ईरान के रास्ते मध्य-पूर्व में उदारवाद की सुखद बयार

किसी भी राष्ट्र के इतिहास में विचारधाराएं घड़ी के पेंडुलम की भांति दोलन करती हैं, क्योंकि राष्ट्र का मानस कभी भी किसी एक स्थिति से समझौता नहीं करता। मनुष्य को परिवर्तन चाहिए। चुनौतियों का सामना करना उसकी फितरत है जिनसे नए अवसर जन्म लेते हैं और प्रतिस्पर्धा का वातावरण बनता है। यदि कुछ वर्षों तक यथास्थिति ही चलती रहे तो चुनौतियां के साथ अवसर भी समाप्त होने लगते हैं और विकास का मार्ग भी अवरुद्ध हो जाता है।
 
विश्व ने घोर वामपंथ से लेकर घोर दक्षिणपंथ तक सभी विचारधाराओं को आजमाया है। इन चरम छोरों के बीच विश्व ने वामपंथ, समाजवाद, प्रजातंत्र, दक्षिणपंथ, राजशाही, धार्मिक कट्टरवाद और अधिनायकवाद जैसे अनेक स्टेशन भी देखे हैं। कौन-सा राष्ट्र किस विचारधारा को कब आत्मसात कर लेगा और कब त्याग देगा, बड़ा जटिल और अनिश्चित प्रश्न है।
 
ईरान को ही देखिए। शाह के समय तक वह एक पश्चिमपरस्त राष्ट्र था किंतु इस्लामिक क्रांति ने आधुनिकीकरण की ओर बढ़ते ईरान को रातोरात कट्टरपंथ में धकेल दिया था। 35 वर्षों से अधिक समय तक धार्मिक कट्टरवाद को भोगते नागरिकों ने वोटों के माध्यम से पुनः पेंडुलम की दिशा बदलते हुए कट्टरपंथियों पर लगाम कस दी है।
 
दो वर्षों पूर्व हुए राष्ट्रपति चुनावों के परिणामों पर टिप्पणी देते हुए मैंने इसी कॉलम में एक आलेख लिखा था- 'स्वागतयोग्य है ईरान में हुआ सत्ता परिवर्तन'। तब ईरान की जनता ने राष्ट्रपति पद के चुनाव में मध्यमार्गी नेता हसन रूहानी को भारी बहुमत से विजयी बनाया था। ईरान के शाह के विरुद्ध हुई इस्लामिक क्रांति में रूहानी की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। ये देश की राजनीति में दीर्घकाल तक तपे एवं मंजे मध्यमार्गी राजनेता हैं। 3 अगस्त 2014 को हसन रूहानी ने राष्ट्रपति के रूप में अपना पदभार ग्रहण किया था।
 
ईरान की अपनी एक अलग ही शासन व्यवस्था है, जहां राष्ट्रपति से भी ऊंचा ओहदा सर्वोच्च धार्मिक नेता का होता है। यद्यपि ईरान में राष्ट्रपति के चुनाव जनता सीधे करती है किंतु राष्ट्रपति को बहुत ही सीमित अधिकार प्राप्त हैं। अधिकांश महत्वपूर्ण विभाग ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता के अधीन हैं जिनमें सेना, गृह, विदेश और न्यायतंत्र संबंधी विभाग शामिल हैं। शाह के विरुद्ध इस्लामिक क्रांति के बाद सत्ता कट्टरपंथियों के हाथों में चली गई थी। उसके बाद से ही राष्ट्र में पश्चिमी सभ्यता और राष्ट्रों के विरुद्ध द्वेष का माहौल बना दिया गया था।
 
रूहानी के आने के बाद से परिस्थितियां बदलनी आरंभ हुईं। पश्चिमी देशों के साथ वर्षों से लटके पड़े परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर हुए। ईरान पर चले आ रहे आर्थिक और तकनीकी प्रतिबंध समाप्त हुए। रूहानी की इस सफलता से ईरान के नागरिकों को बड़ी राहत मिली किंतु रूहानी सरकार के निर्णयों पर कट्टरपंथियों का निरंतर विरोध रहा।
 
