हिटलर का है नया अवतार अल बगदादी!

20वीं सदी के जर्मन तानाशाह आडोल्फ़ हिटलर ने यूरोप के यहूदियों का सफ़ाया कर देने का बीड़ा उठाया था। 60 लाख यहूदियों को उसने मौत के घाट उतरवा दिया। 'इस्लामी ख़लीफ़त' का सर्वेसर्वा अबूबक़र अल बगदादी 21वीं सदी में हिटलर का एक ऐसा अवतार बनने जा रहा है, जो 15 से 50 करोड़ तक विधर्मियों ही नहीं, उन मुसलमानों का भी सफ़ाया कर देना चाहता है, जो कट्टरपंथी सुन्नी नहीं हैं।
 
गुरु गुड़ ही रह गया, चेला शक्कर बन गया। ओसामा बिन लादेन ढाई दशकों के आतंकराज के बावजूद किसी राज्यसत्ता की स्थापना नहीं कर पाया। उसी के इराक़ी चेले अबूबक़र अल बगदादी ने आनन-फ़ानन में इराक़ और सीरिया के एक बड़े भूभाग पर क़ब्ज़ा कर वहाँ 'इस्लामी ख़लीफ़त' का झंडा गाड़ दिया। बिन लादेन के 'अल कायदा' ने कुछ हज़ार ही जानें ली होंगी। अल बगदादी की 'इस्लामी ख़लीफ़त' के हाथ अभी से लाखों के खून से रंग चुके हैं। वह इस्लाम के अपने संस्करण को सारी दुनिया पर थोपना और उन सब के खून की होली खेलना चाहता है, जो उसके पुरातनपंथी दकियानूसी विचारों के आड़े आने की हिम्मत करेंगे। यह कहना है जर्मनी के एक ऐसे नामी व्यक्ति का, जो अपने आप को 'इस्लामी ख़लीफ़त' कहने वाले 'इस्लामी स्टेट' की यात्रा करने और वहाँ के अधिकारियों से बातें करने के बाद दो ही सप्ताह पहले स्वदेश लौटा है।
 
जर्मनी के 74 वर्षीय युर्गन टोडनह्यौएफ़र पश्चिमी जगत के संभवतः ऐसे पहले सुपरिचित व्यक्ति हैं, जो 'शेर की माँद' – यानी इराक़ और सीरिया के एक-तिहाई भाग पर कब्ज़ा जमाए 'आईएस' (इस्लामी स्टेट/ इस्लामी ख़लीफ़त) की राजधानी राक्का में 10 दिन बिताकर सकुशल लौट आए हैं और अब जर्मन मीडिया के माध्यम से आँखों देखा हाल बता रहे हैं। जर्मनी की सत्तारूढ़ सीडीयू (क्रिश्चन डेमोक्रैटिक यूनियन) पार्टी की ओर से 1972 से 1990 तक सांसद रहे और उसके बाद 2008 तक जर्मनी के एक नामी मीडिया ग्रुप 'बुर्दा' के निदेशक मंडल के सदस्य रहे टोडनह्यौएफ़र अब स्वतंत्र पत्रकार व लेखक हैं। वे अफ़ग़ानिस्तान और ईरान से लेकर सीरिया और लीबिया तक अक्सर उन देशों में पहुँच जाने और वहाँ के शिखर नेताओं से मिलते-जुलने के शौकीन रहे हैं, जिन्हें पश्चिम अछूत मानता है और जहाँ पश्चिमी देशों के नागरिकों को अपनी जान हथेली पर रख कर चलना पड़ता है। कभी अफ़ग़ानी मुजाहादीन की प्रशंसा के पुल बाँधने और अमेरिका की ठकुरसुहाती करने में कोई कसर नहीं छोड़ने वाले टोडनह्यौएफ़र भी अल बगदादी की अनर्गल बर्बरता को पचा नहीं पा रहे हैं।
 
