ठाठ फकीरी की गठरी छोड़ उड़ गया समाजवादी हंस

उमेश चतुर्वेदी

मंगलवार, 7 मार्च 2017 (14:06 IST)
स्मरण : रवि रे
रवि रे का नाम पहली बार तब सुना था, जब 1989 के लोकसभा चुनावों में राजीव गांधी की 409 की ना भूतो ना भविष्यति सरीखी बहुमत वाली कांग्रेस पार्टी की हार हुई। बेशक तब भी कांग्रेस लोकसभा में 195 सीटें लेकर सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी थी, लेकिन 140 सीटों के साथ दूसरे स्थान पर रहे जनता दल के हाथ सत्ता की कमान आई। 86 सीटों के साथ भाजपा और 54 सांसदों के साथ वामपंथी खेमे ने जनता सरकार को समर्थन दिया, जिसके अगुआ विश्वनाथ प्रताप सिंह बने। उसी लोकसभा ने ओडिशा के कटक से चुनकर आए रवि रे को अपना अध्यक्ष चुना था। तब दूर-दराज के इलाकों में आधिकारिक और प्रबंधित ढंग से खबरें हासिल करने का जरिया बीबीसी की हिंदी सेवा थी।
 
चूंकि 1977 के बाद दूसरी बार अभूतपूर्व जैसे ही हालात में केंद्र में सत्ता परिवर्तन हुआ था, लिहाजा वह लोकसभा भी कुछ खास बन गई थी। ऐसी लोकसभा की जब भी बैठकें होतीं, रवि रे का नाम बीबीसी के जरिए हमारे जेहन तक जरूर पहुंचता। धुर देहात में रहकर पढ़ाई करते वक्त यह सोच आ भी नहीं सकती थी कि एक दिन ऐसा भी आएगा, जब रवि रे से मिलना होगा। लेकिन वह दिन एक नहीं, कई बार आया। पत्रकारिता ही ऐसा पेशा है, जो आपको ऐसी शख्सियतों से साधिकार, सविनय और सहज ढंग से मिलने का बार-बार स्पेस मुहैया करा सकता है। रवि रे से पिछली सदी की नब्बे के दशक में कई मुलाकातें हुईं। लेकिन तब तक वे राजनीति से संन्यास ले चुके थे। पहले वे सांसदों की रिहायश वाले नॉर्थ एवेन्यू के एक फ्लैट में रहा करते थे। बाद में उन्हें जब साहित्य अकादमी के पीछे रविशंकर शुक्ल लेन में फिरोजशाह रोड के बगल में फ्लैट आवंटित हुआ तो दिल्ली छोड़ने से पहले तक लगातार वहां वे रहते रहे।
 
रवि रे इस दुनिया में अब नहीं हैं। उनकी विद्वत्ता और समाजवाद को लेकर किए उनके संघर्ष के बारे में ढेरों जानकारियां हैं। उन्हें वे सब लोग कुशल राजनीतिक के तौर पर जानते हैं। लेकिन भारतीय राजनीति की जनोन्मुखी परंपरा और गांधी के अंतिम जन के दुख दूर करने की व्यावहारिकता की जिन्हें भी जानकारी होगी, उन्हें रवि रे की राजनीति भी समझ में आएगी। इसी राजनीति की एक सरणी सादगी के प्रतिमानों की तरफ बढ़ती है। दुर्भाग्यवश आज भी भारत की अच्छी-खासी जनसंख्या अभावों में जिंदगी गुजारने को अभिशप्त है, लेकिन भारतीय राजनीति इससे जुड़े सवालों से मुठभेड़ की बजाय उनसे जूझने का रस्म निभाती नजर आती है। गांधी ने अंतिम जन के समर्थ होने तक खुद की जिंदगी अंतिम जन की तरह सादा रखने का जो व्रत लिया था, उसी की वजह से भारतीय राजनीति में सादगी की सहज स्वीकार्यता बनी। गांधी की कांग्रेस हो या लोहिया-जयप्रकाश-पुरूषोत्तम दास टंडन की समाजवादी राजनीति या फिर दीनदयाल का जनसंघ, सबके राजनीतिक और सामाजिक दर्शन में सादगी को आत्मसात करने के पीछे यही प्रमुख वजह रही। रवि रे ने सादगी के इस व्रत का सदा पालन किया। 
 
