बाहर आतंक, जेल में स्वतंत्रता...

-किशोर भाई गुप्ता
देश में आपातकाल लग चुका था। चारों ओर पुलिस का दमनचक्र जारी था। पुलिस जिसको चाहती पकड़कर जेल में डाल देती। इमरजेंसी लगने के कुछ समय बाद ही यानी जुलाई के महीने में मुझे भी कुछ साथियों के साथ जेल में डाल दिया गया। तब मेरी उम्र करीब 30 साल थी। 
 
उस समय मैं विनोबा भावे के निर्देश पर रेलवे की नौकरी छोड़कर इंदौर के विसर्जन आश्रम में काम कर रहा था। जेल में हमें कई बड़े नेताओं- सर्वोदयी नेता दादाभाई नाईक, संघ प्रमुख रहे केएस सुदर्शन, मामा बालेश्वर दयाल, मध्यप्रदेश के मुख्‍यमंत्री रहे कैलाश जोशी, सुंदरलाल पटवा, वीरेन्द्र कुमार सखलेचा, शरद यादव, ओमप्रकाश रावल आदि का सानिध्य भी प्राप्त हुआ। 
 
हालांकि बाहर पुलिस का आतंक था, लेकिन जेल में हम पूरी तरह स्वतंत्र थे। इसका कारण हमारा संगठित प्रतिरोध था। जेल में भी हम आपातकाल के खिलाफ आवाज बुलंद करते थे। उपवास, नारे, गीत, प्रवचन, विचार गोष्ठियों का आयोजन दिनभर चलता रहता था। उस दौर में सबसे बड़ी बात यह थी कोई किसी को निर्देश नहीं दे रहा था, सब कुछ स्वप्रेरणा से हो रहा था। सब उस आंधी में बहे चले जा रहे थे। 
उस दौर की एक घटना ने मुझे काफी प्रभावित किया। आपातकाल से कुछ समय पहले की बात है, जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण इंदौर आए थे। तब जेपी विसर्जन आश्रम में ही रुके थे। सबसे बड़ा प्रश्न उनकी सुरक्षा का था। उन्हें पुलिस के भरोसे भी नहीं छोड़ा जा सकता था। ऐसे स्वयंसेवकों ने उनकी सुरक्षा का जिम्मा संभाला। पूरी तत्परता से। सब कुछ स्वनियंत्रित था। कोई किसी को नियंत्रित नहीं कर रहा था। सब कुछ आंतरिक प्रेरणा से हो रहा था। 
 
आपातकाल का दौर ऐसा काल था जो युवाओं को त्याग और बलिदान के लिए उत्तेजित भी कर रहा था और प्रेरित भी कर रहा था। 

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