भगाना के दलित : इंसाफ माँगा था, इस्लाम मिला!

-भंवर मेघवंशी                            
लगभग 4 माह तक उनका सामाजिक बहिष्कार किया गया, आर्थिक नाकेबंदी हुई, तरह-तरह की मानसिक प्रताड़नाएं दी गई। गांव में सार्वजनिक नल से पानी भरना मना था, शौच के लिए शामलात जमीन का उपयोग नहीं किया जा सकता था, एक मात्र गैर दलित डॉक्टर ने उनका इलाज करना बंद कर दिया, जानवरों का गोबर डालना अथवा मरे जानवरों को दफ़नाने के लिए गांव की भूमि का उपयोग तक वे नहीं कर सकते थे। उनका दूल्हा या दुल्हन घोड़े पर बैठ जाए, यह तो संभव ही नहीं था।
 
जब सांस लेना भी दूभर होने लगा तो अंततः भगाना गांव के 70 दलित परिवारों ने 21 मई 2012 को अपने जानवरों समेत गांव छोड़ देना ही उचित समझा। वे न्याय की प्रत्याशा में जिला मुख्यालय हिसार स्थित मिनी सचिवालय के पास आ जमे, जहां पर उन्होंने विरोधस्वरूप धरना प्रदर्शन शुरू कर दिया। भगाना के दलितों ने ग्राम पंचायत के सरपंच से लेकर देश के महामहिम राष्ट्रपति महोदय तक हर जगह न्याय की गुहार लगाई, वे तहसीलदार के पास गए, उपखंड अधिकारी को अपनी पीड़ा से अवगत कराया, जिले के पुलिस अधीक्षक तथा जिला कलेक्टर को अर्जियां दीं। तत्कालीन और वर्तमान मुख्यमंत्री से कई-कई बार मिले। विभिन्न आयोगों, संस्थाओं एवं संगठनों के दरवाजों को खटखटाते रहे, दिल्ली में हर पार्टी के अलाकमानों के दरवाजों पर दस्तक दी मगर कहीं से इंसाफ की कोई उम्मीद नहीं जगी।
 
उन्होंने अपने संघर्ष को व्यापक बनाने के लिए हिसार से उठकर दिल्ली जंतर मंतर पर अपना डेरा जमाया तथा 16 अप्रैल 2014 से अब तक दिल्ली में बैठकर पूरे देश को अपनी व्यथा कथा कहते रहे, मगर समाज और राज के इस नक्कारखाने में भगाना के इन दलितों की आवाज़ को कभी नहीं सुना गया। हर स्तर पर, हर दिन वे लड़ते रहे, पहले उन्होंने घर छोड़ा, फिर गांव छोड़ा, जिला और प्रदेश छोड़ा और अंततः थक हारकर धर्म को भी छोड़ गए, तब कहीं जाकर थोड़ी बहुत हलचल हुई है, लेकिन अब भी उनकी समस्या के समाधान की बात नहीं हो रही है। अब विमर्श के विषय बदल रहे है, कोई यह नहीं जानना चाहता है कि आखिर भगाना के दलितों को इतना बड़ा कदम उठाने के लिए किन परिस्तिथियों ने मजबूर किया?
 
भगाना हरियाणा के हिसार जिला मुख्यालय से मात्र 17 किमी दूर का एक पारम्परिक गाँव है, जिसमे 59% जाट, 8% सामान्य सवर्ण (ब्राह्मण, बनिया, पंजाबी) 9% अन्य पिछड़ी जातियां (चिम्बी, तेली, कुम्हार, लोहार व गोस्वामी) तथा 24% दलित (चमार, खटीक, डोमा, वाल्मीकि एवं बैगा) निवास करते हैं। वर्ष 2000 में यहां पर अम्बेडकर वेलफेयर समिति बनी, दलित संगठित होने लगे। उन्हें गांव में अपने साथ होने वाले अन्याय साफ नज़र आने लगे, वे अपने नागरिक अधिकारों को प्राप्त करने के प्रयास में एकजुट होने लगे, जिससे यथास्थितिवादी ताकतें असहज होने लगी।
 
दलितों ने अपने लिए आवासीय भूमि के पट्टे मांगे तथा गाँव गांव की शामलाती जमीन पर अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने की मांग उठाई। संघर्ष की वास्तविक शुरुआत वर्ष 2012 में तब हुई, जबकि दलितों ने गांव में स्थित चमार चौक का नाम अम्बेडकर चौक करने तथा वहां पर अम्बेडकर की प्रतिमा लगाने की मांग शुरू की।
 
दरअसल यह चौक दलित परिवारों की आबादी के पास स्थित है, जहां पर कई दलितों के घरों के दरवाजे खुलते हैं, मगर गांव के दबंगों को यह गंवारा ना था कि इस चौक पर दलितों का कब्ज़ा हो। इतना ही नहीं बल्कि गांव में दलितों को आवासीय भूखंड देने के लिए बनाई गई महात्मा गांधी बस्ती विकास योजना के तहत प्लॉट्स का पंजीकरण और आवंटन भी उन्हें स्वीकार नहीं था।
 
