मुख्यधारा से जुड़ता मुसलमान

आज का भारतीय मुसलमान अपने मजहब के दायरे में रहकर दूसरों से मेल-जोल बढ़ा रहा है। हर कोण से वह अपने हालात को सँवार रहा है। शायद यही वजह है कि आज हर क्षेत्र में मुस्लिम दिखाई देने लगे हैं।

भारत में इस्लामी अर्थव्यवस्था के जो अग्रदूत हैं, उनमें एक नाम जफर सरेशवाला (उम्र 34 वर्ष) का भी है। वे दिल्ली स्टॉक एक्सचेंज के अध्यक्ष भी हैं। उन्होंने अभियान चलाकर कई लोगों को स्टॉक एक्सचेंज में धन लगाने के लिए उत्साहित किया। इनमें ज्यादा तादाद उन मुसलमानों की है, जो स्टॉक एक्सचेंज में धन लगाने से इसलिए कतराते थे कि कहीं कोई फतवा तो नहीं है? लेकिन सरेशवाला के कहने पर कई लोगों ने अपनी धारा को बदला।

सरेशवाला वही हैं जिनका दफ्तर 2002 में गुजरात दंगों के दौरान जला दिया गया था। फिर भी उन्होंने अपनी धारा को नहीं बदला। हालाँकि उनके जहन में ये खयाल जरूर आया था कि देश छोड़ दें। जफर सरेशवाला इस्लाम की गहरी समझ रखने वाले मौलवी भी हैं। उनका पहनावा भी इस्लाम की तर्ज पर है।

भारत में नए मुसलमान की यह सिर्फ एक मिसाल है, लेकिन यह शुरुआत हो चुकी है। अब उसके लिए कुरान, ईमान और एक अल्लाह की इबादत के मानी खुद की तरक्की करना भी है। तभी तो वह अतीत के अँधियारे से निकलकर भविष्य के उजाले की तरफ आ रहा है। जिस अतीत ने उसे जड़ बना दिया था, अब वह उन हदों को लाँघ रहा है। वह इस्लाम के फोबिया से बाहर आकर अपना यूटोपिया खुद तैयार कर रहा है। वह अपने मजहब के दायरे में रहकर दूसरों से मेल-जोल बढ़ा रहा है। हर कोण से वह अपने हालात को सँवार रहा है। शायद यही वजह है कि आज हर क्षेत्र में मुस्लिम दिखाई देने लगे। अगर यह कहें तो बेजा न होगा कि वह मुल्क की मुख्यधारा के साथ जुड़ रहा है।

भारत में रहने वाला मुसलमान भी धीरे-धीरे वर्गों में बँटता जा रहा है। मोहल्लों की तंग गलियों से निकलकर उसने आधुनिक दौर की वह सुनहरी राह पकड़ ली है जिसके लिए उसे इस्लाम ने कभी रोका नहीं, टोका नहीं। इस्लाम की आधुनिक धारणा को अपनाते हुए खुद को निखारने का प्रण कर वह जिंदगी के हर मोड़ पर आगे बढ़ रहा है।

इन आगे बढ़ने वालों में दक्षिण भारत के मुसलमान तो कई दशक आगे हैं, लेकिन उत्तर भारत का मुसलमान इसमें काफी पिछड़ा हुआ था, क्योंकि जिस वक्त बँटवारा (1947) हुआ तब मुसलमानों का बहुत बड़ा तबका उत्तर भारत में ही रह गया था। उत्तर भारत में वैसे तो पूरी आबादी के ही हालात नाजुक रहे हैं- गरीबी, पिछड़ापन, अशिक्षा ने कभी उबरने नहीं दिया। इसी का शिकार उत्तर भारत के मुसलमान भी हुए, लेकिन आजादी के 60 बरस बाद हालात काफी बदले हुए हैं। शायद यही वजह है कि मुसलमान भी कुछ अलग, कुछ अनूठा महसूस कर रहा है।

भारत में पीढ़ियों से रह रहा मुसलमान दुनिया भर के मुसलमानों से अपने को अलग महसूस करता है, बल्कि अलग है भी। खासतौर पर बँटवारे के बाद की तीन पीढ़ियों ने भारत में जो हालात जिए हैं, वे उनके लिए आदत-सी बन गए हैं। उनकी साँसों में लोकतंत्र समाहित हो गया है। शायद इसीलिए अरब दुनिया या पाकिस्तान से उनका सिर्फ मजहब का ही नाता है, बाकी जो कुछ है वह भारत का है।

अगर भारत के मुसलमान को सऊदी अरब की बादशाहत में या पाकिस्तान की तानाशाही में भेज दिया जाए तो उसे वाकई घुटन होने लगेगी। दो दशक पहले अरब दुनिया उनके लिए रोजगार का एक जरिया था, लेकिन अब मुसलमान यहीं रहकर तरक्की कर रहा है।

सरकारी नौकरियों में वह भले ही कम हो, लेकिन प्राइवेट सेक्टर में वह कामयाबी की बुलंदियों को छू रहा है। मुस्लिम युवा को आम छात्रों की तरह लाखों के पैकेज मिल रहे हैं। कारोबार में भी किसी किस्म की दुश्वारी नहीं है।

इस तरक्की की दौड़ में यह जरूर हुआ है कि मुसलमान भी लोअर, मिडिल और हायर क्लास के खातों में बँट गया है। वह सिर्फ मस्जिद में एक है, लेकिन मस्जिद के बाहर उसका वर्ग है। वही उसकी दुनिया है।

भारत का मुसलमान तरक्की की दौड़ में एकला आगे बढ़ रहा है, लेकिन एक-एक मिलकर काफिला बनता जा रहा है। शायद यही आज के मुसलमान की पहचान है यानी नए मुसलमान की। इस दौड़ में जो दौड़ेगा, वही धावक कहलाएगा। मसले-मसाइल या गरीबी, अशिक्षा के जालों में उलझे मुसलमानों के लिए नए मुसलमानों की दुनिया में कोई गुंजाइश नहीं है।

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