मतदाताओं की मोह-माया से मुक्ति

हर मंच पर आवाज दी जाती है- नागरिक अधिक जिम्मेदार हों। अधिकारों के साथ उन्हें कर्तव्य का अहसास होना भी जरूरी है। पंचों, पार्षदों, विधायकों, सांसदों के अधिकारों (खासकर विशेषाधिकारों) का बहुत ध्यान दिलाया जाता है।

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लोकतंत्र की मजबूती के लिए नौकरशाहों पर जन प्रतिनिधियों की लगाम लगाने की अनिवार्यता मानी जाती है। इसी तरह अच्छी शिक्षा प्राप्त, कला-साहित्य-संस्कृति से जुड़े अथवा खेल की दुनिया में स्थापित व्यक्तियों को संसद में भेजे जाने की सलाह दी जाती है, लेकिन इस बात की समीक्षा नहीं की जाती कि राजनीति, सत्ता, प्रशासन के साथ मतदाताओं की मोह-माया से भी दूर रहने वाले इन सांसदों से कितना नफा-नुकसान होता है।

विशेष रूप से राज्यसभा के लिए चुने गए अथवा नामजद सांसद किसके प्रति जवाबदेह हो सकते हैं? जो सांसद किसी पार्टी के नहीं हैं उन पर तो कोई दबाव भी नहीं हो सकता। राज्यसभा के लिए सदस्यों का चुनाव राज्यों के हितों को ध्यान में रखकर विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा किया जाता है। फिर भी क्या चुने जाने के बाद उन्हें अपने क्षेत्र या मतदाताओं के प्रति वैराग्य भाव रखने की छूट दी जा सकती है?

इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि निर्वाचित या राष्ट्रपति द्वारा नामजद सांसद राज्यसभा की बैठकों में दो-चार अपवादों को छोड़कर निरंतर अनुपस्थित रहे, तो क्या उनकी सदस्यता 6 वर्ष तक बरकरार रहनी चाहिए? ताजा बहस सांसदों को विशेषाधिकार के रूप में हर साल किसी भी क्षेत्र और जनता के विकास के लिए सरकारी खजाने से प्राप्त दो करोड़ रुपए खर्च करने को लेकर भी है।

यह प्रावधान 1993 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने किया था ताकि भ्रष्ट अफसर मनमाने ढंग से खर्च न करते रहें और सांसद जन-आवश्यकताओं-आकांक्षाओं के अनुरूप विकास योजनाओं का क्रियान्वयन करवा सकें। प्रावधान बहुत अच्छा है, लेकिन सांसद निधि के दुरुपयोग अथवा कतई उपयोग न होने के कारण सरकार के शीर्ष सलाहकारों और अफसरों ने अब सलाह देनी शुरू कर दी है कि सांसद निधि की व्यवस्था खत्म कर दी जाए। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी।

सत्ताधारी या विपक्ष में बैठे लोग ऐसे मुद्दों पर केवल मातमपुर्सी करके बैठना क्यों चाहते हैं? यदि कोई डॉक्टर सही दवाई का इस्तेमाल न करे तो क्या हमारे नौकरशाह उस दवाई के उत्पादन को बंद करवा सकते हैं? यदि कोई संगीतकार अच्छे वाद्ययंत्रों का सही उपयोग न करे तो क्या उन्हें नष्ट करवाया जा सकता है? भारत सरकार के सैकड़ों अफसर महलनुमा सरकारी मकान लिए बैठे हैं या भ्रष्टाचार की काली कमाई से शानदार बंगले बनाकर उन्हें बरसों खाली रखते हैं, तो क्या उन्हें जब्त करवाया जा सकता है?

जनता-जनार्दन के लिए बड़े-बड़े वायदे और घोषणाएँ करने वाली राजनीतिक पार्टियों के नेता स्वयं सांसद निधि के सही उपयोग की त्रैमासिक समीक्षा क्यों नहीं कर सकते? महानियंत्रक तथा लेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट में जाने-माने सांसदों द्वारा सांसद-निधि का उपयोग न करने से करोड़ों रुपयों की धनराशि जनता के हितों पर खर्च न होने की स्थिति में क्या केवल 'अफसोस' जाहिर करने से कर्तव्य की इतिश्री समझी जा सकती है?

  सत्ताधारी या विपक्ष में बैठे लोग ऐसे मुद्दों पर केवल मातमपुर्सी करके बैठना क्यों चाहते हैं? यदि कोई डॉक्टर सही दवाई का इस्तेमाल न करे तो क्या हमारे नौकरशाह उस दवाई के उत्पादन को बंद करवा सकते हैं?      
माना कि सुप्रसिद्ध गायिका लता मंगेशकर निजी व्यस्तताओं तथा अस्वस्थता के कारण सांसद निधि के 6 करोड़ रुपए में से एक रुपया खर्च करने की सिफारिश भी प्रशासन को नहीं भेज पाईं, लेकिन सुशील कुमार शिंदे तो वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री, पूर्व मुख्यमंत्री और हाल तक राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री पद के आकांक्षी रहे हैं।

उन्होंने केवल एक करोड़ रुपए विकास पर खर्च कराए। शेष 5 करोड़ खजाने में पड़े रहे। महाराष्ट्र के जिन क्षेत्रों में किसान आत्महत्या करते रहे हैं वहाँ भी विकास के काम के लिए धन लगवाया जा सकता है। इसी तरह प्रफुल्ल पटेल देश के संपन्नतम नेताओं और केंद्रीय मंत्रियों में से एक हैं। उन्हें महाराष्ट्र या देश के किसी अन्य क्षेत्र के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए 6 करोड़ रुपए खर्च करवाने से क्या थोड़ा पुण्य (राजनीतिक-सामाजिक) नहीं मिलता?

