अर्थशास्त्रियों की नजर से नोटबंदी

बुधवार, 7 दिसंबर 2016 (17:21 IST)
नई दिल्ली। हमारे देश में आमतौर पर राजनेता, अधिकारी सर्वज्ञ होने का दावा करते हैं और वे इस तरह से फैसले लेते हैं मानो उन्हें किसी और की जानकारी, सलाह की जरूरत नहीं है। इतनी बात जरूर है कि इन फैसलों के मूल में सत्ता पर पकड़ बनाए रखने की मंशा सबसे ज्यादा होती है जो कि किसी की भी समझ में आ जाती है। हाल ही में किया गया नोटबंदी का फैसला भी है जिसे चार-पांच लोगों ने विचार-विमर्श कर ले लिया। सवा सौ करोड़ के देश में मात्र चार पांच लोगों को ही नोटबंदी की जानकारी थी।
सरकार ने रातोंरात फैसला लिया, लेकिन इस योजना का अच्छी तरह से क्रियान्वयन आज तक नहीं हो सका है। देश के ग्रामीण, दूरदराज के इलाकों की बात तो छोड़ दें, महानगरों और मुंबई, दिल्ली जैसे शहरों में लोग एटीएम बैंक के सामने खड़े हैं लेकिन सैकड़ों में एकाध एटीएम ऐसा है जहां से नोट निकल रहे हैं। इस नोटबंदी के दौर में पुलिस ने देशभर में ऐसे लोगों को पकड़ा है जिनके पास लाखों, करोड़ों के मूल्य के नए नोट पाए गए हैं। कहने का अर्थ है जिन बैंक अधिकारियों पर जनता को नए-नए नोट दिलाने का दारोमदार था वे ही बड़े पैमाने पर धांधली कर रहे हैं जबकि देश के कर्णधारों ने ऐसा कोई निर्णय लेते समय इस परिदृश्य की कल्पना भी नहीं की होगी, लेकिन ऐसा खुलेआम हो रहा है और इन लोगों पर कोई कार्रवाई भी नहीं की जा रही है। 
 
अब सभी को यह बताने की जरूरत नहीं है कि न तो नरेंद्र मोदी कोई ख्यात अर्थशास्त्री हैं और न अरुण जेटली कोई आर्थिक मामलों के जानकार। लेकिन पिछले कई सप्ताहों से समूची सरकार और भाजपा व इसके समर्थक दल देश में नकदविहीन समाज का सपना देख रहे हैं। ऐसी नकदी की जो न तो बैंकों के पास है और एटीएम से निकल पा रही है। सरकार के पास जो कथित कालेधन का भंडार लग गया है, उसकी तुलना में सरकार नोटों को बाजार में ला ही नहीं पा रही है। इस तरह की कवायद के साथ ही एक चिंतनहीन, विचारहीन समाज बनाने पर भी बल दिया जा रहा है। इसे देशभक्ति से इस तरह से जोड़कर देखा जा रहा है मानो जो नोटबंदी और सरकारी कोशिशों के समर्थक हैं, वह ही देशभक्त हैं और इसके विरोध में विचार रखने वाले कट्‍टर देशद्रोही।  
 
नोटबंदी के पक्ष में जिस प्रकार एक सरकारी सामूहिक राग गाया जा रहा है, केवल उसे सुनना जरूरी है या रघुराम राजन, अमर्त्य सेन, मनमोहनसिंह, अरुण कुमार, प्रभात पटनायक, ज्यां द्रेज, मीरा सान्याल आदि के विचारों से भी अवगत होना जरूरी है जो कि अर्थव्यवस्थाओं के जानकार हैं।
 
भारतीय राजनीति और अर्थव्यवस्था आज जिस दौर में है, उसे समझे बिना सवालों के उत्तर नहीं दिए जा सकते। पहले बाजार में जो नकदी, लोगों का घर खर्च चलाने के लिए पैसा था, उसे ही कालाधन मान लिया गया और बाजार से समेट लिया गया। अब तो लोगों के पास किसी तरह का कोई धन ही नहीं है।   
 
हफ्तों से बैंकों, एटीएम में पैसे नहीं हैं और कुछेक लोगों के पास नए नकदी नोटों का भंडार है तो किसी को अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए भी पैसा नहीं है। आखिर आदमी क्या करे, कहां जाए?
भारतीय अर्थव्यवस्था पूंजीवादी है और प्रभात पटनायक का कहना है कि विमुद्रीकरण का निर्णय पूंजीवाद की नासमझी बताता है। कालाधन भी देश की अर्थव्यवस्था के चलन में रहता है, यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे आप जब चाहें, जितने चाहे नोटों के प्रवाह से बाहर हैं। कालाधन एक व्यापार का हिस्सा है, जिसका टैक्स चोरी से संबंध है और जिसे आप अर्थव्यवस्था से पूरी तरह से कभी बाहर नहीं निकाल सकते हैं।
 
देश के सरकारी अर्थशास्त्रियों को समझना होगा कि पुरानी करेंसी के नोटों को नए नोटों में बदलने से, नोटबंदी से एक नए प्रकार के मुद्रा दलाल वर्ग का जन्म हुआ है और दलाल एक असंसदीय शब्द है। कालाधन मात्र धन का संग्रह नहीं है, कालाधन केवल नकदी में नहीं होता। पूंजीपति-उद्योगपति मुद्रा संग्रह नहीं करते वरन इस नकदी को परिचालन में लाते हैं। लेकिन इसे अर्थव्यवस्था से एकाएक बाहर निकालने के प्रयास में सारे देश की, विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से चौपट कर दिया गया है।
 
