Climate Hardship: तापमान बढ़ रहा है, समुद्री जलस्तर चढ़ रहा है और पेयजल घट रहा है

राम यादव
बुधवार, 24 मई 2023 (17:25 IST)
Climate Hardship: हम यथासंभव ऐसी जगहों पर रहना-बसना पसंद करते हैं, जहां न तो बहुत अधिक गर्मी पड़ती है और न बहुत अधिक सर्दी। लेकिन वैश्विक तापमान (global temperature) बढ़ने से हो रहा जलवायु परिवर्तन पृथ्वी पर के समशीतोष्ण कहलाने वाले उन कटिबंधों का दायरा भी संकुचित करता जा रहा है, जो रहने-बसने के सबसे उपयुक्त हैं। तापमान बढ़ने से समुद्री जलस्तर ऊपर उठ रहा है और नदी-सरोवर सूखने से पानी के साथ-साथ रिहायशी जगहों का अभाव भी बढ़ता जा रहा है।
 
शोधकों ने हिसाब लगाया है कि आज की 21वीं सदी का अंत आते-आते हो सकता है कि दुनिया की एक-तिहाई मानव जाति को पृथ्वी पर के ऐसे क्षेत्रों में रहना पड़े, जहां की जलवायु तब तक बहुत ही असह्य हो चुकी होगी।
विज्ञान पत्रिका 'नेचर सस्टेनेबिलिटी' में उन्होंने लिखा है कि वैश्विक जलवायु परिवर्तन का इस समय जो रंग-ढंग है, उसे देखते हुए यह विवशता तब वास्तविकता बन जाएगी, जब पृथ्वी पर का तापमान औसतन 2.7 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया होगा। वैश्विक औसत तापमान में वृद्धि को यदि सदी के अंत से पहले 1.5 डिग्री सेल्सियस पर ही रोका जा सका, तब भी विश्व की जनसंख्या के 14 प्रतिशत को असह्य जलवायु की मार झेलनी पड़ेगी।
 
गर्मी का कहर : रहने-जीने के लिए सबसे उपयुक्त औसत वार्षिक तापमान 11 से 15 डिग्री सेल्सियस तक माना जाता है। लेकिन ठीक इस समय भी दुनिया में 60 करोड़ से अधिक लोग यानी 9 प्रतिशत से अधिक धरतीवासी ऐसी जगहों पर रहते हैं, जो इस तापमान वाले दायरे से कहीं अधिक गर्मी से तप रहे हैं।
 
जलवायु परिवर्तन के साथ जीने के लिए अनुकूल दायरा निरंतर सिकुड़ता और प्रतिकूल दायरा फैलता जा रहा है। 'नेचर सस्टेनेबिलिटी' में प्रकाशित शोध के लेखकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन की इस मार से सबसे अधिक पीड़ित लोग भारत, नाइजीरिया और इंडोनेशिया में रहते हैं। एशिया में क़तर और अफ्रीका में बुर्कीना फासो तथा माली ऐसे देश हैं, जो लगभग पूरी तरह अनुपयुक्त जलवायु वाले दायरे में बसे हुए हैं।
 
इन सभी देशों में औसत वार्षिक तापमान इतना अधिक है कि उनके निवासी अपने आापको एक सीमा तक ही उसके अनुकूल ढाल सकते हैं। वातानुकूलन (एयरकंडीशनिंग) जैसे साधनों आदि की सहायता से वे असह्य गर्मी को भी आरामदेह बना तो सकते हैं, पर इसके लिए जो धन चाहिए, वह सबके पास हो नहीं सकता।
 
असह्य गर्मी से देश पलायन : तथ्य यह भी है कि गर्मी या तापमान के अतिरक्त पानी, हवा में नमी की मात्रा और भोजन के लिए ज़रूरी चीज़ों की उपज का भी जलवायु से सीधा संबंध है। यदि गर्मी बहुत अधिक न हो, लेकिन हवा में नमी हमेशा बहुत अधिक हो यानी उमस रहती हो, तब भी जीवन कष्टमय हो जाता है।
 
'नेचर सस्टेनेबिलिटी' में प्रकाशित शोध के लेखकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन की मार भी एक ऐसा कारक है, जो भविष्य में देश पलायन और दूसरे देशों में जाकर वैध-अवैध तरीकों से वहां रहने-बसने की प्रवृत्ति को और अधिक बढ़ावा देगा। इससे नई-नई आर्थिक ही नहीं, राजनीतिक और सामाजिक समस्याएं भी पैदा होंगी।
 