गांव की शामलाती जमीन पर दलितों की आवाजाही भी उन्हें बर्दाश्त नहीं थी। कुल मिलाकर भगाना स्वाभिमानी दलितों के लिए नरक बन चुका था, ऐसे में दलितों के लिए गांव छोड़कर चले जाने तथा इंसाफ के लिए आवाज़ उठाने के अलावा कोई चारा ही नहीं था। इस तरह यह लड़ाई चलती रही। विगत तीन वर्षों से यह जंग बहुत सघन और मज़बूत हो गई, पहले हिसार के मिनी सचिवालय के बाहर और अंततः जंतर मंतर पर यह संघर्ष जारी रहा। 2014 से जंतर मंतर को ठिकाना बना कर लड़ रहे इन दलितों को कोई न्याय नहीं मिल पाया, ऊपर से चार दलित नाबालिग लड़कियों का भगाना गाँव में अपहरण और सामूहिक दुष्कर्म का मामला और हो गया, जिसमें भी पुलिस की भूमिका संतोषजनक नहीं रह पाई, इससे भी आक्रोश बढ़ता गया।
 
हरियाणा की पिछली सरकार ने संघर्षरत दलितों से न्याय के कई वादे किए मगर वे सत्ता से बाहर हो गए, भाजपा की सरकार के मुख्यमंत्री खट्टर से भी भगाना के पीड़ित चार बार मिलकर आए, मगर कोई कार्यवाही नहीं हुई, लम्बे संघर्ष के कारण दलित संगठनों के रहनुमाओं ने भी कन्नी काट ली, जब कोई भी साथी नहीं रहा, तब भगाना के दलितों को कोई ना कोई तो कदम उठाना ही था, इसलिए उन्होंने संसद के सत्र के दौरान एक रैली का आह्वान करता हुआ पर्चा सबको भेजा, यह रैली 8 अगस्त 2015 को आयोजित की गई थी, इसी दौरान करीब 100 परिवारों ने जंतर मंतर पर ही कलमा और नमाज पढ़कर इस्लाम कुबूल करने का ऐलान कर दिया, जिससे देश भर में हड़कंप मचा हुआ है।
 
भगाना में इसकी प्रतिक्रिया में गांव में सर्वजाति महापंचायत हुई है जिसमें हिन्दू महासभा, विश्व हिन्दू परिषद तथा बजरंग दल के नेता भी शामिल हुए। उन्होंने खुलेआम यह फैसला किया है कि 'धर्म परिवर्तन करने वाले लोग फिर से हिन्दू बनकर आएं, वरना उन्हें गांव में नहीं घुसने देंगे।'
 
विहिप के अंतरराष्ट्रीय महामंत्री डॉ. सुरेन्द्र जैन का कहना है कि यह धर्मांतरण पूरी तरह से ब्लैकमेलिंग है, इसे किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। हिन्दू महासभा के धर्मपाल सिवाच का संकल्प है कि भगाना के दलितों की हर हाल में हिन्दू धर्म में वापसी कराएंगे। जो दलित मजहब बदलकर गांव लौटे है उन्हें हिंदूवादी नेताओं ने समझाने के नाम पर धमकाने की कोशिश भी की है वहीँ दूसरी और देश और प्रदेश की हिंदूवादी सरकारों ने सत्ता का कहर भी ढाना  प्रारंभ कर दिया है। 
 
धर्मांतरण के तुरंत बाद ही शुक्रवार की रात को हिसार के मिनी सचिवालय के बाहर विगत तीन वर्षों से धरना दे रहे दलितों को हरियाणा पुलिस ने जबरन हटा दिया और टेंट फाड़ दिए हैं। दिल्ली जंतर मंतर पर भी 10 अगस्त की रात को पुलिस ने धरना दे रहे लोगों पर धावा बोल दिया, विरोध करने पर लाठीचार्ज किया गया, जिससे 11 लोग घायल हो गए। यहाँ से भी इन लोगों को खदेड़ने का पूरा प्रयास किया गया है। अब स्थिति यह है इस्लाम अपना चुके लोगों का गांव में बहिष्कार किया जा चुका है, हालांकि यह भी सच है कि इनका पहले से ही ग्रामीणों ने सामाजिक बहिष्कार किया हुआ था।
 
हिसार से उन्हें भगाया जा चुका है और जंतर मंतर से भी वो खदेड़े गए हैं, ऐसे में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि भगाना के इतने लम्बे आंदोलन का आखिर भविष्य क्या होगा? क्या यह आगे भी चल पाएगा या यहीं ख़त्म हो जाएगा? यह सवाल मैंने आंदोलन से बहुत नज़दीक से जुड़े हुए तथा धर्मांतरण कार्यक्रम के मुख्य योजनाकार अब्दुल रज्जाक अम्बेडकर से पूंछा, उनका कहना है कि जालिमों के खिलाफ यह लड़ाई जारी रहेगी। जंतर मंतर पर धरना जारी है और आइंदा भी जारी रहेगा, जहां तक गांव की सर्वखाप पंचायत के फैसले की तो हम उससे नहीं डरते, हम लोग जल्दी ही भगाना जाएंगे, यह हमारा लोकतांत्रिक अधिकार है। 
 