सही-सच्ची जानकारी : युर्गन टोडनह्यौएफ़र का कहना है कि वे अपनी एक नई पुस्तक के लिए सही-सच्ची जानकारी जुटाने और 'इस्लामी ख़लीफ़त' को अपनी आँखों से देखने-जानने के लिए, दिसंबर 2014 में, जान की बाज़ी लगाकर गुप्त रूप से वहाँ गए थे। उनका दावा है कि वे ''पश्चिमी जगत का ऐसा पहला सुपरिचित नाम हैं, जिसने इस्लामी ख़लीफ़त की पूर्व अनुमति के साथ वहाँ की यात्रा की है।'' 
 
ख़लीफ़त के उच्च अधिकारियों के साथ इंटरनेट संवाद-सेवा 'स्काइप' के माध्यम से महीनों लंबी वार्ताओं के द्वारा यात्रा की अनुमति और अपनी ''सुरक्षा की गरंटी'' पाने के बाद वे अपने पुत्र फ्रेडरिक के साथ वहाँ गए। तब भी उन्हें यह डर हमेशा लगा रहा कि वे जीवित स्वदेश लौट पाएंगे भी या नहीं। 
 
''मुझे पता था कि मैं कितना बड़ा ख़तरा मोल ले रहा हूँ,'' टोडनह्यौएफ़र का कहना है। ''आईएस को भी मालूम था कि मैं कई बार उस की कड़ी आलोचना कर चुका हूँ। उसकी ओर से ख़तरा तो था ही, अमेरिकी और सीरियाई बमबारी का भी ख़तरा था। मोसुल में काफ़ी नीची उड़ान भर रहे अमेरिकी बमवर्षक हमारे ऊपर मंडराया करते थे। आईएस के क़ब्ज़े वाले इराक़ी शहर मोसुल में हमारे प्रवास के दौरान ही सीरियाई शहर राक्का में (जो अब आईएस की वस्तुतः राजधानी है) हमारे आवास को एक सीरियाई बम ने इस बुरी तरह तहस-नहस कर दिया कि वहाँ अपनी अंतिम रात हमें काँच के टुकड़ों के ढेर के बीच बितानी पड़ी।'' मुस्लिम देशों के कई सिरफिरे नेताओं से मिल चुके टोडनह्यौएफ़र का सिद्धांत है, ''अपने शत्रु को पहले जानो, तभी उस पर विजय पा सकते हो।''
अगले पन्ने पर...नशे जैसा जोश-ख़रोश...

नशे जैसा जोश-ख़रोश : जर्मनी के अखिल राष्ट्रीय रेडियो और टेलीविज़न नेटवर्क 'एआरडी' के साथ एक बातचीत में इस भूतपूर्व जर्मन राजनीतिज्ञ और सांसद ने कहा कि ''आईएस उससे कहीं शक्तिशाली और ख़तरनाक़ है, जितना पश्चिमी जगत के राजनेता समझते हैं। वह उससे कहीं चतुर है, जितना हम सोचते हैं।... उसके लड़ाकों का जोश-ख़रोश और अपनी विजय पर अटल विश्वास किसी नशे जैसा है।''  'आईएस' के लड़ाकों और सूत्रधारकों को पक्का भरोसा है कि सारा मध्यपूर्व एक दिन उन की मुट्ठी में होगा।
 
'इस्लामी ख़लीफ़त' के धर्मशाही राज की रोज़मर्रा ज़िंदगी में बर्बरता की पराकाष्ठा का प्रत्यक्ष परिचय पा कर लौटे युर्गन टोडनह्यौएफ़र का मानना है कि इस ख़लीफ़त के प्रचार से पुलकित हो कर दूसरे देशों से जो इस्लामी जिहादी वहाँ जाते हैं, उनके स्वदेश लौट आने से उन के दोषों को उतना ख़तरा नहीं है, जितना उन लोगों से है, जो उसकी निष्ठुर धर्मशाही पर मुग्ध हैं, पर अभी वहाँ गए नहीं हैं। जो लौटते हैं, उनका जोश ठंडा पड़ चुका और होश ठिकाने लग चुका होता हैं। जिहाद के नाम पर धधक तो वे रहे होते हैं, जो अभी वहाँ पहुँचे नहीं हैं, भुक्तभोगी नहीं बने हैं। वे अपने ही देशों में इस्लामी ख़लीफ़त जैसी बर्बरता की नकल उतारते हुए अनायास मार-काट करने या बमबाज़ी द्वारा आतंक फैलाने में गर्व अनुभव कर सकते हैं।
 
