जर्मनी में हुआ गांधी का अपमान

भारत में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर कीचड़ उछाले जाने के बाद अब विदेशों में भी उनके अपमान की लहर चल पड़ी है। इस क्रम की सबसे दुखद घटना है जर्मनी के हनोवर शहर में लगी महात्मा गांधी की वह प्रतिमा, जिसका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जर्मनी की अपनी यात्रा के समय गत 11 अप्रैल को अनावरण किया था।
 
जर्मनी के हनोवर शहर में हर वर्ष अप्रैल के महीने में विश्व का सबसे बड़ा औद्योगिक मेला लगता है। हर बार किसी देश को मेले का 'पार्टनर देश' बनाया जाता है। 2006 के बाद दस ही वर्षों के भीतर भारत को इस बार दुबारा 'पार्टनर देश' बनने का न्योता मिला था। 'पार्टनर देश' के नाते जर्मनी की चांसलर (प्रधानमंत्री) अंगेला मेर्कल के साथ मिलकर मेले का उद्घाटन करने और लगे हाथ जर्मन उद्योग जगत को 'मेक इन इंडिया' का न्योता देने के विचार से प्रधानमंत्री मोदी अपने पांच मंत्रियों, तीन राज्यों के मुख्यमंत्रियों और भारतीय उद्योग जगत के 130 प्रमुख प्रतिनिधियों के साथ स्वयं हनोवर में थे।   
   
मोदी की यह पहली औपचारिक यूरोप-यात्रा थी। फ्रांस में तीन दिन बिताने के बाद शनिवार, 11 अप्रैल को जब वे पेरिस से हनोवर पहुँचे, तो वहाँ सबसे पहले उन्होंने शहर के टाउन हॉल के पास के 10 हेक्टर बड़े 'माश-पार्क' में महात्मा गाँधी की प्रतिमा का अनावरण किया। गाँधीजी की यह आवक्ष प्रतिमा वास्तव में हनोवर शहर को भारत की एक सद्भावनापूर्ण भेंट थी। उसे मूलतः नगर के ऑपेरा भवन के सामने वाले प्रसिद्ध 'ऑपेरा चौक' पर स्थापित किया जाना था।
 
भद्दी बहस : लेकिन, स्थानीय नगरपालिका में इस बात को लेकर बहुत ही भद्दी बहस छिड़ गई कि क्या हनोवर में गाँधीजी की प्रतिमा होनी ज़रूरी है? क्या वे इसके लायक हैं और क्या उनकी प्रतिमा शहर के मुख्य चौक पर ही लगनी चाहिए? यह बहस चाहे जितनी बेतुकी लगे, जर्मन जनमानस में भारत की असली छवि की सही परिचायक थी।
   
हनोवर के ऑपेरा चौक पर गाँधीजी की प्रतिमा लगाने का प्रस्ताव दिसंबर 2014 में नगर की एसपीडी (सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी) ने रखा था। उसका कहना था कि भारत अप्रैल 2015 में हनोवर मेले का 'पार्टनर देश' होगा। इस बीच जर्मनी में विदेशी आप्रवासियों तथा शरणार्थियों के विरोध में जो दुर्भावनापूर्ण प्रदर्शन होने लगे हैं, उनके साथ हिंसा की जो घटनाएँ हो रही हैं, उन्हें देखते हुए सहिष्णुता एवं अहिंसा के इस तपस्वी की याद दिलाने से बेहतर और क्या हो सकता है। ''गॉधी नस्लवाद के विरुद्ध संघर्ष के सबसे करिशमाई उदाहरण हैं,'' इस प्रस्ताव को रखने वाले मिशाएल ज़ान्दो का कहना था। उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी चाहती है कि गांधीजी की प्रतिमा हनोवर के ऑपेरा हाउस के सामने वाले सबसे प्रसिद्ध चौक पर स्थापित की जाए।
 
लेकिन, नगरपालिका में जर्मनी की सबसे बड़ी पार्टी सीडीयू (क्रिश्चन डेमोक्रैटिक यूनियन) तथा किसी समय गाँधीजी के विचारों से प्रभावित रही पर्यावरणवादी 'ग्रीन पार्टी' सहित सभी विपक्षी पार्षदों को सबसे पहले तो हनोवर में गाँधीजी की कोई प्रतिमा लगाने पर ही भारी आपत्ति थी, भले ही 200 किलो भारी काँस्य प्रतिमा भारत सरकार की भेंट होती और वही उसे हनोवर पहुँचाने का ख़र्च भी वहन करती। उनका कहना था कि ऑपेरा चौक पर तो उनकी प्रतिमा कतई नहीं लग सकती।

महात्मा गाँधी 'कट्टर हिंदू' थे! : हफ्तों चली बहस में गांधीजी की प्रतिमा के विरोधियों ने ऐसे-ऐसे कुतर्क दिए, जिन्हें गांधी ही नहीं, उनके बहाने से भारत का भी अपमान कहा जा सकता है। विरोधियों को सबसे अधिक आपत्ति इस बात पर थी कि 'कट्टर हिंदू' होने के नाते गाँधीजी को ''नस्लवाद-विरोधी नहीं माना जा सकता।'' वे ''स्वयं नस्लवादी" थे, दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने ''केवल भारतीयों के साथ रंगभेद का विरोध किया था।'' कोई कहता कि गाँधी हिंदू थे अतः हिंदू धर्म में ''जाति-प्रथा के'' - जो कि नस्लवाद का ही एक रूप है - और ''महिलाओं के दमन के समर्थक'' थे, तो कोई कहता कि गांधी यदि ''शांतिवादी'' थे, तो शांतिवादी और भी बहुत से हुए हैं, हम गांधी की ही मूर्ति क्यों लगाएं?
 
