मध्यप्रदेश में ऊर्जा सुधार की दशा एवं दिशा

Webdunia
- राजकुमार सिन्हा
 
मध्यप्रदेश में बिजली उत्पादन, बिजली की गैर सरकारी स्रोतों से खरीदारी और इसके आम उपभोक्ताओं को प्रदाय में भारी अनियमितताएं और गड़बड़ियां हैं। पिछले 15 वर्षों में उपभोक्ताओं के लिए दी जा रही बिजली की दरें 1.37 रुपए प्रति यूनिट से बढ़कर सात रुपए प्रति यूनिट हो गई हैं। निजी बिजली कम्पनियों से अनुबंध है कि चाहे राज्य सरकार उनसे बिजली ले या न लें, उन्हें प्रतिवर्ष 2163 करोड़ रुपए भुगतान करना ही होंगे।

मध्यप्रदेश में ऊर्जा सुधार की प्रकिया 1996 में टाटा राव कमेटी बनने से शुरू होती है। टाटा राव कमेटी की रिपोर्ट 1997 में आई , जिसके आधार पर 1998 में राज्य सरकार ने विद्युत नियामक का गठन किया। वर्ष 2002 में केंद्र के विद्युत मंत्रालय एवं सरकार के बीच अनुबंध हुआ कि भारत सरकार की मदद से फास्ट ट्रेक सुधार प्रकिया चलाई जाए।

राज्य सरकार मध्यप्रदेश ऊर्जा सुधार अधिनियम 2001 लाई, जो विद्युत अधिनियम 2003 के आने बाद कानूनी रूप से प्रभावी हुआ। वर्ष 2000 में विद्युत मंडल का घाटा 2100 करोड़ रूपए तथा 4892.6 करोड़ रूपए दीर्घकालीन कर्ज था, जो 2014-15 में एकत्रित घाटा 30 हजार 282 करोड़ रूपए तथा सितम्बर 2015 तक कुल कर्ज 34 हजार 739 करोड़ रूपए हो गया है। परन्तु ऊर्जा सुधार के 18 वर्ष बाद भी 65 लाख ग्रामीण उपभोक्ताओं में से 6 लाख उपभोक्ताओं के पास मीटर नहीं है।

प्रदेश भर में 3.57 लाख कृषि ट्रांसफार्मरों में से 22 प्रतिशत में मीटर नहीं हैं। इन उपभोक्ताओं को औसत बिजली बिल दिए जाते हैं। सौभाग्य योजना के बिजली बिल अन्तर्गत 45 लाख घरों में से अभी मात्र 14 लाख 85 हजार कनेक्शन हुए हैं। लगभग 30 लाख घरों में कनेक्शन होना बाकी है। 20 हजार छोटे गांवों में तो अब तक खंभे लगाए नहीं हैं। वर्ष 2017-18 में घरों तक बिजली पहुंचने से पहले 29.16 प्रतिशत बिजली लाइन लॉस के रूप में बर्बाद हो रही है। मध्य क्षेत्र की कम्पनी की हानि 39.37 तथा पूर्व क्षेत्र कम्पनी की हानि 29.61 प्रतिशत तक पहुंच गई है। जबकि लाइन लॉस को 17 प्रतिशत तक रखने का लक्ष्य रखा गया था।

बिजली कम्पनियों ने मीटर रीडिंग, राजस्व वसूली, मेंटेनेंस, मीटर लगाना तथा सब स्टेशनों को ठेके पर दे दिया है। ठेका एजेंसियां कम राशि में अप्रशिक्षित लोगों से काम करवा रही हैं जिसके कारण 2012 से 2017 के बीच प्रदेश के 1671 विद्युत कर्मियों व ठेका श्रमिकों की बिजली सुधार करते समय मौत हुई है। सरकार ने छह निजी बिजली कम्पनियों से 1575 मेगावॉट बिजली क्रय करने का अनुबंध 25 वर्षों के लिए किया है जो इस शर्त के अधीन है कि बिजली खरीदें या न खरीदें उन्हें प्रतिवर्ष 2163 करोड़ रुपए देने ही होंगे।

बिजली की मांग नहीं होने के कारण बगैर बिजली खरीदे विगत तीन वर्ष में 2016 तक 5513.03 करोड़ रुपए निजी कम्पनियों को भुगतान किया गया। प्रदेश में सरप्लस बिजली होने के बावजूद पावर मैनेजमेंट कम्पनी ने 2013-14 रबी सीजन में मांग बढ़ने के दौरान गुजरात के सुजान टोरेंट पावर से 9.56 रुपए की दर से बिजली खरीदी थी। नियामक आयोग ने इस पर सख्त आपत्ति जताई है। वर्तमान बिजली की उपलब्धता 18364 मेगावॉट है तथा वर्षभर की औसत मांग लगभग 8 से 9 हजार मेगावॉट है।

बिजली की अधिक उपलब्धता के कारण सरकारी ताप विद्युत संयंत्रों को मेंटेनेंस के नाम पर बंद रखा जाता है या तो इसे कम लोड पर चलाया जाता है। वर्ष 2013-14 में 5600 करोड़ यूनिट के विरुद्ध सरकारी ताप व जल विद्युत गृह से महज 1757.07 करोड़ यूनिट बिजली खरीदी गई, जबकि सरकारी ताप विद्युत 4080 मेगावॉट तथा जल विद्युत की 917 मेगावॉट क्षमता है। 30 अक्टूबर 2017 के समाचार पत्रों में प्रकाशित क्रिसिल की रिपोर्ट के अनुसार, 8 लाख करोड़ रुपए के एनपीए से जूझ रहे बैंकों द्वारा पावर सेक्टर को दिया गया लगभग 4 लाख करोड़ रुपए का कर्जा एनपीए हो सकता है। इसकी वजह यह है कि देश में 51 हजार मेगावॉट क्षमता के पावर प्लांट बंद हैं तथा 23 हजार मेगावॉट का पावर प्लांट निर्माणाधीन है जो अगले पांच वर्ष में शुरू होंगे। अगर हालात नहीं सुधरे तो ये प्लांट भी उत्पादन शुरू नहीं कर पाएंगे और एक लाख तीस हजार करोड़ रुपए का निवेश प्रभावित होगा, जो एनपीए की राशि को और बढ़ा देगा।

देश में राजस्थान के बाद सबसे महंगी बिजली मध्यप्रदेश में है। 2002 में विद्युत दर 1.37 रुपए प्रति यूनिट से बढ़कर 2013 में 5.87 रुपए प्रति यूनिट हो गया था। आज वो 7 रुपए के आसपास है। ऊर्जा सुधार के समय कहा गया था कि सस्ती और भरपूर बिजली उपलब्ध होगी, परन्तु ये तो लोगों को दरिद्र, भारतीय पूंजी को धनवान और बैंकों को जोखिम में डालने वाला सुधार है। छोटे उपभोक्ता महंगी बिजली दर की मार से और राज्य सरकार अनुदान के भार से परेशान है। (सप्रेस)
 
(राजकुमार सिन्हा बरगी बांध विस्थापित संघ के वरिष्ठ कार्यकर्त्ता हैं।)

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