रज्जाक अम्बेडकर का कहना है हमें मालूम था कि इस धर्मांतरण के बाद हमारी मुश्किलात बढ़ेंगी, क्योंकि सांप्रदायिक संगठन इसे हिन्दू मुस्लिम का मुद्दा बना रहे हैं, पर जिन दलितों ने इस्लाम कुबूल कर लिया है, वो इस्लाम में रहकर ही इंसाफ की लड़ाई लड़ेंगे। 9 अगस्त की रात में हुए हमले में पुलिस के निर्दयी लाठीवार में रज्जाक को भी गंभीर चोटें पहुंची हैं, मगर उनका हौसला बरक़रार है,वे बताते हैं  धर्मांतरित दलित जानते हैं कि अब उनका अनुसूचित जाति का स्टेटस नहीं बचेगा, मगर उन्हें यह भी उम्मीद है मुस्लिम बिरादरी उनके सहयोग में आगे आएगी।
 
जिन दलितों ने धर्म बदला है, उनका मनोबल चारों तरफ से हो रहे प्रहारों के बावजूद भी कमजोर नहीं लगता है। नवधर्मांतरित सतीश काजला जो कि अब अब्दुल कलाम अम्बेडकर हैं, कहते हैं कि हम हर हाल में अब मुसलमान ही रहेंगे, जो कदम हमने उठाया, वह अगर हमारे पूर्वज उठा लेते तो आज ये दिन हमको नहीं देखने पड़ते।
 
इसी तरह पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखने वाले भगाना निवासी धर्मान्तरित वीरेन्द्र सिंह बागोरिया का कहना है हम पूरी तरह से इस्लाम अपना चुके हैं और अब किसी भी भय, दबाव या प्रलोभन में वापस हिन्दू नहीं बनेंगे। अन्य दलित व अति पिछड़े जिन्होंने इस्लाम कबूला है, वो भी अपने फैसले पर फ़िलहाल तो मजबूती से टिके हुए हैं। भाजपा, संघ, विहिप, बजरंग दल तथा हिन्दू महासभा अपना पूरा जोर लगा रही है कि धर्मान्तरित लोग अपने मूल धर्म में लौट आएं, मगर भगाना के पीड़ित दलितों ने अपना संदेश स्पष्ट कर दिया है कि अगर हिन्दुओं को दलितों की परवाह नहीं है तो दलितों को भी हिन्दुओं की रत्ती भर भी परवाह नहीं है। एक ऐसे वक़्त में जबकि एक दक्षिणपंथी हिन्दू शासक दिल्ली की सल्लतनत पर काबिज़ है, ऐसे में उसकी नाक के नीचे खुलेआम, चेतावनी देकर, पर्चे बांटकर, ऐलानिया तौर पर पीड़ित दलित इस्लाम कुबूल कर रहे हैं तो यह वर्ष 2020 में बनने वाले कथित हिन्दू राष्ट्र के मार्ग में गति अवरोधक बन सकता है।
 
अंतिम बात यह है कि अब भगाना के दलितों की आस्था बाबा साहेब के संविधान के प्रति उतनी प्रगाढ़ रह पाएगी या वो अपनी समस्याओं के हल कुरान और शरिया तथा अपने बिरादाराने मुसलमान में ढूंढेंगे? क्या लडाई के मुद्दे और तरीके बदल जाएंगे, क्या अब भी भगाना के दलित मुस्लिम अपने गांव के चमार चौक पर अंबेडकर की प्रतिमा लगाने हेतु संघर्ष करेंगे या यह उनके लिए बुतपरस्ती की बात हो जाएगी, सवाल यह भी है कि क्या भारतीय मुसलमान भगाना के नव मुस्लिमों को अपने मज़हब में बराबरी का दर्जा देंगे या उनको वहां भी पसमांदा के साथ बैठकर मसावात की जंग को जारी रखना होगा? अगर ऐसा हुआ तो फिर यह खाई से निकलकर कुएं में गिरने वाली बात ही होगी।
 
भगाना के दलितों को इंसाफ मिले यह मेरी भी सदैव चाहत रही है, मगर उन्हें इंसाफ के बजाय इस्लाम मिला है, जो कि उनका अपना चुनाव है। मगर अब भी दलित समस्याओं का हल धर्म बदलने में नहीं दिखाई पड़ता है। आज दलितों को एक धर्म छोड़कर दूसरे धर्म में जाने की जरूरत नहीं है, उन्हें किसी भी धर्म को स्वीकारने के बजाय सारे धर्मों को नकारना होगा, तभी मुक्ति संभव है, संभवतः सब धर्मों को दलितों की जरूरत, मगर मेरा मानना है कि दलितों को किसी भी धर्म की जरूरत नहीं है। धर्म रहित एक लोकतंत्र जरूर चाहिए, जहां पर समता, स्वतंत्रता और भाईचारा से परिपूर्ण जीवन जीने का हक सुनिश्चित हो।
 

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