कहीं उम्मीद जगाई तो कहीं मायूस किया

गुरुवार, 4 सितम्बर 2014 (11:47 IST)
-अनिल जैन
सौ दिन की अवधि किसी भी सरकार के कामकाज के मूल्यांकन करने के लिहाज से काफी कम होती है। इसलिए उचित तो यही है कि इसे किया ही नहीं जाना चाहिए। ऐसी सरकार के लिए तो सौ दिन बेहद ही कम होते हैं जिसका मुखिया राष्ट्रीय राजनीति में नया हो, जो पहली बार सांसद बना हो और जिसकी सरकार में बड़ी तादाद में ऐसे लोग हों जो पहली बार सांसद या मंत्री बने हों। लेकिन जैसे-जैसे जनता मे अपने अधिकारो के प्रति जागरूकता बढ़ी है, उसी हिसाब से उसकी राज्य यानी सरकार से ज्यादा गतिशील, कार्यक्षम और जवाबदेह होने की अपेक्षा भी बढ़ी है। उसके लिए यह बात ज्यादा मायने नहीं रखती कि सरकार में कितने लोग अनुभवी हैं और कितने नौसिखुआ।
 
चूंकि नरेंद्र मोदी इसी जागरूक जनता की नब्ज पकड़कर तथा उसमें तमाम अपेक्षाएं जगाकर बहुमत से सत्ता में आए हैं, लिहाजा वे खुद भी अपनी सरकार की बीतती अवधि के बारे में विभिन्न मंचों से लगातार आगाह करते रहते हैं। वे बार-बार यह भी जताते है कि वे अपने को जनता के स्मृति पटल पर ऐसी सरकार के मुखिया की छवि अंकित करना चाहते हैं, जो एक-एक दिन की अपनी जवाबदेही को लेकर सतर्क है। सरकार के सौ दिन पूरे होने पर कई मंत्रियों ने अपने-अपने महकमों से संबंधित रिपोर्ट कार्ड पेश कर दिए हैं। प्रधानमंत्री मोदी खुद भी अपनी जापान यात्रा से लौटने के बाद पांच सितंबर को अपनी सरकार का रिपोर्ट कार्ड पेश करने वाले हैं। तो जब सरकार खुद ही अपने सौ दिन के कामकाज का हिसाब-किताब जनता को दे रही हो तो मीडिया या तटस्थ समीक्षक भी क्यों न करें सरकार के कामकाज का आकलन और विपक्षी दल भी क्यों पीछे रहें सरकार से 100 दिनो का हिसाब मांगने में!
 
हालांकि नरेंद्र मोदी ने अपने चुनाव अभियान के दौरान जो वादे कर रहे थे उन्हें पूरा करने के लिए वे जनता से 60 महीने मांग रहे थे मगर जब वे बहुमत के साथ सत्ता में आ गए तो उन्होंने अपने विकास के एजेंडा को कार्यरूप में परिणत करने के लिए दस वर्ष का समय मांगना शुरू कर दिया। बहरहाल, इन सौ दिनों से इस सरकार के कामकाज का तरीका और स्वभाव काफी-कुछ समझा जा सकता है, हालांकि उसके कई फैसलों के परिणाम आने में वक्त लगेगा। 
 
मोदी सरकार के अभी तक के प्रदर्शन को देखें तो मिलीजुली तस्वीर उभरती है। उसके सौ दिनों के खाते कुछ बातें उत्साह जगाने और भविष्य के प्रति आश्वस्त करने वाली हैं तो कुछ विवादास्पद होते हुए सवालों के घेरे में हैं। अगर राजनीति और विचारधारा से प्रेरित प्रतिक्रियाओं से परे इन सौ दिनों की तटस्थ समीक्षा की जाए तो कहा जा सकता है कि जिन लोगों को मोदी से बहुत उम्मीदें थीं, वे उस हद तक पूरी नहीं हुईं और जिन्हें यह लग रहा था कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने से देश का बंटाढार हो जाएगा, वैसा भी नहीं हुआ। कहा जा सकता है कि मोदी ने अपने समर्थकों और आलोचकों, दोनों की भविष्यवाणियों को काफी हद तक झुठलाया है।
 
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद पर आने से पहले देश की अर्थव्यवस्था सुस्ती के दौर से गुजर रही थी, लेकिन मोदी सरकार के आने की आहट से ही देश का शेयर बाजार कुलांचे भरने लगा और तब से उसकी तेजी लगातार बनी हुई है। मौजूदा वित्तवर्ष की पहली तिमाही आर्थिक वृद्धि दर 5.7 फीसदी दर्ज की गई है, जो पहले जताई गई सामान्य उम्मीदों से भी कुछ अधिक है। आर्थिक विकास दर को पटरी पर लाने के अलावा प्रधानमंत्री जन धन योजना के तहत देश की समूची आबादी को बैंकिंग व्यवस्था से जोड़ने का अभियान भी सराहनीय है। लेकिन जहां तक महंगाई पर काबू पाने के वादे का सवाल है, सरकार अब तक इसमें नाकाम रही है। थोड़ी कमी दर्ज होने के बावजूद खुदरा महंगाई नौ फीसदी के ऊपर बनी हुई है। विदेशों में जमा कालेधन के मामले में भी सरकार ने विशेष जांच दल का गठन जरूर कर दिया लेकिन जांच के काम में प्रगति की कोई खबर नहीं है। प्रधानमंत्री ने योजना आयोग की विदाई का गीत तो एक झटके में सुना दिया लेकिन उसके विकल्प को लेकर न सिर्फ अनिश्चितता है बल्कि कुछ आशंकाएं भी हैं।
 
