देश-दुनिया की हलचलों का दिलचस्प विवरण

मौत बेबात का फसाना है। जिंदगी ही असल कहानी है। मौत को धता बताती। पछाड़ती। लड़कर जीतती। यही सुप्रतिम है। अप्रतिम है। विचित्र किंतु सत्य। मानो या न मानो। डॉक्टरों से घिरी। चेहरे पर मुस्कान। सौम्य लेकिन मौत को मुँह चिढ़ाती। जिंदगी इसी तरह हँसती है। स्मित और मोहक। यह गुड़गाँव के हादसे से बचना नहीं है। जूझकर निकलना है। आर-पार लोहे का सरिया। सीने पर खून का दरिया। फिर भी हौसला। गजब है। मीर साहब देखिए। हादसा बस कि एक मोहलत है। यानी आगे चलेंगे दम लेकर।

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यह एक बानगी है उस ब्लॉग की जिस पर आप इसी तरह की सटीक टिप्पणी पढ़ सकते हैं। यह ब्लॉग है भारतनामा। इसके ब्लॉगर हैं मधुकर उपाध्याय। इस एक बानगी से यह साफ जाहिर है कि इसमें एक तरफ भाषा की मारकता है, एक भंगिमा है और इसके साथ ही खबरों के साथ वह संबंध जिसे पढ़कर हमारा अपने बदलते समाज के साथ भी एक संबंध बनता है। इससे हम अपने समाज को, राजनीति को, इसमें होने वाली हलचलों को समझने-बूझने की एक कोशिश करते हैं। यही इस ब्लॉग की खासियत है।

इस ब्लॉग में देश में होने वाली तमाम छोटी-बड़ी हलचलों पर निगाह है। एक अचूक दृष्टि है, अपनी चुटीली और सार्थक टिप्पणी के साथ। इसमें छोटे-छोटे वाक्य हैं। उसमें थरथराती संवेदनाएँ हैं। कभी करुणा है, कभी हास्य है। कभी व्यंग्य, कभी विश्लेषण है। लेकिन यह सब धीर-गंभीर ढंग से। इसका मर्म इसकी एप्रोच में है। इसलिए यह पढ़ने का मजा भी देती है तो सोचने को विवश भी करती है। इसमें राजनीति है।

राजनीति में मनमोहन-आडवाणी हैं तो माया-करात भी हैं। दलित प्रश्न हैं तो स्त्री विमर्श भी है। बाजार है तो माधुरी दीक्षित भी हैं। आतंकवाद है, क्रिकेट है, रेडियो है और कुछ बेहतरीन किताबों पर आत्मीय टिप्पणियाँ भी हैं और इनके बहाने स्त्री के हाल का आँख खोल देने वाला बखान-बयान भी। हाल ही में बेंगलुरु और अहमदाबाद में हुए विस्फोट पर उनकी टिप्पणी पर गौर करें। वे लिखते हैं-

आतंकवादियों के इरादे साफ हैं। उनका पहला निशाना भारत का सिलिकान शहर बेंगलुरु था, जो भारतीय अर्थव्यवस्था की नई जीवनरेखा है। यह हमला उसे क्षत-विक्षत करने के लिए था। दूसरा ठिकाना सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील पुराना अहमदाबाद बना। जाहिर है, आतंकवादी भारतीय अर्थव्यवस्था और सांप्रदायिक सद्भाव को निशाना बना रहे हैं।

कहने की जरूरत नहीं कि इस भारतनामा में मधुकरजी आतंकवादियों के षड्यंत्र को उसके मकसद को सही परिप्रेक्ष्य में देखने-समझने की सही चेष्टा करते नजर आते हैं। इनमें साइकल के इस्तेमाल पर वे कितना सटीक लिखते हैं इसकी एक मिसाल पर ध्यान दें। वे लिखते हैं- जयपुर और लखनऊ की तरह अहमदाबाद में भी बम रखने के लिए साइकल और टिफिन बॉक्स का प्रयोग किया गया। आतंकवादियों की ताजा सक्रियता की वजह उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई न होना है। इस स्थिति में सरकार से दोहरी सक्रियता अपेक्षित है।

इस ब्लॉग में कुछ बहुत ही दिलचस्प टिप्पणियाँ हैं। एक टिप्पणी मनमोहनसिंह के उदास फोटो पर की गई है और शीर्षक बनाया गया है कि क्या यह २२ जुलाई की तस्वीर है। इसमें मनमोहनसिंह की उदास तस्वीर है और उनकी आँखों में उदासी और हताशा है। टिप्पणी यूँ है- जुबान झूठ बोल सकती है। उसकी फितरत है। आँखों का अंदाज-ए-बयाँ और है। वे कम बोलती हैं।

