आइसिस युद्ध में फंसता जर्मनी

अनवर जमाल अशरफ

शनिवार, 28 नवंबर 2015 (12:40 IST)
पेरिस पर आतंकवादी हमलों के बाद जब फ्रांस अपने पक्के दोस्तों की तलाश कर रहा था, तो उसे सबसे भरोसेमंद जर्मनी ही नजर आया। उसने चांसलर मैर्केल से सैनिक मदद की मांग की, जिसे पूरा करने में जर्मनी की राजनैतिक जमीन हिलती नजर आ रही है।
यूरोपीय संघ भले ही 25 से अधिक देशों का संघ है, लेकिन उसके सबसे मजबूत सदस्य फ्रांस और जर्मनी हैं। दोनों हर मौके पर एक दूसरे की मदद के लिए तैयार रहते हैं। पेरिस पर आतंकवादी हमले के बाद फ्रांस ने जर्मनी से 'कुछ और ज्यादा' मदद की मांग की, यानी सैनिक सहयोग।
 
चांसलर अंगेला मैर्केल ने राजनीतिक जुआ खेलते हुए सीरिया में टोही विमान और युद्धपोत भेजने का फैसला किया है, जो वहां आइसिस से लड़ रहे फ्रांसीसी सेना की मदद करेंगे। इसके अलावा 650 सैनिक अफ्रीकी देश माली जाएंगे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह तीसरा मौका होगा, जब जर्मन सेना विदेशों में तैनात होगी। इसके लिए जर्मन संसद से रजामंदी लेनी होगी, जिसमें चांसलर के सामने मुश्किल खड़ी हो सकती है। देश की आम जनता सैनिक मदद के खिलाफ मानी जाती है। उन्हें इस बात का खतरा है कि सैनिक भागीदारी के बाद जर्मनी भी आइसिस के निशाने पर आ सकता है।
 
नाजी काल के दुर्दांत इतिहास की वजह से जर्मनी ने फैसला किया था कि वह युद्ध से दूर रहेगा। जर्मन संविधान में लिखा है कि जब तक जर्मनी पर हमला न हो, वह युद्ध का रास्ता नहीं अपनाएगा। इतना ही नहीं, इस बात का फैसला भी संसद के दोनों सदन मिल कर करेंगे कि क्या वाकई जर्मनी पर हमला हुआ है या नहीं। अपनी इसी प्रतिबद्धता की वजह से जर्मनी को पिछले दशक में अमेरिका की नाराजगी झेलनी पड़ी थी, जब वह इराक पर हमले के वक्त जर्मनी से मदद मांग रहा था, जिसे जर्मनी ने नकार दिया था।
 
जर्मनी ने घोषित तौर पर अब तक सिर्फ दो बार अपनी सेनाओं को बाहर भेजा है। पहली बार 1990 के दशक में कोसोवो में करीब 850 जवान, शांति सैनिकों के तौर पर और पिछले दशक करीब 4500 सैनिक, अफगानिस्तान। युद्ध के लिए नहीं, बल्कि पश्चिमी सेना को निगरानी और अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण के लिए। हालांकि युद्ध में उसकी भागीदारी उस वक्त सामने आई, जब उसके आदेश पर 2009 में कुंदूस में हवाई हमला किया गया, जिसमें 90 से ज्यादा शहरी मारे गए। इस पर जर्मनी और अफगानिस्तान में भारी बवाल मचा और आखिरकार मरने वालों के परिवारों को भारी भरकम मुआवजा देना पड़ा।
 
तकनीकी तौर पर जर्मनी ने इस बार भी ख्याल रखा है कि वह युद्ध में शामिल न हो। लिहाजा उसके सैनिक सीरिया नहीं, बल्कि माली जा रहे हैं। वहां फ्रांसीसी सेना तीन साल से तैनात है और जर्मन सैनिकों के आने के बाद वे सीरिया का रुख कर सकेंगे। इसके अलावा जर्मनी ने तय किया है कि इराक में कुर्दों को ट्रेनिंग दे रहे जर्मन सैनिकों की संख्या बढ़ा कर 150 कर देगा। पिछले साल ही जर्मनी ने कुर्दों के लिए सैनिक ट्रेनर और हथियार भेजने का फैसला किया था। वैसे परोक्ष रूप से जर्मन सेना लाइबेरिया, माली, तुर्की, सूडान, दक्षिण सूडान, सोमालिया और सहारा मरुस्थल में भी तैनात है।
 
इस फैसले के लिए मैर्केल को संसद से रजामंदी लेनी होगी और वामपंथी पार्टियों के रुख को देखते हुए वहां इस पर हंगामे के आसार हैं। अपनी शरणार्थी नीति की वजह से मैर्केल पहले ही अलोकप्रियता की कगार पर हैं। जर्मन नागरिक इस मुद्दे पर बंटे हुए हैं। अब फ्रांस को सैनिक मदद देना उनकी राजनीतिक जीवन के लिए खतरे की घंटी साबित हो सकती है।

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