दुनिया का नक्शा बदल सकता है इस्लामी आतंकवाद

संदीपसिंह सिसोदिया

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015 (16:26 IST)
इस समय पूरी दुनिया में आतंकवाद अपने चरम पर है। यूरोप, एशिया से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक अपनी ताकत का मुजाहिरा करने वाले आतंकी संगठनों ने 'इस्लाम के नाम पर कोहराम' मचा रखा है। पोलियो की दवा, शिक्षा से लेकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले कर रहे आतंकी संगठन पूरी दुनिया को 'जिहाद' की भट्टी में झोंकना चाहते हैं। डर है कि पेरिस में शर्ली हब्दो पत्रिका पर हुए आतंकी हमले के बाद फ्रांस जो आज झेल रहा है वही कल दूसरे देश भी झेल सकते हैं। हालांकि भारत, पाकिस्तान, इराक सीरिया और अरब देश तो इसे लगभग रोज ही झेल रहे हैं।    


 
सवाल है कि क्या आतंकी संगठनों द्वारा बढ़ते हमले उनकी हताशा दिखाते हैं या यह आतंकी संगठनों की अपने विरोधियों पर हावी होने की कोशिश के रूप में देखे जाने चाहिए। आतंकियों द्वारा अपेक्षाकृत शांत और नए क्षेत्रों में हमले करना उनकी रणनीति का एक हिस्सा हैं जिसमें वे दिखाना चाहते हैं कि पूरी दुनिया में वे कभी भी और कहीं भी हमला करने में सक्षम हैं। देखा जाए तो यह आतंकवाद की वैश्विक उपस्थिति को दर्शाता है। पिछले साल दिसंबर में जम्मू-कश्मीर स्थित भारतीय सैन्य कैम्प पर हमले, ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में हुए बंधक संकट से शुरू हुआ आतंक का यह खूनी खेल पाकिस्तान के पेशावर आर्मी स्कूल में नौनिहालों के नरसंहार से अपनी हदें लांघ कर अब यूरोप को आक्रांत कर रहा है। 
 
पश्चिमी देशों खासतौर पर अमेरिका का मानना था कि ओसामा बिन लादेन के खात्मे के बाद अल कायदा और तालिबान कमजोर हो चुका है। लेकिन यह भारी भूल साबित हो रही है। अफगानिस्तान और इराक में जबतक गठबंधन सेनाएं रही तबतक तो आतंकी गुटों पर कुछ हद तक नियंत्रण रहा लेकिन जैसे ही इन देशों से सेनाएं हटी इस्लामिक स्टेट ने इराक और सीरिया पर अपना कब्जा जमाना शुरू कर दिया। 
 
सवाल यह है कि आखिर एकदम से इस्लामिक स्टेट इतना मजबूत कैसे बन गया कि कई देशों की सम्मिलित सेनाओं के हवाई हमले भी उसका कुछ खास नहीं बिगाड़ पा रहे हैं तो इसका जवाब है कि आतंकवाद पर पश्चिमी देशों की दोमुंही नीति। उदाहरण के लिए इराक में काबिज इस्लामिक स्टेट पर अमेरिकी नीत गठबंधन सेनाएं लगातार हवाई हमले कर रही हैं क्योंकि वहां पश्चिम देशों के समर्थन पर बनी सरकार हैं लेकिन अमेरिका, ब्रिटेन समेत पश्चिमी यूरोप के देशों ने सीरिया में चरमपंथी ठिकानों को निशाना बनाकर की जाने वाली बमबारी में हिस्सा नहीं लिया है क्योंकि सीरिया में बशर अल असद की सरकार की वैधता को अमेरिका और उसके सहयोगी देश मान्यता नहीं देते हैं। इस आधी-अधूरी लड़ाई का फायदा उठाते हुए इस्लामी स्टेट ने थोड़े ही समय में ब्रिटेन से भी बड़े भूभाग पर कब्जा जमा लिया है। 
 