पिछली सदी के नब्बे के दशक के आखिरी दिनों में उनसे मिलने की शुरुआत पत्रकारीय जरूरतों के चलते हुई, लेकिन बाद में उनकी सादगी ने श्रद्धाभाव भाव से भर दिया। उन दिनों जिस अखबार में काम करता था, उसकी तरफ से मैं समाजवादी पार्टियों की बीट कवर करता था। तब जनता परिवार की राजनीति को समझने का सूत्र जब भी सिरे से बाहर जाता, रवि रे की शरण ही काम आती थी। कई बार इसी यात्रा के क्रम में प्रोफेसर सत्यमित्र दुबे से परिचय हुआ। सत्यमित्र जी धुर समाजवादी होने के साथ ही रवि रे जी के दोस्त भी हैं। उनके साथ बाद के दिनों के रवि रे के घर खूब जाना हुआ।
 
समाजवादी दर्शन भले ही वही पुराना हो, लेकिन अब उसने चमक-दमक भरी जिंदगी को अपना लिया है। जिन लोगों का प्रशिक्षण मौजूदा समाजवादी दर्शन में हुआ है, उनकी अगर मुठभेड़ मधु लिमये और रवि रे से होती तो वे दोनों ही हस्तियां उन्हें निराश ही करती थीं। मधु लिमये के दिल्ली स्थित पंडारा रोड के फ्लैट की जमीन सिर्फ जूट और मूंज से बनी चटाईयां ही बिछी थीं। बैठने कुर्सियां या मोढ़े भी इन्हीं चीजों से बने थे। घर में फ्रिज तक नहीं था। घड़े में रखे पानी से आगंतुकों को अपनी प्यास बुझानी पड़ती थी।
 
जनता पार्टी का महासचिव रही शख्सियत, जिसने राजनीति को बदल कर रख दिया, वह अकेले अपने फ्लैट में रहती थी। आगंतुक को ही चाय बनाने और पीने-पिलाने की भूमिका निभानी पड़ती थी। रवि रे की भी जिंदगी भी कुछ ऐसी ही थी। उनसे बीसियों इंटरव्यू किए। जाड़े के दिनों में उनके शरीर पर खादी की बंडी, कोट आदि तो होते, लेकिन दिल्ली की उमस भरी गरमियों में फटी हुई बंडी पहने उन्हें बीसियों बार देखा। मोरारजी देसाई सरकार में मंत्री रहा व्यक्ति, जो लोकसभा का स्पीकर रहा, उसके पास सामान्य जिंदगी गुजारने के जरूरी संसाधन तक भी नहीं थे।
 
उनकी बंडियों से झांकते छेद उनकी गरीबी का कम, उनकी सादगी और इसके जरिए समाजवादी दर्शन की पारदर्शिता का संदेश देते थे। चूंकि गांधी आज भी भारतीय राजनीति को समझने का मानदंड बने हुए हैं, इसलिए उनकी दी हुई सादगी की सीख अब भी राजनीति को मापने का जरिया बनी हुई है। इसीलिए सादगी को बेचकर राजनीति भी चमकाई जाती है और उस राजनीति के जरिए सत्ता का शिखर तक छुआ जाता है। लेकिन जैसे ही सत्ता का शिखर हाथ लगता है, सादगी का वह दर्शन पीछे छूटता चला जाता है। लेकिन रवि रे इस सोच से इतर के व्यक्ति थे। उन्होंने रहन-सहन के साथ ही आचार-व्यवहार में सादगी को कभी नहीं छोड़ा। स्पीकर रह चुकने के बाद भी वे खुद ही फोन उठाते थे। उनकी जिंदगी में कहीं कोई बनाव नहीं था। 
 