मीडिया और क्रिकेट में बड़ा प्रभाव रखने वाले हमारे मित्र राजीव शुक्ल ने विकास फंड की 4 करोड़ की राशि में से मात्र एक करोड़ रुपए खर्च करवाए। तीन करोड़ रुपए से तो बहुत से छोटे स्कूलों के लिए मैदान या महाराष्ट्र में शिक्षा संस्थानों को जोड़ सकने वाले विकास कार्यों का क्रियान्वयन हो जाता।

इसी तरह पत्रकार बिरादरी के जनाब प्रीतीश नंदी ने तो 4 करोड़ रुपए में से एक धेला तक विकास कार्यों पर नहीं लगाया। विलास मुत्तेमवार पिछली सरकार में रहते हुए बंद कमरे में इस बात पर अफसोस करते थे कि योजना आयोग पारंपरिक ऊर्जा के लिए समुचित बजट नहीं देता, लेकिन उन्होंने सांसद विकास फंड के 10 करोड़ में से मात्र एक करोड़ रुपए खर्च करवाए।

ये थोड़े से उदाहरण सीएजी ने दिए हैं जिनसे महाराष्ट्र के विकास के लिए मेहनती लोगों को लगभग 204 करोड़ रुपए नहीं मिल सके। यदि दुरुपयोग के लिए दंड हो सकता है तो अनुपयोग के लिए प्रताड़ना के साथ प्रतीकात्मक दंड और भविष्य में गलतियाँ न होने की व्यवस्था भी होनी चाहिए।

साल-दर-साल जाँच समितियों और आयोगों द्वारा कमियों, अनियमितताओं, राजनीतिक उदासीनता के कारण हो रहे राष्ट्रीय नुकसान पर टिप्पणियाँ की जाती हैं मगर सबक नहीं लिए जाते। सांसद ही नहीं, कुछ राज्य सरकारों के मंत्रियों और अधिकारियों को केंद्र सरकार की योजनाओं तथा उनके लिए आवंटित धनराशि की जानकारी तक नहीं होती। यदि थोड़ी होती भी है तो राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में तथा खींचतान के कारण धन खर्च नहीं हो पाता।

पेयजल, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे क्षेत्रों में ठेकेदारों और दलालों के अधिक सक्रिय नहीं होने से कई राज्यों में आवंटित राशि का उपयोग नहीं हो पाता। बिहार में लालू-राबड़ी राज के दौरान केंद्र से आवंटित करोड़ों रुपए कागज पर ही आकर वापस चले गए। यह उपेक्षा क्या क्षम्य होनी चाहिए?

सांसद विकास निधि के प्रावधान-उपयोग अथवा स्वयंसेवी संस्थाओं अथवा निजी क्षेत्र की सहभागिता से चल सकने वाली योजनाओं के संबंध में शुरू से जागरूकता तथा पारदर्शिता होनी चाहिए। मीडिया और संचार-तंत्र के माध्यम से यदि हर महीने क्षेत्र के विकास कार्यक्रमों का लेखा-जोखा सार्वजनिक होता रहे तो क्या जनता के दबाव और समर्थन से विकास प्रक्रिया अधिक तेजी से नहीं बढ़ सकेगी?

केवल बजट प्रावधान के आँकड़ों का प्रचार या विकास कार्यक्रमों का क्रियान्वयन न होने पर उसकी आलोचना मात्र से कोई लाभ नहीं हो सकता। विकास से जुड़े एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर भी राजनीतिक दलों को विचार करना चाहिए। बड़ी राजनीतिक पार्टियों के अधिकांश शीर्ष नेता कम्यूटर समीकरणों, अफसरों या कॉरपोरेट क्षेत्र पर आश्रित होते जा रहे हैं।

आज भी भारत के सैकड़ों गाँवों में अँधेरा, निरक्षरता, जलसंकट रहता है। सड़क की बात दूर रही, कच्चे-पक्के रास्ते तक नहीं हैं। वहाँ गाँधी-विनोबा के फॉर्मूले पर जनता के श्रमदान सहभागिता के लिए पंचायत स्तर तक कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने की जरूरत है। बाजार में उछाल, परमाणु बिजली की आस, उपभोक्ता वस्तुओं की खरीद-बिक्री में बढ़ोतरी के आँकड़ों से संपूर्ण विकास की गलतफहमी नहीं पाली जानी चाहिए। सरकारी फंड के साथ जनता के एक-एक रुपए के दान से क्रियान्वित होने वाली योजनाएँ अधिक सार्थक होंगी।