यूरोप के चार हज़ार जिहादी आईएस के लड़ाके : ज्ञातव्य है कि जर्मनी, फ्रांस, बेल्जियम, ब्रिटेन इत्यादि विभिन्न यूरोपीय देशों में रह रहे मुस्लिम आप्रवासियों या मुसलमान बन गए उनके अपने नागरिकों के बीच से लगभग चार हज़ार जिहादी सीरिया और इराक़ में जाकर 'इस्लामी ख़लीफ़त' की विजय के लिए लड़ रहे हैं। इन देशों की सरकारों की नींद हराम है कि जो जिहादी इस बीच लौट आए हैं, वे तोडफोड़ और आतंतवाद की शिक्षा ले कर लौटे होंगे।
 
जर्मन दैनिक 'दी वेल्ट' के साथ एक भेंटवार्ता में 'आईएस' को ''संसार का सबसे ख़तरनाक़ गिरोह'' बताते हुए टोडनह्यौएफ़र ने कहा, ''अफ़ग़ानिस्तान के तालिबान या दूसरे उग्रवादी संगठनों के प्रमुखों के साथ बातचीत में मैं कभी-कभी उन्हें कुछ सोचने पर मजबूर करने में सफल हो जाता था, लेकिन आईएस वालों के आगे मेरी एक नहीं चली।''  टोडनह्यौएफ़र इसी को अपनी सबसे बड़ी सफलता मानते हैं कि सारी शंकाओं और आशंकाओं के बावजूद 'आईएस' के अधिकारियों ने उन की सुरक्षा की जो लिखित गारंटी दी थी, उसे निभाया, अन्यथा वे सकुशल अपने घर-परिवार में लौट नहीं पाए होते। 
 
जासूस परछाईं की तरह पीछा करते रहे...अगले पन्ने पर...

जासूस परछाईं की तरह पीछा करते रहे : वे जितने दिन 'इस्लामी ख़लीफ़त' में रहे और राक्का तथा मोसुल में जहाँ कहीं गए, ख़लीफ़त के जासूस उन का परछाईं की तरह पीछा करते रहे। उन्हें अपना मोबाइल फ़ोन और कंप्यूटर ख़लीफ़त के अधिकारियों के हवाले कर देना पड़ा। यात्रा के अंत में उनके पास के सभी फ़ोटो इत्यादि सेंसर किए गए। क़रीब 800 फ़ोटुओं में से 9 को मिटा दिया गया।
 
टोडनह्यौएफ़र का दावा है कि उन की यात्रा के रास्तों और कार्यक्रमों को ले कर उन के और 'आईएस' के अधिकारियों के बीच कई बार गर्मा-गर्मी और कहा-सुनी भी हुई-- ''भारी हथियारों से लैस आईएस लड़ाकों के साथ झगड़ा-तकरार करना कोई हँसी-ठठ्ठा नहीं है। दो बार यात्रा भंग होने के कगार पर पहुँच गई।''  अपनी यात्रा के अनुभवों और संस्मरणों को अब वे एक पुस्तक का रूप देंगे।  
 
'इस्लामी ख़लीफ़त' के धर्मशाही राज में युर्गन टोडनह्यौएफ़र ने जो कुछ देखा, सुना और जाना है, उस के निचोड़ के तौर पर वे सात बातों पर बल देना चाहते हैं:
 
