खाने के बाद खप्पर फोड़ने वाला महा-ब्राह्मणवाद

एक नव-स्वतंत्र राष्ट्र में, कलाओं और साहित्य के मध्य, 'सांस्थानिकता' का, क्या और कैसा अंतर्ग्रथित संबंध हो, इसको लेकर नेहरू, आरंभ से ही अत्यंत सशंकित और सहज संकोच से भरे रहे। उन्हें, यह प्रस्ताव ही विचलित और उद्वेलित कर देता था कि कलाओं और साहित्य के संस्थानों के 'प्रबंधन' और 'संचालन' में, नौकरशाही के प्रवेश और वर्चस्व को भला कैसे अनुमति दी जा सकती है? क्योंकि, तब सत्ता के परिसर में, 'कल्चरल-ब्यूरोक्रेसी' जैसे सामासिक-पद को, इतनी स्वीकार्यता मिली ही नहीं थी कि वह 'सृजन-दृष्टि' के कोण से, वैध ठहराया जा सके। 
भारत में आजादी के बाद, साहित्य और कलाएं, सामंतयुगीन परंपरा में संरक्षित होती रहने के बाद, पूंजीवाद में अपना अभयदान ढूंढने और पाने में प्रयत्नशील थीं। तब नेहरू ने, साहित्य संगीत और ललित कलाओं के लिए, स्वायत्त-शासन वाली अकादमी और राष्ट्रीय नाट्‌य विद्यालय जैसी संस्थाओं को मूर्तरूप दिया और उसमें सत्ता या सरकार के किसी भी किस्म के हस्तक्षेप को दूर रखने के लिए, यह तय किया कि इसमें इन्हीं अनुशासनों की सर्वोत्कृष्ट प्रतिभाएं, 'प्रबंधन' और 'संचालन' का दायित्व निभाएं।
 
हालांकि, उनका वित्त-पोषण सरकार का दायित्व था। लेकिन, इससे उसकी स्वतंत्रता बाधित नहीं होगी। नेहरू, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री की तरह सोचते थे। एक बार चेम्बरलेन ने ऑक्सफोर्ड के दीक्षांत-समारोह को संबोधित करते हुए एक बात कही थी कि 'हमें ऑक्सफोर्ड ने, जो-जो और जैसा-जैसा कहा, हमने हमेशा ही उनके लिए वह किया, लेकिन हमने ऑक्सफोर्ड को, जो भी कभी कहा और उसने कभी वैसा कुछ नहीं किया- और, मुझे एक ब्रिटिशर की तरह, इन दोनों बातों पर गर्व है।' 
 
नेहरू भी सोचते थे कि देश के बुद्धिजीवी सत्ता से अपनी असहमति व्यक्त करने में भय अनुभव न करें और हमारी सत्ता भी, उनकी असहमति का यथेष्ठ सम्मान करे। नतीजतन, एक नव-स्वतंत्र राष्ट्र में, जिसे सभी स्तर पर 'आधुनिक' बनाने का स्वप्न, नेहरू की आंख में था, इन संस्थाओं ने एक अद्‌भुत उत्साह से भरकर अपनी सक्रियता प्रमाणित भी की। लेकिन, हम में अभी उतने वांछित जनतांत्रिक-संस्कार पैदा नहीं हुए थे कि ये संस्थाएं अपनी सुंदर आदर्शों वाली अवधारणा के अनुकूल, लंबे समय तक काम कर सकें। अतः ज्यादा समय और मेहनत नहीं लगी और ये संस्थाएं साहित्यकारों और 'कलाकारों' के बजाए, 'कलहकारों' से भर गईं। लगे हाथ महत्वाकांक्षाओं का महाभारत शुरू हो गया। 
 
पुरस्कारों, पदों और लाभों के पारस्परिक वितरण में, वही वानर-विधि, उसका अघोषित संविधान बन गई। कहने की जरूरत नहीं कि बावजूद इसके, ये अकादमियां कला, संगीत और साहित्य के, सांस ले सकने के लिए थोड़ी सी जगह तो बनाकर रख ही रही थीं। हालांकि, ये काफी हद तक, साहित्य, संगीत और कला के 'ललित-लाक्षागृह' का रूप तो धर ही चुकी थीं। 
 