चिलचिलाती धूप और 40 डिग्री से अधिक असह्य तापमान इन दिनों केवल भारत में ही नहीं, विदेशी पर्यटकों के बीच अत्यंत लोकप्रिय यूरोपीय देश स्पेन में भी आग बरसा रहा है। पिछले कुछ वर्षों से यूरोप में भी इतनी गर्मी पड़ने लगी है कि नदी-सरोवर सूख जाते हैं। घरों और जंगलों में आग लग जाती है। हज़ारों एकड़ ज़मीन जलकर राख हो जाती है। पशु-पक्षी ही नहीं, लोग भी मरते हैं। जर्मनी में राइन जैसी यूरोप की एक सबसे बड़ी नदी में 
नावों और मालवाही बजरों का चलना कई बार बंद हो जाता है।
 
अमेरिका-कनाडा में भी अभी से गर्मी : इस साल मई के दूसरे सप्ताह में ही उत्तर-पश्चिमी अमेरिका और उससे सटे कनाडा का एक बड़ा हिस्सा भीषण गर्मी से तपने लगा। अमेरिका के सिएटल नगर में तापमान 32.2 डिग्री और पोर्टलैंड में 34.4 डिग्री पर पहुंच गया। ये दोनों बड़े शहर ऐसे शहर हैं, जहां पहले कड़ाके की बर्फीली सर्दियों का आतंक रहा करता था। कनाडा के अल्बेर्टा राज्य के जंगलों में आग लगने की आशंका से आपात स्थिति घोषित कर दी गई है। बहुत से लोगों को सुरक्षित जगहों पर ले जाया गया है।
 
अमेरिका और कनाडा के इस हिस्से में 2021 में ऐसी अपूर्व भीषण गर्मी पड़ी कि क़रीब 800 लोगों की गर्मी से मृत्यु तक हो गई। उस साल पोर्टलैंड में तापमापी का पारा 46.7 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया, जो अब तक का सबसे बड़ा रिकॉर्ड है। कुछ ऐसा ही हाल रूस का भी है। रूसी साइबेरिया की बर्फीली ज़मीन लाखों वर्षों से कभी न पिघलने वाले चिरतुषार के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन पिछले वर्ष की गर्मियों में वहां पारा एक लंबे समय तक 30 डिग्री सेल्सियस के आस-पास बना रहा।
 
साइबेरिया में मकान धंसने लगे : पत्थर की तरह पथराई साइबेरियाई ज़मीन के पिघलने से मकान धंसने और आड़े-तिरछे होने लगे। बहुत से लोगों को अपने घर त्यागने और किसी दूसरी जगह नए घर बनाने पड़े। सड़कें और रेल की पटरियां भी धंसने लगी थीं। मैमथ कहलाने वाले कुछेक ऐसे रोएंदार प्रागऐतिहासिक हाथियों के शव भी मिले, अब तक के चिरतुषार ने जिन्हें सड़ने-गलने से बचाए रखा था।
 
जलवायु परिवर्तन और तापमानवर्धन की ही बलिहारी है कि यूरोपीय देशों की ऐसी बड़ी-बड़ी प्राकृतिक और मानव निर्मित झीलें भी अब सूखने-सिकुड़ने लगी हैं जिनके बारे में सोचा जाता था कि 'हम रहें या न रहें, उनका पानी हमेशा रहेगा।'
 
विज्ञान पत्रिका 'साइंस' में प्रकाशित एक अध्ययन का कहना है कि पिछले केवल 3 दशकों में दुनिया की बड़ी-बड़ी झीलों का पानी चिंताजनक ढंग से कम हुआ है। 1990 वाले दशक के आरंभ में पूरी दुनिया की इन प्राकृतिक झीलों या बांधों के बनने से बनी कृत्रिम झीलों में जितना पानी जमा था, उसकी तुलना में अब केवल आधा पानी ही बचा है। झीलों का पानी घटने के लिए मुख्यत: बढ़ते हुए वैश्विक तापमान और मानवीय गतिविधियों को ही ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है।
 
एक बड़ा कारण हम भी हैं : अध्ययन के लेखकों का कहना है कि पृथ्वी की ऊपरी सतह के उस क्षेत्रफल की तुलना में जो सागरों-महासागरों से ढंका हुआ नहीं है, कृत्रिम और प्राकृतिक झीलों द्वारा ढंकी जगहों का क्षेत्रफल हालांकि केवल 3 प्रतिशत के बराबर ही है, पर उनमें संचित पानी 87 प्रतिशत पेयजल के बराबर है। इस मीठे पानी का उपयोग हम पीने के लिए ही नहीं, खेती-किसानी के लिए और बिजली बनाने तथा दूसरे कई कामों के लिए भी करते हैं यानी झीलों का पानी घटने का एक बड़ा कारण हम और हमारी गतिविधियां भी हैं।
 