इसका एक और उदाहरण है पाकिस्तान। यहां आए दिन हो रहे आतंकी हमलों ने देश की कमर तोड़ दी है। अच्छे तालिबान और बुरे तालिबान को साधने के चक्कर में पाकिस्तान यह भूल गया कि यदि आप पड़ोसी को मारने के लिए सांप पालेंगे तो जरूरी नहीं कि वो आपको नहीं डंसे। 'बियरिंग द बर्न्ट ऑफ फीडिंग टेररिज़्म' यानी आतंकवाद को शह देने का जख्म तो झेलना ही पड़ता है। पेशावर हमले के बाद आज पाकिस्तान में सभी प्रकार के आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई की कसमें खाई जा रही हैं लेकिन यह जज्बा कब तक रहेगा यह देखना होगा। 
यूरोप में इस्लामफोबिया...

यूरोप में 'इस्लामफोबिया' : कई बड़ी मीडिया संस्थाएं इस्लामफोबिया जैसा भारी-भरकम शब्द इस्तेमाल कर रही हैं। यूरोप में इस्लामी आतंकवाद के बढ़ते प्रभाव के मद्देनजर अब स्थानीय लोगों और अप्रवासियों के बीच तनाव साफ दिखाई दे रहा है। जर्मनी में रहने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार राम यादव बताते हैं कि सबसे बड़ा खतरा है कि अब जर्मनी के अलावा फ्रांस में भी जनभावना का ध्रुवीकरण हो रहा है। पेरिस में शर्ली हब्दो की दुखद घटना के बाद मस्जिदों पर हुए हमले दर्शाते हैं कि आने वाला समय यूरोप में इस्लाम-समर्थकों और विरोधियों के बीच टकराव का समय बनने जा रहा है। जर्मनी में पिछले कई सप्ताहों से हर सोमवार की शाम को हज़ारों की संख्या में 'पश्चिमी देशों के इस्लामीकरण के विरुद्ध आन्दोलन' (पेगीड़ा) के नाम से देश के प्रमुख शहरों में प्रदर्शन कर रहे हैं। उन्होने कहा कि फ्रांस में आतंकवादी हमलों की पिछले साल और भी कुछ घटनाएँ हुई हैं, जिन्हें मीडिया ने दबाने की कोशिश की। सरकारों द्वारा तथ्यों को झुठलाने की, लीपापोती वाली प्रवृत्ति के कारण यूरोप में जनभावना और सरकारी नीतियों के बीच खाई चौड़ी हो रही है। 
इसी तरह हाल ही में प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखक मीशेल वेलबेक के विवादित उपन्यास 'सबमिशन' का कथानक है कि साल 2022 तक फ्रांस का इस्लामीकरण हो जाएगा। फ्रांस में मुस्लिम राष्ट्रपति होगा। महिलाओं को नौकरी छोड़ने और पर्दा करने के लिए प्रेरित किया जाएगा। एक से ज़्यादा शादी करना क़ानूनी हो जाएगा और विश्वविद्यालयों में कुरान पढ़ाई जाएगी। 
 
फ्रांसीसी लेखक की इस कहानी के पीछे कई कारण है जैसे फ्रांस में इस्लाम की पहचान संबंधी विवाद राष्ट्रीय मुद्दा बन चुका है। महिलाओं के हिजाब पहनने पर पाबंदी जैसे कई कारण हैं जो वहां के देशज निवासियों और मुस्लिम नागरिकों के बीच बढ़ती खाई को दर्शाते हैं।  
 
इसी तरह कई अफ्रीकी देशों नाईजीरिया, सूडान जैसे मुस्लिम देशों में सक्रिय बोको हराम आए दिन हजारों मासूमों के खून से अपने हाथ रंग रहा है। कई लोग ताज्जुब करते हैं कि जो अफ्रीकी देश पहले से ही इस्लामी शासन को मानते हैं या उसके अंतर्गत है वहां भी अपने ही सहजातियों का कत्लेआम कर क्या साबित करना चाहते हैं। इसका जवाब मिलता है इस्लामी स्टेट का दौरा कर लौटे जर्मनी के पूर्व सांसद और लेखक युर्गन टोडनह्यौएफ़र के शब्दों में, उनके मुताबिक 'आईएस' दुनिया में एक ऐसा इस्लाम चाहता है जिसे दुनिया के एक अरब 60 करोड़ मुसलमानों में से 99 प्रतिशत मानने से इनकार करते हैं।
भारत के लिए बढ़ता खतरा :

