'धर्मनिरपेक्ष मीडिया, नेताओं और बुद्धिजीवियों का मौन'

संदीप तिवारी

सोमवार, 11 जनवरी 2016 (14:20 IST)
बंगाल में मुस्लिम बहुल माल्दा और बिहार के पूर्णिया में ‍मुस्लिमों ने विरोध प्रदर्शन के दौरान जमकर उत्पात मचाया और कानून-व्यस्था की धज्जियां उड़ा दीं। पूर्णिया के बायसी थाने में तोड़फोड़ की गई, कई गाड़ियों के शीशे तोड़ डाले गए, वाहनों को आग के हवाले कर दिया गया। मालदा के बाद पूर्णिया में हिंसा क्यों भड़की, इस बात के जवाब में 'धर्मनिरपेक्ष' मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मौन साध लिया। जबकि घटना की मीडिया में रिपोर्ट बिहार में 'मंडल राज के पुरोधा' लालू प्रसाद को तो घटना के बारे में जानकारी ही नहीं है।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से जब हिंसा के बारे में पूछा गया तो उन्होंने पूरे मसले पर चुप्पी साध ली। वहीं, आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने घटना की जानकारी से ही इनकार कर दिया। विदित हो कि उप्र के एक कैबिनेट मंत्री आज़म खान ने आरएसएस के लोगों पर गलत टिप्पणी की थी। उसके जवाब में हिंदू महासभा के कार्यकारी अध्यक्ष कमलेश तिवारी ने बीते साल 2 दिसंबर को फेसबुक पर पैगंबर मोहम्मद साहब के खिलाफ कोई आपत्तिजनक टिप्पणी कर दी। उसी के विरोध में एक माह के बाद पहले मालदा में और अब बिहार के पूर्णिया में विरोध के नाम पर हिंसक प्रदर्शन किया गया।
 
जुलूस में शामिल भीड़ ने अचानक बायसी थाना में घुस कर तोड़फोड़ शुरू कर दी। भीड़ ने थाना के फर्नीचर, कंप्यूटर और परिसर में लगे चार वाहनों को क्षतिग्रस्त कर दिया। थाना में मौजूद पुलिस ने भाग कर अपनी जान बचाई। इस पूरे मामले पर बिहार के डीजीपी पीके ठाकुर ने कहा है कि कुछ रास्तों पर रैली निकालने की परमीशन दी गई थी, लेकिन भीड़ कैसे भड़की, इस मामले की जांच की जा रही है और यह जांच तभी हो सकेगी जब नीतीश कुमार-लालू प्रसाद के मुंह खुलेंगे। 
 
दादरी कांड पर आसमान सिर पर उठाने वाला मीडिया एकाएक 'धर्मनिरपेक्ष' हो गया और 3 जनवरी को मालदा में हुई हिंसा पर उसकी आवाज तक बंद हो गई। केवल जी न्यूज़ ने देश को मालदा के हालात के बारे में बताना जरूरी समझा। इसी मामले को लेकर देश के अन्य शहरों में हिंसक, अहिंसक प्रदर्शन हुए, लेकिन संबंधित राज्य सरकारों के इस तरह के विरोध प्रदर्शन की खबर को दबाने का काम किया।
 
इस मामले में अहम बात यह है कि हजारों से लेकर लाखों तक मुस्लिमों की भीड़ किसी भी शुक्रवार के दिन मस्जिदों से निकलती है और मनमाने तरीके से विरोध दर्ज कराने लगती है। पूर्णिया में गुरुवार को ऑल इंडिया इस्लामिक काउंसिल की अगुवाई में मुस्लिम समुदाय के करीब 30 हजार लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया। हजारों लोगों की भीड़ ने एक पुलिस थाने पर हमला कर दिया। थाने के अंदर तोड़फोड़ की। कंप्यूटर और फर्नीचर तोड़ डाला। पुलिस की गाड़ियों को भी नुकसान पहुंचाया और जब पुलिस ने उन्हें रोकने की कोशिश की तो भीड़ ने थाने पर पत्थरबाजी शुरू कर दी। इसके बाद इलाके में सुरक्षाबल तैनात करना पड़ा। पुलिस ने हिंसा की इस घटना में 200 अज्ञात लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की है। इसी तरह मालदा में अब दस लोगों के गिरफ्तार किए जाने की खबर है। 
 