इन लोगों का मत था कि हनोवर के ऑपेरा चौक पर केवल मार्टिन लूथर किंग, मदर टेरेज़ा या ईसा मसीह जैसे 'करिश्माई ईसाइयों' को ही स्थान मिल सकता है। दूसरे शब्दों में कहें, तो इसका अर्थ यही है कि वही गांधी यदि हिंदू धर्म त्याग कर ईसाई बन गए होते, तो वे भी हनोवर के ऑपेरा चौक पर जगह पाने के अधिकारी बन जाते। वे चाहे जितने महान रहे हों, क्योंकि वे हिंदू थे, इसलिए ईसाई धर्मी जर्मनी में यह सम्मान पाने के उपयुक्त नहीं हो सकते।
 
धर्मनिरपेक्ष जर्मनी में धर्म-शिक्षा : इन कुतर्कों को पचाने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि अपनी राज्यसत्ता को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले ईसाई धर्मी जर्मनी के सरकारी व ग़ौर-सरकारी सभी स्कूलों में पहली कक्षा से अंतिम कक्षा तक ईसाई धर्म की शिक्षा दी जाती है। धर्मशिक्षा की पुस्तकों में हिंदू धर्म के संदर्भ में प्रायः लिखा मिलता है कि ''महात्मा गांधी सबसे प्रसिद्ध हिंदू थे।'' जर्मन मीडिया की कृपा से यहाँ हिंदू धर्म को ही सबसे सड़ा-गला, गया-गुज़रा, दमनकारी और गाय-पूजक विचित्र धर्म माना जाता है। 
 
जर्मनी में ''कट्टर हिंदू राष्ट्रवादी'' कहलाने वाले मोदीजी ने शायद ध्यान नहीं दिया कि सात दशकों से जर्मनी में जिस पार्टी (सीडीयू) का लगभग सारे समय शासन रहा है, उसका नाम 'क्रिश्चियन' शब्द से अनायास ही नहीं शुरू होता। बहुत संभव है उन्हें पता नहीं था - या उन्होंने इस बात पर चुप रहना ही उचित समझा - कि उनकी सरकार की सप्रेम भेंट नगर के मुख्य चौक के बदले एक पार्क के एकांत में क्यों लगा दी गई है और उसे लेकर हनोवर की नगरपालिका और स्थानीय मीडिया में कुहराम क्यों मचा हुआ था।
 
''दो कारों लायक गैरज'' बन जाते : हनोवर के तंगदिल नगर-पार्षदों को इस बात से भी भारी कष्ट हो रहा था कि गांधीजी की प्रतिमा भारत की भेंट होते हुए भी उसकी सीमेंट-कंक्रीट की नींव और नींव पर रखे ग्रेनाइट पत्थर के आसन पर नगरपालिका को 30 हज़ार यूरो (1 यूरो=66 रुपए) ख़र्च करने पड़ गए। यह भी सुनने में आया कि इस पैसे से तो ''दो कारों लायक गैरज'' बन जाते (जर्मनी में 30 हज़ार यूरो में कोई मर्सेडीस कार तक नहीं मिलती), तो कुछ को बुरा लग रहा था कि 'मूर्ति की साफ़-साफ़ाई में दो हज़ार यूरो का वार्षिक ख़र्च आएगा।'
  
ग़नीमत है कि हनोवर की कंगाल नगरपालिका पर तरस खाकर पास ही के 'इंटरनेशनल स्कूल' ने घोषणा की है कि मूर्ति की देखरेख और साफ़-साफ़ाई उसके छात्र किया करेंगे। भारत के राष्ट्रपिता की इस छीछालेदर के बाद उचित तो यही होता कि भारत सरकार कहती कि हनोवर वालों को यदि गांधीजी की प्रतिमा से इतना कष्ट है, तो हम उसे भारत वापस मंगा लेते हैं। भविष्य में, कम से कम जर्मनी में, गांधीजी की कोई मूर्ति लगाने की बात हम कभी सोचेंगे भी नहीं।
 
हनोवर में जो हो-हल्ला हुआ, उसे जान जाने के बाद भारत को यह भी भलीभांति समझ लेना चाहिए कि जर्मनी सहित पूरा यूरोप जिस गांधी को उन के जीते जी नोबेल शांति-पुरस्कार के योग्य नहीं मान पाया, वह मरणोपरांत उनका सच्चा सम्मान भला क्या कर पाएगा। अतः यूरोपीय देशों में गांधीजी की मूर्तियां लगवाना उनका सम्मान नहीं, अपमान समझकर उससे परहेज़ करना ही बेहतर है।
 

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