ललित-कला अकादमी में तो निश्चय ही जनतंत्र नहीं था। वह तो कुछेक कलाकारों का 'जनपद' बन चुकी थी। जनपद, हमारे यहां पहले जागीरदारों के ही आधिपत्य में होते थे अतः यहां कला के नए जागीरदारों की जमात जम गई और बाद में, दिल्ली के एक इलाके, जो गढ़ी के नाम से जाना जाता है और जिसे महानगरी असुविधाओं से निजात दिलाने के लिए श्रीमती इंदिरा गांधी के कार्यकाल में, कलाकारों को काम करने के लिए स्टूडियो बनाए गए, उसमें कुछ भूमिगत-भूपतियों का वर्षों से ऐसा कब्जा बन गया कि समझ लीजिए, वे स्टूडियो, उन्हें काम करने के लिए आवंटित नहीं, बल्कि वह उनकी बिना रजिस्ट्री की मिल्कियत होकर रह गई। बस, कानूनन, रजिस्ट्री भर नहीं हुई। लेकिन, बावजूद इसके इस संस्था से, कलाकार बिरादरी का पूरी तरह विश्वास नहीं उठा। उसकी स्थिति ठीक वैसी ही थी कि थाने, अस्पताल और न्यायालयों की भरपेट आलोचना करते रहने के बावजूद हम, उसकी तरफ हमेशा ही एक बची हुई उम्मीद की तरह देखते भी हैं। 
 
आइए, अब हम आज के साहित्यिक बिरादरी के द्वारा व्यक्त किए जा रहे 'प्रतिरोध-प्रवाह' की इस घड़ी में देखें तो वहां टिक-टिक नहीं, धिक-धिक सुनाई दे रही है। एक बिरादराना थू-थू है। मीडिया के लिए तो ये 'पुरस्कार-वापसी', एक अच्छा कमाऊ प्रतिरोध-उत्सव है। इसके अतिरिक्त, अभी तक इस संस्था से, जो प्रतिष्ठा और पुरस्कारकांक्षी लेखक दुत्कारे जाते रहे थे, इस प्रतिरोध को देखकर, उनकी प्रसन्नता छुपाए नहीं छुप रही है। इसलिए, वे इस विरोध से संस्था में प्रतिष्ठा-भंग का आनंद लेते बरामद हो रहे हैं। वैसे, एक इमारत के बनने में, जितना समय लगता है, उसके धूल-धूसरित होने में एक क्षण की दूरी होती है। वैसे भी गिरती इमारतों के दृश्य को देखने का ग्राफ हमेशा ऊंचा ही रहता है, बनने का नहीं। इसलिए पुरस्कार लौटाने के प्रतिरोध के उत्साह या क्रोध में, उस संस्था के ध्वंस की भी तुष्टि मिली हुई है। 
 
कहना न होगा कि जो पुरस्कारशुदा हैं, उनमें पुरस्कार लौटाने की 'पात्रता' भी इसीलिए आ पाई कि वह उनके पास था। निश्चय ही, उसमें से कुछेक को, वह उसी वितरण की अच्छी-बुरी वानर-विधि के चलते ही मिला था। अतः खाली 'तेरा तुझको अर्पण' की तर्ज पर लौटा देने से विरोध का वलय नहीं बनता। इस प्रसंग में मुझे बचपन में पटाखे छुड़ाने की एक युक्ति याद आती है। पटाखा खुले में छोड़ने के बजाय उसे किसी बर्तन के भीतर रखकर छुड़ाने में, जो विस्फोट पैदा होता था, वह बहुत तीव्र होता था, उसमें कुछ कर डालने की उपलब्धि अनुभव होती थी।
 