'साइंस' में प्रकाशित अध्ययन के लेखकों ने अपने अध्ययन के लिए पूरी पृथ्वी पर फैली बड़े आकार की लगभग 2,000 प्राकृतिक और कृत्रिम झीलों में जमा पानी पर, जो कुल मिलाकर 90 प्रतिशत पेयजल के बराबर है, अपना ध्यान केंद्रित किया। इन झीलों में कब कितना पानी जमा था, इसे जानने के लिए उन्होंने 2,50,000 ऐसे चित्रों और उनसे जुड़े आंकड़ों का उपयोग किया जिन्हें पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे मानवीय उपग्रहों (सैटेलाइटों) ने 1992 से 2020 तक भेजे थे।
 
3 दशकों में पेयजल आधा हो गया : इस अध्ययन से सामने आया कि इन 28 वर्षों के दौरान मीठे पानी की पूरी दुनिया की सभी बड़ी झीलों का पानी 53 प्रतिशत घट गया था। घटे हुए पानी का वज़न 22 गीगा टन यानी 22 अरब टन के बराबर था। पूरे अमेरिका में वर्ष 2015 के दौरान जितना पानी ख़र्च हुआ, 22 अरब टन ठीक उसी के बराबर है। दूसरे शब्दों में दुनियाभर की मीठे पानी की बड़ी झीलों में 28 वर्षों में जितना पानी घटा, अमेरिका में केवल 1 वर्ष में उतना पानी ख़र्च कर दिया जाता है। यह भी एक उदाहरण है कि पानी की तंगी के लिए दोषी कौन है। जो पूरी दुनिया में सबसे अधिक पेयजल खपाता है, वहीं दुनिया के साधन स्रोतों को भी सबसे अधिक घटाता है।
 
एक दूसरा तथ्य यह भी सामने आया कि झीलों का पानी दुनिया के शुष्क क्षेत्रों में ही नहीं, नमी वाले क्षेत्रों में भी घट रहा है। नदियों के रास्ते में बने बांधों से जो झीलें बनी हैं, उनका पानी तो पिछले 3 दशकों में दो-तिहाई घट गया है। इसका मुख्य करण रेत, मिट्टी और कंकर-पत्थर के रूप में वह निक्षेप है, जो नदियों के पानी के साथ बहकर आता है और बांध की तलहटी में जमा होता जाता है। इस निक्षेप से घिरी जगह जितनी अधिक होगी, बांध से बनी झील की जलधारण क्षमता उतनी कम होती जाएगी। आशंका है कि निक्षेपों के कारण दुनियाभर के बांधों वाली झीलों की जलधारण क्षमता 2050 आने तक उनकी मूल क्षमता के एक-चौथाई के बराबर घट जाएगी।
 
कुछ अपवाद भी हैं : सौभाग्य से इस समस्या के कुछ अपवाद भी हैं। तीन-चौथाई झीलों में पानी घट रहा है, जबकि एक-चौथाई में बढ़ता हुआ भी पाया गया है। किंतु ऐसी झीलें दुनिया के उन क्षेत्रों में हैं, जहां जनसंख्या का घनत्व बहुत कम है। तिब्बत के भीतरी पठारी इलाके और अमेरिका के 'द ग्रेट प्लेन्स' इलाके, चीन की यांगत्से नदी वाले इलाके और दक्षिण-पूर्व एशिया के 6 देशों से होकर बहने वाली मेकांग नदी के तटवर्ती वाले इलाके और इसी प्रकार अफ्रीका की नील नदी वाले इलाके में बने बांधों से जो झीलें अस्तित्व में आई हैं, उनको इन अपवादों में गिना जा रहा है। हालांकि अब इन नदियों का पानी कम हो रहा है।
 
'साइंस' में प्रकाशित अध्ययन के लेखकों का कहना है कि उनके इस अध्ययन को यथास्थिति का वर्णन मानकर ही संतोष न कर लिया जाए। सोचा जाए कि यदि मनुष्य भी झीलों में पानी घटने का एक प्रमुख कारक है, तो ऐसी कौन-सी रणनीतियां हो सकती हैं जिनकी सहायता से मनुष्य के हानिकारक कार्यकलापों को रोका या सीमित किया जा सकता है।
 
बड़ी-बड़ी झीलों का पानी केवल पीने, सींचने और बिजली बनाने की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं है, अपितु उसका जलवायु और पर्यावरण की रक्षा और हमारे अपने जीवन के बने रहने से जुड़ा एक ऐसा पक्ष भी है जिसकी उपेक्षा आत्मघाती सिद्ध हो सकती है।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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