पर जब बोलती हैं -सिर्फ सच बोलती हैं। चीख-चीखकर। कुछ भी नहीं छिपातीं। सब कह देती हैं। पलक झपकते। जुबान कहती है- हम होंगे कामयाब। आँखें उसका साथ नहीं देतीं। होंठ हिल-काँपकर रह जाते हैं। एक जरा चिंता। पीड़ा। असंभव का खौफ। कल क्या होगा। उम्मीद नजर ही नहीं आती। यकीन नहीं होता। क्या यह बाईस तारीख की तस्वीर है। आने वाले कल की हकीकत। उसका पूरा फसाना। है ना मजेदार टिप्पणी।

प्रेम पवित्र है शीर्षक से अपनी दूसरी टिप्पणी के साथ वे एक फोटो देते हैं जिसमें एक बहुत मोटा आदमी अपनी दुबली प्रियतमा को चूम रहा है। इस टिप्पणी में वे लिखते हैं कि प्रेम पवित्र है। शाश्वत है। निश्छल और स्वतंत्र। हर तरह के बंधन से मुक्त। उससे ऊपर। उसे पसंद नहीं कि कोई रोक-टोक हो। अपने आप में पूर्ण। भावना में। अभिव्यक्ति में। अपना रास्ता खुद तय करता है। वह मुहावरेदारी से भी ऊपर है। उम्र, जाति, रंग, धर्म- कुछ नहीं मानता। वजन भी। वह जिसे प्रेम के काबिल समझता है, बस आ जाता है। भले आपका वजन कुछ भी हो। आप दुनिया के सबसे भारी-भरकम आदमी हों। जो प्रेम को पढ़ सकता है, अनपढ़ नहीं हो सकता। उसके ढाई आखर सब मोटी पोथियों पर भारी पड़ेंगे।

कहने की जरूरत नहीं यह चीजों को देखने की एक नई आँख है। इसमें संवेदनशीलता है, जीवन के मर्म को समझने की कोमलता है। लेकिन इस ब्लॉग में विदेशी महिला लेखिकाओं की कुछ चर्चित किताबों पर मार्मिक टिप्पणियाँ भी हैं। छोटा कितना दर्जा, बड़ा कितना दुःख टिप्पणी में पाकिस्तान की मुख्तारन माई को कोट करते हैं- औरतों के खिलाफ जुल्म का मसला कितना बड़ा है, मैं यह महसूस करके भौंचक्की रह जाती हूँ। हर उस औरत के मुकाबले, जो जुल्म के खिलाफ लड़ती है और बच निकलती है, कितनी औरतें रेत में दफन हो जाती हैं, बिना किसी कद्र और कीमत के, यहाँ तक कि कब्र के बिना भी। तकलीफ की इस दुनिया में मेरा दु:ख कितना छोटा है।...

इस टिप्पणी के बहाने मधुकर उपाध्याय मुस्लिम देशों में औरतों के हाल पर उनका दुःख, इससे उबरकर संघर्ष करने और दूसरी महिलाओं का सहारा बनने की गाथा कहते हैं।

इसके अलावा और कई टिप्पणियाँ हैं जिसमें 'कुर्सी पर कब जाकर बैठेंगे शिवराज', 'कब जागेगी सरकार', 'हे राम ये क्या हो रहा है', 'पूरी जात आधी खुशी', 'राजनीति तो धब्बों की सौगात', 'आजकल बहुत बे-करार हैं आडवाणी', 'जब प्रेम तुम्हें बुलाए उसके पीछे-पीछे जाओ' जैसी टिप्पणियाँ शामिल हैं। 'छाडा़नगर में एक रात' पढ़ने लायक है जिसमें छाड़ा समुदाय द्वारा किए गए नाटक को रेखांकित किया गया है।

इसके अलावा मनोरमा खोरी, मुख्तारन बी, अजर नफीसी की चर्चित किताबों पर परिचयात्मक बातें की गई हैं। इन्हें पढ़ना मुस्लिम महिलाओं की दुनिया से रूबरू होना है जिससे पता चलता है कि वे किन दारूण स्थितियों में रहते हुए अपनी जमीन और अपना आसमान तलाश रही हैं। इसके अलावा क्रिकेट में ऑस्ट्रेलिया की हार और जनरल मानेकशॉ पर भी टिप्पणियाँ पढ़ने लायक हैं।
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