कोरोना वैक्सीन के अलाबा बूस्टर डोज भी लग रहे हैं और हमारी तुलना में उनके पास उम्दा बेहतर चिकित्सा सुविधाएं मौजूद हैं। फिर भी कोरोना से मरने वालों और स्थाई विकृतियां पाने वाले मरीजों की संख्या हमारे देश से उनके यहां सबसे ज्यादा है। दुनिया के सब देशों की तुलना में हमारे देश की कोरोना के कारण मरने वालों की मृत्यु दर बहुत कम है। मेरे विचार में कोरोना के कहर से राहत की सांस इस कारण हमें मिल रही है कि हमारे देश में गौमांस खाने वाले न के बराबर है। 
 
यही एक कारण है कि 'ओमिक्रॉन' आ गया है तो आने दीजिए जैसे आया है वैसे ही चला जाएगा। हमको इससे डरने-घबराने होने की जरूरत नहीं है। बस थोडी-सी सावधानी वापरिए। सब ठीक होगा।

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