1- ख़तरे को बहुत कम करके आँका जा रहा हैः पश्चिमी देश, बल्कि सभी देश, 'आईएस' से भावी ख़तरे को बुरी तरह कम करके आँक रहे हैं। अपनी जान पर खेल जाने के लिए तत्पर उसके लड़ाके उससे कहीं अधिक चालाक और ख़तरनाक़ हैं, जितना हमारे राजनेता मानने-समझने के लिए तैयार हैं। 30 लाख की आबादी वाले मोसुल में केवल 400 'आईएस' लड़कों ने आधुनिकतम हथियारों से लैस 25 हज़ार इराकी सैनिकों को खदेड़ बाहर कर दिया। कुछ ही महीनों के भीतर 'आईएस' ने इतने बड़े भूभाग पर अधिकार कर लिया, जो ब्रिटेन से भी बड़ा है।
  
2- नए जिहादी लड़ाकों का ताँता लगा हुआ हैः अकेले तुर्की की सीमा के पास के एक भर्ती-शिविर में हर दिन दुनिया भर से आए 50 से अधिक जिहादी भर्ती होते देखा। केवल भोंदू क़िस्म के युवा ही नहीं, अमेरिका, इंगलैंड, जर्मनी, फ्रांस, रूस या स्वीडन से आए पढ़े-लिखे डिग्रीधारी और डॉक्टर-वकील भी धड़ल्ले से भर्ती हो रहे हैं।
 
3- इस्लामी स्टेट किसी राज्यसत्ता की तरह काम कर रहा हैः आंतरिक सुरक्षा और समाज कल्याण की दृष्टि से वह किसी स्थापित सरकार की तरह काम कर रहा है। उसके इराक़ी हिस्से के सुन्नी निवासी फ़िलहाल कोई प्रतिरोध नहीं दिखा रहे हैं। शिया मुसलमानों, ईसाइयों और यज़ीदियों के वहाँ से पलायन कर जाने या मार डाले जाने के बाद अब केवल सुन्नी ही वहाँ रह गए हैं।    
 
4- लक्ष्य है मानव-इतिहास का सबसे बड़ा धार्मिक सफ़ायाः 'आईएस' मध्यपूर्व के देशों पर और अंततः पूरी दुनिया पर तो क़ब्ज़ा करना ही चाहता है, उसका सबसे बड़ा घोषित लक्ष्य है मानव सभ्यता के इतिहास के सबसे बड़े 'धार्मिक जनसंहार' द्वारा इस्लाम को विश्वविजयी बनाना। तथाकथित 'पुस्तक-पूजक धर्मों', यानी अब्राहम (इब्राहिम) के अनुवर्ती पैगंबरों मूसा, ईसा और मुहम्मद के उपदेशों वाली पुस्तकों को पूजने वाले एकेश्वरवादी धर्मों यहूदी, ईसाई तथा इस्लाम के अनुयायियों को छोड़कर बाक़ी सभी धर्मों के अनुयायियों को 'आईएस' या तो मुसलमान बनाएगा या फिर उनका नाश कर देगा। 
 
हिंदुओं को भी मरना पड़ेगा : 'आईएस' के अधिकारियों व लड़ाकों के साथ अपनी बातचीत के आधार पर टोडनह्यौएफ़र इस निष्पत्ति पर पहुँचे हैं कि इन तीन धर्मों को छोड़कर बाकी सभी धर्म, पंथ या संप्रदाय, 'आईएस' की दृष्टि से, अधर्म या नास्तिकता हैं, इसलिए उनके मानने वालों को मार डालना और उनकी औरतों-बच्चों को गुलाम बनाकर रखना पूरी तरह धर्मसंगत है।
 
उन्हें बताया गया कि ''शियाओं, यज़ीदों, हिंदुओं, नास्तिकों और बहु-ईश्वरवादियों को मरना पड़ेगा। इस धार्मिक शुद्धीकरण में 15 से 50 करोड़ लोगों का सफ़ाया कर दिया जाएगा। उन उदारवादी मुसलमानों का भी सफ़ाया कर दिया जाएगा, जो लोकतंत्र का समर्थन करते हैं, क्योंकि वे मानव निर्मित विधानों को ईश्वरीय विधानों से ऊपर रखते हैं। यह बात लोकतंत्रवादी विचार रखने वाले पश्चिमी जगत के मुसलमानों पर भी लागू होती है। इन सभी काफ़िरों के लिए मौत से बचने का एक ही रास्ता है कि इससे पहले कि उनके देशों को हम जीत लें, वे स्वेच्छा से पश्चाताप करें और सच्चे इस्लाम की तरफ लौट आएं।'' यहूदियों और ईसाइयों को 'पुस्तक-पूजक' होने के नाते जीने दिया जाएगा, पर उन्हें हर साल कई सौ डॉलर के बराबर एक अलग जज़िया कर देना पड़ेगा।
 