पूर्णिया में हुई हिंसा मालदा की हिंसा का पार्ट-2 है। इसलिए पूर्णिया की हिंसा के बाद भी वही सवाल उठ रहे हैं जो मालदा की हिंसा के बाद उठे थे। सवाल यह है कि धार्मिक प्रदर्शन के नाम पर हिंसा फैलाने की अनुमति कब तक दी जाती रहेगी? वह कौन से लोग हैं जो धर्म के नाम पर हजारों-लाखों की भीड़ इकट्ठा करके हिंसा फैलाते हैं? विरोध जताने के नाम पर हजारों-लाखों की भीड़ द्वारा सड़कों पर उत्पात मचाना, तोड़फोड़ करना, आगज़नी करना और फिर अचानक गायब हो जाना। क्या ये काम बिना किसी साज़िश और प्लानिंग के बगैर संभव है? 
आखिर हजारों, लाखों लोगों की भीड़ को इकठ्ठा करने के लिए कौन से सूचना तंत्र का इस्तेमाल किया गया होगा? इतनी बड़ी संख्या में भीड़ आसानी से इकठ्ठी नहीं होती। यहां सवाल संबंधित राज्य सरकारों की व्यवस्था पर भी उठता है कि जब मालदा में इतनी बड़ी हिंसा हो गई तो फिर पूर्णिया में रैली निकालने की अनुमति क्या सोचकर दी गई थी? 
 
मालदा और पूर्णिया की हिंसा के बारे में जानकर मन में एक सवाल उठता है कि आखिर वे कौन सी वजहें हैं जिनसे भीड़ हिंसक हो जाती है और वह कौन लोग हैं जो भीड़ का इस्तेमाल अपने अनैतिक हित साधने के लिए करते हैं? हिंसक भीड़ के मनोविज्ञान से जुड़ी कुछ बातें अहम हैं। भीड़ या उन्मादी भीड़ का अपना कोई दिमाग नहीं होता। कुछ लोग मिलकर पूरी भीड़ की मानसिकता तय करते हैं।
 
भीड़ को उकसाने के लिए सिर्फ एक अफवाह उड़ाना ही काफी होता है। यानी भीड़ बिना सोचे समझे किसी भी अफवाह को सच मान सकती है। इस मामले में मोहम्मद के लिए अपमानजनक टिप्पणी, कुरान का अपमान या ऐसी ही कोई बात फैला दी जाती है। 

हर भीड़ में कुछ असामाजिक तत्व होते हैं जो भीड़ को गैरकानूनी रुख अपनाने और हिंसा फैलाने के लिए उकसाते हैं। खासतौर पर एक सम्प्रदाय विशेष की भीड़ में ज़्यादातर ऐसे युवा शामिल होते हैं जो सिस्टम को चुनौती देने के लिए हिंसा पर उतारू हो जाते हैं।
 
यह भी कहा जाता है कि जिन लोगों ने अपनी ज़िंदगी में कभी चींटी भी नहीं मारी होती है वो लोग भी भीड़ में शामिल होकर हिंसक हो जाते हैं और भीड़ में शामिल होकर तोड़फोड़, आगजनी और हत्या तक करने में नहीं हिचकते। यह कहना गलत न होगा कि भीड़ में शामिल हर इंसान वही करना चाहता है जो दूसरे लोग कर रहे होते हैं। भीड़ में शामिल होकर लोगों को लगता है कि जो अपराध वह अकेले नहीं कर सकते। वह भीड़ में शामिल होकर कर सकते हैं क्योंकि भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता।
 
तो ऐसे में क्या ये मान लिया जाए कि हिंसक प्रदर्शन अपनी जायज़ या नाजायज़ मांगों को मनवाने का सबसे बेहतर तरीका है? इस सवाल का जवाब है नहीं। अमेरिका की मशहूर स्ट्रेटेजिक प्लानर मारिया जे. स्टैफन ने एक किताब लिखी है जिसका शीर्षक है 'व्हाई सिविल रेजिस्टेंस वर्क्स'। इस किताब में दावा किया गया है कि अहिंसक प्रदर्शनों द्वारा अपनी मांगें मनवाने की संभावना 53 फीसदी होती है। इससे उलट हिंसक प्रदर्शनों के ज़रिए अपनी मांगें मनवाने की संभावना सिर्फ 23 फीसदी रह जाती है।
 