अंत में, कुल मिलाकर इस सारे तह-ओ-बाल से, जो पहला प्रश्न उठता है, वह यह कि हम देश और समाज में घटती घटनाओं के विरोध के अतिरेक में जाकर, कहीं उस जगह को तो नष्ट नहीं कर डालेंगे, जो अभी तक कला या साहित्य के सहमतों और असहमतों के लिए पैर रखकर, खड़ी रहने की जगह रही है। यहां, मैं भारत-भवन को याद करना चाहता हूं, क्योंकि मैं उस संस्थान को भी, हमेशा इसी संभावना के रूप में ही देखता-परखता आया और कभी किसी आग्रह-दुराग्रह को सामने रखकर, उसकी अराजक ढंग से आलोचना नहीं की और न ही करने वालों के पक्ष ही में रहा। जबकि उसकी भूमिका को लेकर, उस पर बहुत आक्रामक होकर, हमारे वामपंथी मित्र लगातार आलोचना-भर्त्सना में हमेशा ही लगे रहे। हालत यहां तक रही कि उस परिसर में दिखाई देने वाला लेखक संदिग्ध चरित्र का माना जाने लगा। प्रतिरोध के इस शिल्प के चलते न कहो, भारत-भवन की तरह, शायद साहित्य अकादमी का परिसर भी ऐसा ही बन जाएगा, जहां घूमते आदमी को ऐसी संदिग्ध दृष्टि से देखा जाएगा, जैसे किसी सदाचारी को हम 'पिंजारवाड़ी' में दाखिल होते देख लें।
 
इसी वजह से भारत-भवन अब एक 'फूटी कोठी' है। हालांकि, वह 'कोठी' तो पहले भी थी, लेकिन वहां इसकी दीवारों पर, मेरे गांव के ठाकुरों की 'कोठी' की तरह, कुछ मुण्डियां सजी हुई थीं लेकिन यहां वे जिंदा थीं। साहित्य के शेरों की, चीतों की, लेकिन वहां से कोई दहाड़ सुनाई नहीं देती थी क्योंकि वे दाना-पानी में लगे रहते थे। भारत-भवन से, कभी किसी के डुंकरने की आवाज नहीं उठी। वहां तो कोरस ही था। एक ही मुख्य-स्वर को दोहराने वाला समूह। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि वहां का, वही मुख्य-स्वर, अब दिल्ली में 'प्रतिरोध' का स्वर बन गया है।
 
इसलिए, मैं सोचता हूं कि हम विरोध करें, लेकिन अपने विरोध से, उस संस्था को, 'फूटी कोठी' न बना दें, जहां मुक्तिबोध के अंधेरे के जुलूस के प्रेत, अपना डेरा बना लें। अगर ऐसा हुआ तो यह तो खाने के बाद खप्पर फोड़ने वाला महा-ब्राह्मणवाद कहलाएगा। कहना न होगा कि वह जगह, अंततः तो, नेहरू के 'कलाओं के लिए जनतंत्र बनाने-बसाने के स्वप्न' की जगह थी, क्योंकि, उसके न रहने के बाद, क्या हम किसी धनपशु के बाप के नाम से चलते पुरस्कारों और अनुदानों को अपने माथे पर मुकुट की तरह धारण कर घूमते बरामद होना चाहते हैं? 
 
भविष्य का दृश्य कुछ-कुछ ऐसा ही बनता दिख रहा है, क्योंकि आज तक लेखकों की कोई ऐसी कोई सहकारी और बड़ी सर्वमान्य संस्था नहीं बनी है, जो किसी लेखक के अवदान और उसकी प्रतिष्ठा का यथेष्ठ सम्मान करती हो। यहां तो सब के, अपने कुनबों के डेरे-डंडे हैं, जिनकी प्रतिबंधक शक्ति ऐसी है कि उनसे भिन्न या असहमत के लिए कोई जगह नहीं है।
 
यह ऐसे उपहास से भरा समय है कि मीडिया के माइक लिए घूमते लोग, अटाला खरीदने वाले की तरह, आगे आकर ऐसे पूछ रहे हैं कि, क्यों तुम्हारे वापस लौटा देने के लिए कोई पुरस्कार वगैरह है, कि बस ठन-ठन गोपाल-भर हो? मुझे उम्मीद है कि 'भारत-रत्न' प्राप्त, उन लोगों और उनके वंशजों को, जल्दी ही अपराधी घोषित कर दिया जाएगा, जिन्होंने अभी तक उसे लौटाने की घोषणा नहीं की है, क्योंकि वह सम्मान भी तो सरकारी ही माना जाता है।

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