ट्रिलियन की रेस में शाहजहानी जरीब, लेजर लिडार और उसके आगे की संभावनाएं

मंगलवार, 24 मई 2022 (00:56 IST)
जैसा की सर्वविदित है की वर्तमान में ट्रिलियन की रेस चल रही है। और इस ट्रिलियन की रेस में राजस्व विभागों में शाहजहानी जरीब या गन्ट्री जरीब उपयोग होती है जो कि नीचे जंजीर जैसी दिख रही है और अब तहसीलों में टोटल स्टेशन आने वाले हैं जो कि लाइका के अच्छे होते हैं और आजकल गाइगर मोड लेजर लिडार (राडार) के बहुत चर्चे हैं जो कि कुछ ऐसे दिखते हैं। 
अगर इस तकनीक को समझना है दूसरे विश्वयुद्ध तक जाना होगा। युद्ध को परमाणु बम ने खत्म किया था लेकिन इसको जिताया राडारों ने था। 100 से ज्यादा तरह के राडार विकसित हुए थे। हवाई जहाज पर रखे राडार, टैंक पर रखे राडार, समुद्री जहाज पर रखे राडार, पनडुब्बी पर रखे राडार, सैनिक के कंधे पर रखे राडार, बंदूक के ऊपर लगे लेजर रेंज फ़ाइंडर, हाथ में लेजर वाली दूरबीन और उपग्रहों पर लगे राडार। उन राडारों में कोई न कोई विद्युत चुंबकीय तरंग ही होगी, चाहे रेडियो तरंग हो माइक्रो तरंग हो या लाइट तरंग या फिर एक्सरे तरंग लेकिन राडार सिर्फ विद्युत चुंबकीय तरंग फेकता है और लेता है। और समय के अंतराल और उस लहर की गुणवत्ता के आधार पर पूरी लोकेशन निकालता है।

इसका परिचालन समझना हो तो यह सोचिए की लाइट की किरण 1 नैनो सेकंड में बस 1 फुट तक चलती है तो अगर इस किरण को हमारे पास वापिस आने में 200 नैनो सेकंड लगे तो सामने वाला शीशा लगभग 100 फीट दूर रखा है। यही साधारण तकनीक बदते बदते चंद्रमा के लिए, मंगल के लिए, समुद्र के लिए, जंगलों के लिए लिडार के द्वारा उपयोग होती गई । लेकिन जिला स्तर पर  इस तकनीक का उपयोग गरीबों के लिए होना अभी बाकी है। 
 
हम लोग वर्तमान में मध्यकालीन तकनीक उपयोग कर रहे हैं। शहंशाह शाहजहां के काल से अब तक चेन सर्वे होते थे। सुना है  आजकल टोटल स्टेशन से और जीपीएस से होने वाले हैं लेकिन लेजर सर्वे की बात ही कुछ और है। इनकी इतनी ज्यादा क्षमता है और इनको कही भी रख सकते हैं, कार पर, ड्रोन पर, हेलीकाप्टर पर, हवाई जहाज पर और उपग्रह पर। लिडार की डिज़ाइन भी आजकल लगातार तरक्की करती जा रही है। कहां पहले 400 एकड़ प्रतिदिन सर्वे कर सकते थे और कहां आज 9,70,000 एकड़ प्रतिदिन कर सकते हैं। पूरे भारत के क्षेत्रफल लगभग 81.2 करोड़ एकड़ है अगर सारे भारत को 10 गाइगर मोड लिडार से कैडेस्ट्रल सर्वे करवाएं तो सिर्फ 84 दिन लगेंगे, या फिर अगर लिडार की संख्या को 20 किया जाए तो फिर कैडेस्ट्रल सर्वे में 41 दिन लगना चाहिए। एक बार इन लिडारों कि क्षमता की एक तस्वीर देखना उचित रहेगा जो कि ऐसी दिखती है।
कई विकसित देशों ने तो अपना स्वयं का राष्ट्रीय लिडार डाटासेट भी बना लिया है जैसे कि कनाडा, डेनमार्क, एस्टोनिया, फिनलैंड, लातविया, नीदरलैंड, पोलैंड, स्लोवेनिया, स्पेन, स्वीडन, स्विट्ज़रलैंड, यूएसए, इंग्लैंड और न्यूज़ीलैंड। इस नजर से देखा जाए तो लिडार एक बेहतरीन उपकरण है जो की विकसित देशों में उपयोग हो रहा है और इसकी तकनीक बहुत तेजी से बदल भी रही है। एक बार आईएसआरओ में पूछना चाहिए उनके एलईओएस केंद्र के माध्यम से क्या लिडार की तकनीकी का स्वदेशीकरण किया जा सकता है?
 
लिडार तो सिर्फ डाटा एक्सट्रैकसन तकनीकी है, इसके साथ साथ अगर ज़मीनों को और व्यवस्थित करना है तो इसमें भूमि प्रशासन डोमेन मॉडल (एलएडीएम) को भी सम्मिलित करने को सोचा जा सकता है जो सात वर्षों से आईएसओ 19152 मानक है। इसे दुनिया भर में भूमि प्रशासन प्रणाली की जरूरतों को पूरा करने के लिए एलएडीएम का लाभ उठाने के लिए मानक किया गया है। इसमें वैश्विक स्टार पर ओपन जियोस्पेशियल कंसोर्टियम (ओजीसी) ने भूमि प्रशासन पर काफी कार्य किया है, जिसमें निम्न लोग सम्मिलित है 
शहरीकरण, बुनियादी ढांचे की बढ़ती जटिलता और घने निर्मित क्षेत्रों के लिए कानूनी स्थिति के बेहतर रिकॉर्ड और पंजीकरण के लिए सुपर कम्प्युटर आधारित व्यवस्था की जरूरत है । लिडार से 3डी कैडैस्टर, इनडोर मॉडलिंग और इससे संबंधित सॉफ्टवेयरों से ऑटोमैटिक एक्सट्रैकसन भी संभव है जिससे की जिला स्तर पर कानून व्यवस्था और जमीन व्यवस्था का और मजबूत होना संभव है। और आजकल जब गूगल और उबेर जैसी व्यावसायिक कंपनियां अपनी सेल्फ ड्राइविंग कारों में लेजर सेंसर और लेजर लिडार लगा सकती हैं तो क्या हम सरकारी भूमि, शहरी भूमि, औद्योगिक भूमि, गरीबों की भूमि और किसानों की भूमि के लिए लेजर लिडारों का उपयोग नहीं कर सकते?
 
अगर हमें ट्रिलियन अर्थव्यवस्था की तीव्र अर्थव्यवस्थातमक गतिविधि चाहिए तो हमें सिविल क्षेत्रों में सबसे विकसित तकनीकों का प्रयोग करना चाहिए जो की भूमि के क्षेत्र में लिडार और उससे संबंधित सॉफ्टवेयरों से संभव है।

(ये लेखक के स्वयं के विचार हैं । लेखक भारतीय राजस्व सेवा में अतिरिक्त आयकर आयुक्त के पद पर वाराणसी में नियुक्त हैं और मूलत: बुंदेलखंड के छतरपुर जिले के निवासी हैं। इन्होंने लगभग 8 वर्ष इसरो में वैज्ञानिक के तौर पर प्रमुखतया उपग्रह केंद्र बेंगलुरु में कार्य किया जिसमें अहमदाबाद, त्रिवेंद्रम, तिरुपति जिले की श्रीहरिकोटा एवं इसराइल के वैज्ञानिकों के साथ भी कार्य किया।)

 

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