भारत के लिए बढ़ता खतरा : भारत पिछले 2 दशकों से अधिक समय से आतंकवाद से त्रस्त रहा है। उल्लेखनीय है कि भारत एक मात्र ऐसा देश है जिसकी संसद से लेकर कई महत्वपूर्ण प्रतीकों पर आतंकी हमले हो चुके हैं। देश के कई शहरों में बम धमाकों सहित 26/11 को मुंबई में हुए जघन्य हमलों में हजारों लोगों ने अपनी जान गंवाई हैं। दुनियाभर में सिर उठाते इस्लामी आतंकवाद से सबसे अधिक खतरों वाले देशों में भारत का नाम शीर्ष सूची में आता है। 
 
हाल ही में भारत के कुछ मुस्लिम युवाओं का इस्लामी स्टेट के प्रति आकर्षण और उससे जुड़ाव की खबरें आने के बाद कई शहरों में आईएस का झंडा फहराने जैसी गंभीर घटनाओं के बाद केंद्र सरकार को इस ओर ध्यान देना ही होगा। वैसे भी नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा नीत केंद्र सरकार को हिन्दुवादी सरकार का तमगा दिया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत-पाकिस्तान के बीच सीमा पर तनाव गहरा गया है। अचरज की बात है कि खुद आतंकियों से परेशान पाक की सेना भारत में आतंकियों को धकेलने के लिए लगातार गोलाबारी कर रही है। इस बार फर्क इतना है कि सयंम बरतने वाली भारतीय फौज का रुख इस बार बेहद आक्रमक है। भारतीय पक्ष को इस बार गोली का जवाब गोले से देने को कहा गया है। 
 
लेकिन क्या इतने भर से आतंकवादियों को रोकने में सफलता मिल सकेगी। अब तब भारत का तरीका रक्षात्मक सुरक्षा का रहा है जिसमें अपनी सीमा की रक्षा की जाती है और जरूरत पड़ने पर ही कार्यवाई की जाती है। सुरक्षा मामलों के जानकार मानते हैं कि फिलहाल की स्थिति में आक्रमक सुरक्षा ही एकमात्र रास्ता है। आक्रमक सुरक्षा में अपने लक्ष्यों की पहचान कर उन्हें अपनी सीमा में आने से पहले ही मार गिराया जाता है। इसमें सर्जिकल स्ट्राइक, कमांडो कार्यवाई और सीमित इलाके में सैन्य कार्यवाई के विकल्प होते हैं। अमेरिका और इसराइल आक्रमक सुरक्षा के लिए जाने जाते हैं। 
 
राजनीति और सुरक्षा मामलों से जुड़े विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि मोदी सरकार का रुख भी अब आक्रमक सुरक्षा का हो सकता है क्योंकि इस समय देश में पाकिस्तान के खिलाफ मूड बना हुआ है जो घुसपैठियों को करारा जवाब देने और इस समस्या को एक बार में ही निपटाने के हिमायती हैं। वर्तमान वैश्विक परिदृश्य देखते हुए भारत सरकार पर आतंकियों के खिलाफ सीमा पार कार्यवाही पर कोई अंतरराष्ट्रीय दबाव भी नहीं आने वाला।   

इस्लामिक स्टेट, अल कायदा, मुस्लिम ब्रदरहुड, हमास, तालिबान, बोको हराम, अंसार अल इस्लाम, अल सैयाफ़, शहाब जैसे कट्टरपंथी, उग्रवादी, पृथकतावादी या आतंकवादी इस्लामी संगठन दुनिया के दर्जनों मुस्लिम या गैर-मुस्लिम देशों में अपनी जड़ें जमा चुके हैं। यदि इस पर भी लोकतांत्रिक देश नहीं जागे तो आतंक की इस सुनामी से सारी दुनिया का नक्शा बदलना तय है। 

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