भारत में अधिकांश व्यापार नकद में होता है और नकदरहित भुगतान करनेवालों की संख्या मात्र 10 से 15 प्रतिशत है। कैश भ्रष्टाचार का बड़ा स्रोत नहीं है और इस कारण से मार्क्स ने कंजूस और पूंजीपति में अंतर किया था। कंजूस धन का संग्रह करता है, जबकि पूंजीपति उसका परिचालन करता है। अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक ने बैंक की लंबी कतारों पर ठीक कहा है कि किसी मोहल्ले में हुए अपराध के कारण वहां के सभी निवासियों को पुलिस स्टेशन नहीं बुलाया जा सकता, लेकिन हमारी सरकार तो यही मान बैठी है।
 
सरकारी ज्ञाता और विशेषज्ञ यह नहीं समझ पा रहे हैं कि ब्लैक मनी और स्टॉक मनी में अंतर है? कालाधन, स्टॉक मनी नहीं है। जिस हड़बड़ी से मुद्राविहीन समाज, राज बनाने का प्रचार किया जा रहा है, वह सही नहीं है। उसे एक क्रमिक सामान्य प्रक्रिया के तहत संपन्न किया जाना चाहिए, न कि किसी दबाव या आदेश के तहत और यह बात हम चीन व अन्य देशों से सीख सकते हैं।
 
काले व्यापार के संचालक तो आज भी पकड़ से कोसों दूर हैं। भारत की सरकार बड़ी मछलियों को नहीं पकड़ेगी, वह उसका साथ देगी। ज्यां द्रेज इस दावे को कि विमुद्रीकरण से भ्रष्टाचार और कालेधन को समाप्त किया जा सकता है, एक नासमझी है, एक अतिरंजित धारणा है। सरकार जनता में कालेधन को लेकर भ्रम उत्पन्न कर रही है। 
 
अर्थशास्त्र में कालाधन अवैध कार्यों से पैदा होने वाले धन को कहा जाता है। कालेधन के खिलाफ इस पहल को ज्यां द्रेज जैसे अर्थशास्त्री अर्थव्यवस्था को ही संकट में डालने के रूप में देखते हैं क्योंकि चुनाव में कालेधन का उपयोग होता है। लेकिन यह धन भी पांच-छ: हिस्सों, रियल एस्टेट, सोना, समेत अन्य कामों में लगाया जाता है, जिन पर सरकार सख्ती कर बाहर निकाल सकती है। लेकिन  यह निर्णय, भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रहार है जिसने समाज के अतिसंवेदनशील हिस्सों (किसान, वरिष्ठ नागरिक, दैनिक मजदूर) के समक्ष एक खतरनाक स्थिति पैदा कर दी है।
 
अमर्त्य सेन इस तरह की नोटबंदी को बुद्धिमतापूर्ण फैसला नहीं मानते और वे इस निर्णय को निरंकुश और सत्तावादी फैसला कहा है जो कि आर्थिक आपातकाल और आफतकाल भी कहा गया है। जनता परेशान है, उसके मानस को अनुकूलित किया जा रहा है। नोटबंदी से जनता का करेंसी से विश्वास उठ रहा है। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने मार्च 2016 में कहा था कि 500 और 1000 के नोट पर प्रतिबंध व्यवहार्यत: उचित नहीं है। 
 
चलन से हटाए गए 85 प्रतिशत नोट 500 और 1000 के ही थे। सरकार का निर्णय लोगों के विश्वास के विरुद्ध है जबकि विश्वास पूंजीवाद की कुंजी है। इसी कारण से मनमोहन सिंह ने इसे संगठित लूट और वैध डकैती कहा है। पॉल क्रूगमैन (नोबेल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री) सरकार के इस निर्णय से लंबे समय में कोई लाभ नहीं देखते और उन्होंने विमुद्रीकरण को अत्यंत विघटनकारी प्रक्रिया के रूप में देखा है। 
 
वर्ष 2014 में ही रघुराम राजन ने अपने एक सार्वजनिक भाषण में विमुद्रीकरण की सार्थकता पर सवाल खड़े किए थे। प्रसिद्ध अमेरिकी अर्थशास्त्री लैरी समर्स ने नरेंद्र मोदी के निर्णय को नाटकीय कहा है। विमुद्रीकरण को लेकर सन् 1946 और 1978 में जो निर्णय लिए गए थे, वे आज की तरह लोगों में खलबली मचानेवाले नहीं थे। मोरारजी देसाई के समय में आरबीआई के गवर्नर आईजी पटेल ने अपनी पुस्तक में हजार, पांच और 10 हजार के नोटों को समाप्त करने की घोषणा के संबंध में जो लिखा है, वह शायद आज की स्थिति को समझने में कुछ मदद करे। 
 
प्रधानमंत्री की सदिच्छा अलग बात है, पर हमें विस्तार से उन अर्थशास्त्रियों की बातें भी सुननी चाहिए जो कि इन मामलों की बारीकियों को समझते हैं लेकिन हमारे प्रधानमंत्री मोदी तो केवल अपने मन की बात कहते हैं, और करते हैं और हम सब उनकी बात सुनने के लिए विवश हैं।

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