रूहानी के लिए रूढ़िवादियों के बीच रास्ता बनाना हर कदम पर एक चुनौती था। पिछले सप्ताह ईरान में संसद और मजलिस के लिए हुए आम चुनाओं के परिणाम घोषित हुए। विश्व की निगाहें इन चुनावों पर थीं, क्योंकि विश्व जानना चाहता था कि इन चुनावों में रूहानी की स्थिति मजबूत होगी या पुन: कट्टरपंथी संसद और मजलिस में चुनकर वापस आ जाएंगे और अपना बहुमत बना लेंगे? 
 
ईरान में सरकार चुनने की प्रक्रिया अत्यधिक जटिल है। मजलिस वह संसद है, जो सर्वोच्च नेता का चुनाव करती है। ईरान में एक पार्टी तंत्र होने से विपक्षी दल नहीं है और चुनावों से पहले संसद में रूढ़िवादी कट्टरपंथियों का बोलबाला है था, परंतु इन चुनावों में सुधारवादी और नरमपंथी जीत गए हैं। निश्चित ही इन परिणामों से रूहानी को संबल और शक्ति मिलेगी। यद्यपि जैसा पहले कहा गया कि सत्ता पर अधिकार सर्वोच्च नेता का होता है अतः रातोरात ईरान के चरित्र में बदलाव होने की उम्मीद नहीं है।
 
इस जीत को भारत के परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारत के संबंध सुधारवादियों से सदैव अच्छे रहे हैं। रूहानी से पहले अहमदीनेजाद राष्ट्रपति थे, जो कट्टरपंथी थे। उस समय भारत-ईरान के रिश्तों में गर्माहट कम होने लगी थी किंतु उससे पहले जब रफसंजानी थे, तब भारत की मित्रता ईरान से गहरी थी। 
 
अब रूहानी के आने से भारत के साथ रिश्तों में फिर से गर्माहट आने लगी है इसीलिए भारत को चाबहार पोर्ट बनाने का कॉन्ट्रैक्ट भी मिल चुका है और पिछले सप्ताह भारत के मंत्रिमंडल ने इस पोर्ट को पूरा करने के लिए 150 मिलियन डॉलर (1050 करोड़) की राशि भी स्वीकृत कर दी है। यह पोर्ट भारत के लिए अफगानिस्तान और मध्य-पूर्व के देशों को जोड़ने का काम करेगा। अभी तक भारत, अफगानिस्तान की सहायता के लिए पाकिस्तान पर निर्भर था, जहां से सहयोग की उम्मीद नहीं है।
 
सुधारवादियों की जीत के बाद मध्य-पूर्व की राजनीति में एक सुखद मोड़ आने की संभावना है। रूहानी घरेलू राजनीति में सफल होते दिख रहे हैं किंतु अभी उन्हें पड़ोसी राष्ट्रों के साथ संबंध सुधारने की जरूरत है, विशेषकर सऊदी अरब से। दोनों देशों के कट्टरपंथी आमने-सामने खड़े हैं और यही कारण है कि आज मध्य-पूर्व के हालातों में अपेक्षा के अनुरूप सुधार नहीं हो पा रहा। 
 
आशा है कि जब रूहानी को कट्टरपंथियों से निजात मिलेगी तो वे इस दिशा में भी कामयाब होंगे, क्योंकि आने वाले दिनों में ईरान, मध्य-पूर्व में शांति के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। पश्चिमी देशों से तो संबंधों में सुधार होने की शुरुआत तो हो चुकी है। ईरान की जनता ने जिस तरह कट्टरपंथियों को विकास के मार्ग से हटाया है, निश्चित ही वह बधाई की हकदार है। 
 

वेबदुनिया पर पढ़ें