5- 'आईएस'  त्सुनामी के समान हैः 'आईएस' दुनिया में एक ऐसा इस्लाम चाहता है, जिसे, टोडनह्यौएफ़र के शब्दों में, ''दुनिया के एक अरब 60 करोड़ मुसलमानों में से 99 प्रशित ठुकराते हैं।''  उनकी समझ में नहीं आता कि इस्लाम की शिक्षाओं से उसका क्या संबंध है। कुरान की 114 में से 113 आयतें ''अल्लाह के, करुणनिधान के नाम पर...'' से शुरू होती हैं। दया और करुणा का तो 'आईएस' के राज में कहीं नामोनिशान ही नहीं है।
 
6- 'आईएस' को बमों और रॉकेटों से नहीं हराया जा सकताः तीस लाख की जनसंख्या वाले मोसुल नगर में केवल पाँच हज़ार 'आईएस' लड़ाकों की तूती बोलती है। उन्हें पंगु बनाने के लिए पूरे मोसुल को बमों और रॉकेटों से धराशायी करना पड़ेगा। लाखों लोगों को मरना पड़ेगा। लेकिन, बमबारी करने से मध्यपूर्व में तो केवल बमबाज़ ही पैदा होते रहे हैं। यानी, केवल मध्यमार्गी सुन्नी अरब ही 'आईएस'  को रोक सकते हैं, पश्चिमी देश नहीं। अरबी और इस्लामी देश यदि मानते हैं कि 'आईएस' इस्लाम के माथे पर असह्य कलंक है, तो इस कलंक को उन्हें ही धोना पड़ेगा। उनका आगे नहीं आना 'मन-मन भावे, मूड़ हिलावे' को ही चरितार्थ करेगा।
 
7- घर लौटने वालों से अधिक ख़तरा घर के जिहादियों सेः टोडनह्यौएफ़र का कहना है कि अपने देशों को लौटने वाले जिहादी इस्लामी ख़लीफ़त में कायर और गद्दार कहलाते हैं। इसलिए उनके देशों को उनसे उतना ख़तरा नहीं है, जितना उन जिहादियों से है, जिन्होंने इस धर्मराज्य की हवा अभी तक नहीं खाई है।
अगले पन्ने पर...पश्चिम के इस्लामीकरण का भय...

पश्चिम के इस्लामीकरण का भय : उल्लेखनीय है कि एक ओर तो जर्मनी से लगभग 550 जिहादी इराक़ और सीरिया जा कर इस्लामी ख़लीफ़त के लिए लड़ रहे हैं, तो दूसरी ओर इन दोनों देशों से हज़ारों शरणार्थी जर्मनी में आकर शरण माँग रहे हैं। जर्मन जनता इस स्थिति से न केवल बहुत उद्वेलित है, बल्कि दो वर्गों में विभाजित हो गई है। एक वर्ग उन लोगों का है, जो पिछले कई सप्ताहों से हर सोमवार की शाम को हज़ारों की संख्या में 'पश्चिमी देशों के इस्लामीकरण के विरुद्ध आन्दोलन' (पेगीड़ा) के नाम से देश के प्रमुख शहरों में प्रदर्शन कर रहे हैं। दूसरा वर्ग उन लोगों का है, जो इतने उदारमन हैं कि नहीं मानते कि पश्चिम का इस्लामीकरण हो रहा है। इस दूसरे वर्ग के समर्थक भी ठीक उसी समय और उन्हीं जगहों पर प्रदर्शन करने पहुँच जाते हैं, जहाँ इस्लाम-विरोधी प्रदर्शनकारी जमा होते हैं। दोनों के बीच 'तू डाल-डाल-तो मैं पात-पात' जैसी होड़ चल रही है। जर्मनी के भूतपूर्व पूर्वी जर्मनी वाले हिस्से में, जहाँ विदेशियों की संख्या बहुत कम है, इस्लाम-विरोधी भावना कहीं व्यापक और प्रबल है, जबकि पश्चिमी हिस्से में, जहाँ कहीं अधिक विदेशी रहते हैं, स्थिति उतनी बुरी नहीं है। 
 