प्रधानमंत्री की सक्रियता और प्रशासनिक सुधार पर उनके जोर देने से लोगों में सकारात्मक संदेश गया है। बड़े फैसले करने की बजाय उनका ध्यान प्रशासन को चुस्त करने और लालफीताशाही कम करने में है, ताकि आर्थिक तरक्की के रास्ते में बाधाएं कम हों। भारतीय नौकरशाही के दुनिया भर में जाने-माने तौर-तरीकों और यथास्थिति से उसके मोह को तोड़ने की गंभीर कोशिश होती दिखाई दे रही है। लेकिन इसी के साथ जिस तरह सारी कार्यकारी शक्तियां प्रधानमंत्री कार्यालय में केंद्रित होती जा रही हैं वह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए शुभ संकेत नहीं है। कई वरिष्ठ मंत्री अपने निजी सचिव का चयन खुद नहीं कर सके। नगा समस्या पर वार्ताकार के लिए गृहमंत्री ने जिस नाम की सिफारिश की थी प्रधानमंत्री कार्यालय ने उसे खारिज कर दूसरा नाम तय कर दिया। सत्ता के इस अति केंद्रीयकरण पर सरकार के बाहर ही नहीं, सरकार और सत्तारूढ़ दल के भीतर भी सवाल उठने शुरू हो गए हैं।
 
चिंताएं भी कम नहीं... पढ़ें अगले पेज पर....
 
 

मोदी सरकार ने संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण के जरिए देश की संवैधानिक संस्थाओं का मान रखने का भरोसा दिलाया था, लेकिन कई राज्यपालों को मनमाने ढंग से हटाकर तथा एक पूर्व प्रधान न्यायाधीश को राज्यपाल पद की पेशकश कर उसने न सिर्फ राष्ट्रपति के आश्वासन के उलट काम किया बल्कि यह भी बता दिया कि कांग्रेस की तरह वह भी राजभवनों को अपनी पार्टी के थके-हारे और असुविधाजनक लगने वाले नेताओं की विश्राम स्थली से ज्यादा कुछ नहीं समझती है। इस सिलसिले में एक पूर्व प्रधान न्यायाधीश को राज्यपाल पद की पेशकश करना भी कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है। 
 
घरेलू मोर्चे पर यह भी कम चिंताजनक नहीं है कि मोदी सरकार के आने के बाद सांप्रदायिक तत्वों का हौसला बढ़ा है। पिछले तीन महीनों में देश में जितने सांप्रदायिक दंगे हुए हैं, उतने शायद ही पहले कभी हुए हों। हालांकि प्रधानमंत्री ने पंद्रह अगस्त को लाल किले से अपने संबोधन में कहा है कि अगर भारत को तेजी से विकास करना है तो दस साल तक लोग सांप्रदायिक और जातीय झगड़े भूल जाएं। प्रधानमंत्री के इस आव्हान की व्यापक सराहना भी हुई लेकिन देखा यह जा रहा है कि खुद प्रधानमंत्री की पार्टी और वैचारिक कुनबे के लोग ही सांप्रदायिक तनाव फैलाने और ध्रुवीकरण की कोशिशों में जुटे हुए हैं।
 
जहां तक विदेश नीति का सवाल है, इस मोर्चे पर प्रधानमंत्री मोदी ने इतने कम समय में जैसी सक्रियता दिखाई है वह अपूर्व है। इसकी धूमधाम भरी शुरुआत उनके शपथ ग्रहण समारोह से ही हो गई थी, जिसमें सार्क देशों और मॉरीशस के राष्ट्राध्यक्ष भी मौजूद थे। मोदी की भूटान और नेपाल यात्रा भी ऐतिहासिक रही। परमाणु करार न हो पाने के बावजूद उनकी जापान यात्रा भी सफल रही, जिससे दोनों देशों के द्विपक्षीय रिश्तों का एक नया दौर शुरू हुआ।
 
लेकिन, विदेश नीति के मोर्चे पर सब कुछ अच्छा ही रहा हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। पाकिस्तान के साथ होने वाली विदेश सचिव की स्तर की बातचीत को रद्द करने के फैसले से दोनों देशों के बीच रिश्तों में सुधार की कोशिशों को धक्का लगा है। मोदी सरकार यह फैसला उसकी पाकिस्तान संबंधी नीति की दिशाहीनता का ही सूचक है, क्योंकि एक ओर तो वह पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को भारत बुलाती है, उनसे शॉल और साड़ी का आदान-प्रदान होता है और दूसरी एक कमजोर बहाना बनाकर विदेश सचिवों की बैठक रद्द कर दी जाती है। चीन के मामले भी लगभग यही रवैया अपनाया गया। शुरू में मोदी ने चीन को अपनी विदेश नीति में सर्वोच्च प्राथमिकता देने की बात कही थी, लेकिन अब उन्हें चीन के विस्तारवाद पर सवाल उठाने की जरूरत महसूस हो रही है।
 
मोदी काफी सारी उम्मीदें जगाकर सत्ता मे आए थे, लेकिन चुनावी वायदों को सच मानना कोई समझदारी नही होती। तब भी यह साफ था कि मोदी के पास कोई जादुई छड़ी नहीं है और अब भी यही सच है। यह कहा जा सकता है कि इस सरकार में जो सक्रियता दिखाई दे रही है, उससे उम्मीद बंधती है, लेकिन लोग यह भी चाहेंगे कि सरकार जनता से ज्यादा संवाद करे, ज्यादा खुलापन और उदारता दिखाए। इस सरकार का असली इम्तिहान एक साल पूरा होने पर होगा, जब अर्थव्यवस्था, राजनीति और विदेश नीति में उसके उठाए जा रहे कदमों के नतीजे आ चुके होंगे।

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