रवि रे के ना रहने के बाद उनके घर की वे साप्ताहिक बैठकें भी याद आ रही हैं, जिनसे कुछ खबर हासिल करने के चक्कर में हम भी जाया करते थे। तब उनके यहां भावी राजनीति, समाजवादी दर्शन के जरिए तत्कालीन सरकार की नीतियों के विरोध आदि की तैयारियां होतीं, राजनीतिक चर्चाएं होतीं। वहां जुटने वाले लोगों को तब सिर्फ एक कप बेस्वाद सी चाय मिलती। कई बार उसमें दूध तक नहीं होता। सत्यमित्र दुबे जैसे लोग कई बार दूध मंगाते तो कई बार मजबूरी में नींबू। वह चाय जिन कपों में परोसी जाती, उनमें से कई के हैंडिल नहीं होते थे। राजनीति के शिखर तक पहुंची उसी शख्सियत के घर ऐसी सादगी और गरीबी मिल सकती थी, जिसने सचमुच समाजवाद को आत्मसात किया हो।
 
1989 में चुनी गई लोकसभा अपनी तरह से खास थी। भारतीय राजनीति में वाम और दक्षिण खेमे की राजनीति की परंपरा की जिन्हें भी जानकारी है, उन्हें पता है कि वाम और दक्षिण यानी कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ ही भारतीय जनता पार्टी के के समर्थन से चल रही विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार के लिए खुद को संतुलित रखने की कोशिश में कितनी ऊर्जा खपानी पड़ी। उसी दौर में रवि रे लोकसभा अध्यक्ष थे। जाहिर है, उनकी भी चुनौतियां कम नहीं थी। उनकी राजनीतिक सूझबूझ और उनका कौशल भी दांव पर था। लेकिन रवि रे उस दौर की चुनौतियों के साथ ही जनता की मूल समस्याओं से पूरी तरह वाकिफ थे।
 
लोहिया के समाजवादी चिंतनधारा और सानिध्य में उनका राजनीतिक प्रशिक्षण हुआ था, राजनीति और देश की समझने की दृष्टि उन्हें लोहिया से मिली थी, लिहाजा उन्हें उस दौर की लोकसभा की कार्यवाही को संतुलित ढंग से संचालित करने में उन्हें कभी कोई दिक्कत नहीं हुई। बाद में जब जनता दल का बंटवारा हुआ और चंद्रशेखर की अगुआई में विद्रोही धड़े ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई तो रवि रे ने दल-बदल निरोधक कानून के तहत चार सांसदों के खिलाफ कार्रवाई की और उनकी लोकसभा की सदस्यता को खारिज कर दिया। दल-बदल विरोधी कानून बनने के पांच साल बाद हुई यह कार्रवाई पहली थी और इसका श्रेय रवि रे को जाता है।
 
रवि रे ने अपने ही साथियों को कानून के मुताबिक आचरण ना करने के लिए बाहर का रास्ता दिखाने में हिचक नहीं दिखाई। आज जिस तरह समाजवाद राजनीति के दलदल में समाता नजर आ रहा है, ऐसी हिम्मत दिखाने की उम्मीद किसी दूसरे समाजवादी से नहीं की जा सकती। समाजवादी राजनीति की एक सीख यह भी रही है कि वह राजनीति और समाज के लिए नए प्रतिमान रचे। रवि रे संभवत: अब तक के आखिरी समाजवादी रहे, जिन्होंने अपनी यह भूमिका निभाने से गुरेज नहीं किया। अपनी ठाठ फकीरी से समझौता नहीं किया। काश कि भारतीय राजनीति के दूसरे समाजवादी सितारे भी ऐसी हिम्मत दिखा पाते।
 

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