तथ्य यह भी है कि इस्लामी ख़लीफ़त या अल कायदा ही नहीं, मुस्लिम ब्रदरहुड,  हमास, तालिबान, बोको हराम, अंसार अल इस्लाम, अल सैयाफ़, शहाब इत्यादि इस बीच इतने सारे कट्टरपंथी, उग्रवादी, पृथकतावादी या आतंकवादी इस्लामी संगठन दुनिया के दर्जनों मुस्लिम या गैर-मुस्लिम देशों में अपने पैर पसार और मीडिया में प्रचार बटोर रहे हैं कि पश्चिमी देशों तो क्या, सारी दुनिया में घबराहट फैलना स्वाभाविक ही है। 
 
यूरोप में घबराहट : यूरोप में यह घबराहट कुछ अधिक ही है। फ्रांस में अभी-अभी एक प्रसिद्ध उपन्यासकार मिशेल औल्येबेक का 'सबमिशन'  (समर्पण) नाम से एक ऐसा बहुचर्चित उपन्यास प्रकाशित हुआ है, जिस में कल्पना की गई है कि दक्षिणपंथियों और वामपंथियों की एक-दूसरे को रोकने की जोड़-तोड़ से 2022 में पहली बार एक धर्मांतरित मुसलमान फ्रांस का राष्ट्रपति बन जाता है। शीघ्र ही उसे सुरा और सुंदरियों का वैसा ही चस्का लग जाता है, जिसका कथित तौर पर इस्लाम में प्रचलन है और वह अपनी सुंदरियों से उसी तरह के समर्पणभाव की अपेक्षा करता है, जिस की इस्लाम में अल्लाह के प्रति अपेक्षा की जाती है। उपन्यास की आलोचना से उसे इतनी प्रसिद्ध मिल रही है कि उस की डेढ़ लाख प्रतियाँ हाथोंहाथ बिक जाने की संभावना है। 17 जनवरी को उस का जर्मन अनुवाद भी बाज़ार में आ रहा है। 
 
50-60 साल पहले चिराग़ लेकर ढूँढने पर ही पश्चिमी यूरोप के देशों में कोई मुसलमान दिखाई पड़ता था। इस समय जर्मनी में 43 लाख, फ्रांस में 49 लाख और ब्रिटेन में 31 लाख मुसलमान रहते हैं। इन देशों की कुल जनसंख्या में उनका अनुपात इस समय के 5-6 प्रतिशत से बढ़ कर 2030 तक लगभग 9 प्रतिशत हो जायेगा-- यानी लगभग हर दसवाँ निवासी मुसलमान होगा। यूरोपीय देशों की अप्रवासन नीति में यदि कोई बड़ा परिवर्तन नहीं होता, तो अगले 15 वर्षों में यूरोप में मुस्लिम जनसंख्या का अनुपात वर्तमान 6 प्रतिशत से बढ़ कर 8.6 प्रतिशत हो जाने का अनुमान है। स्वीडन में तो वह अभी से 11 प्रतिशत हो गया है। इससे विदेशियों के साथ सहजीवन से काफी कुछ अपरिचित मूल यूरोपवासियों को लगता है, मानो वे अपने ही देश में विदेशी होते जा रहे हैं। वे जब सुनते हैं कि मुस्लिम देशों में आजकल कैसी उथल-पुथल चल रही है, तो अपने यहाँ भी उसकी आशंका से उनके हाथ-पैर और भी फूलने लगते हैं।   

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