इस किताब में यह भी लिखा है कि हिंसक और अहिंसक प्रदर्शन में से किसके असफल होने की संभावना ज़्यादा होती है? जो प्रदर्शन शांतिपूर्वक किए जाते हैं उनके असफल होने की संभावना 20 फीसदी होती है। लेकिन हिंसक प्रदर्शनों के असफल होने की संभावना इससे कहीं अधिक 60 फीसदी होती है और अपनी बाते मनवाने के लिए शांतिपूर्वक तरीका ही सबसे अच्छा होता है। लेकिन ऐसे मामलों में सबसे अहम बात यह है कि भीड़ का तर्कों, विचारों से कोई लेना देना नहीं होता है, वह सिर्फ उपद्रव, हिंसा, आगजनी करना जानती है। भीड़ के दूषित मनोविज्ञान को सिर्फ राजनेता, धर्मगुरु ही नहीं पहचानते बल्कि अपराधी और असामाजिक तत्व भी जानते हैं और जब ज़रूरत पड़ती है भीड़ का इस्तेमाल अपने हित साधने के लिए कर लेते हैं। और फिर मालदा और पूर्णिया जिलों जैसी घटनाएं होती हैं?  में हुआ। 
 
सवाल ये है कि जब कमलेश तिवारी के खिलाफ कानून के अनुसार कार्रवाई हुई और उन्हें लखनऊ जेल में बंद करके रखा गया है, तब लगातार माहौल बिगाड़ने की ये कोशिश क्यों हो रही है और ये कर कौन रहा है? विदित हो कि 45 साल का कमलेश तिवारी, अखिल भारतीय हिंदू महासभा का नेता है, उस पर कई बार भड़काऊ बयान और धार्मिक उन्माद फैलाने के आरोप लग चुके हैं। कमलेश तिवारी कई विवादों में जेल भी जा चुका है। कमलेश के ताजा विवाद की शुरुआत नवंबर में हुई थी। उत्तर प्रदेश के बड़बोले कैबिनेट मंत्री आजम खान ने कुछ दिन पहले कहा था कि आरएसएस में लोग इसलिए शादी नहीं करते हैं क्योंकि वह समलैंगिक होते हैं। इसके जवाब में कमलेश तिवारी ने पैगंबर मोहम्मद पर कथित आपत्तिजनक टिप्पणी कर दी थी। 
तथाकथित सोशल मीडिया पर कमलेश तिवारी का बयान आग की तरह फैला और उतनी ही तेजी से देश भर में विरोध प्रदर्शन भी हुए। दो दिसंबर को लखनऊ में कमलेश तिवारी को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। कमलेश तो जेल चला गया लेकिन मुस्लिम समुदाय के विरोध प्रदर्शन नहीं रुक रहे हैं। पहले मालदा और अब पूर्णिया में हिंसा के बाद सवाल खड़ा होता है कि जब कानून कमलेश तिवारी पर कार्रवाई कर रहा है, तो लोग विरोध के नाम पर कानून अपने हाथों में क्यों ले रहे हैं?
 
कारण, साफ है कि सम्प्रदाय विशेष के इन लोगों को संबंधित राज्य सरकारों की सहानुभति हासिल है जो कि भाजपा विरोधी हैं या ‍जिनका कथित 'धर्मनिरपेक्षता प्रेम' सभी जानते हैं। बंगाल में सत्ता पाने के लिए ममता बनर्जी, बांग्लादेशी कट्‍टरपंथियों और अपराधियों से समझौता करने से परहेज नहीं करती हैं। बंगाल के बांग्लादेश से लगे इलाकों में मुस्लिमों की आबादी इतनी ज्यादा हो गई है कि वहां से हिंदू या अन्य धर्मों के लोग जान बचाकर भागने में ही अपनी भलाई समझ रहे हैं। 
 
इसी तरह बिहार में लालू यादव की राजनीति यादवों, मुस्लिमों के गठबंधन और नीतीश की अन्य जातियों के गठबंधन पर टिकी है जिसे यह लोग 'धर्मनिरपेक्षता', 'जाति ‍निरपेक्षता' और 'समाजवाद' कहते हैं। ऐसे नेताओं से कतई उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वे समाज और देश के हित के बारे में सोचें ये तो मूक पशुओं के आहार तक को पचाने की ताकत रखते हैं। 

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