आतंकवाद के भस्मासुर के विरुद्ध कठोर पहल

शरद सिंगी

रविवार, 14 सितम्बर 2014 (09:12 IST)
विश्व नेताओं की उदासीनता से इस समय आतंकवादी संगठनों के मंसूबों को पर लग चुके हैं। अल कायदा के नेता अल जवाहरी ने भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी शाखा खोलने की घोषणा कर दी है। उधर आतंकी संगठन इसिस ने अमेरिका के दो पत्रकारों के बड़ी बर्बरता से सिर कलम कर दिए। नाटो (यूरोपीय संघ की सामूहिक सेना) और इंग्लैंड को भी इसिस ने चेतावनी देते हुए कहा है कि अब उनकी बारी है। किसी भी संगठन का महाशक्तियों को इस तरह सीधे धमकी देने का मतलब अपनी मौत को दावत देना है किंतु परिणाम की चिंता किए बगैर इतनी हिम्मत दिखाने का आशय महाशक्तियों की कमजोरी ही समझा जाना चाहिए। अव्वल तो स्थिति यहां तक पहुंचनी नहीं चाहिए थी और यदि पहुंच चुकी है तो विचार किस बात का हो रहा है? क्या दुनिया को वापस सितंबर 11, 2001 के न्यूयॉर्क वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के हमले या 26 नवंबर 2008 के मुंबई हादसे का इंतजार है?
 

 
दो सप्ताह पहले ही ओबामा ने कहा था कि उनके पास इसिल से निपटने के लिए कोई रणनीति नहीं है, किंतु अमेरिकी पत्रकारों की हत्या के बाद सोशल मीडिया में हुई आलोचनाओं को देखते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा एवं इंग्लैंड के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन तुरंत आक्रामक हुए और कहा कि इन आतंकी हरकतों से अमेरिका या इंग्लैंड को डराया नहीं जा सकता तथा साथ ही उन्होंने इसिस का सर्वनाश करने का संयुक्त ऐलान किया। ओबामा ने कहा कि जिस व्यवस्थित और क्रमबद्ध तरीके से अल कायदा का नाश किया गया, उसी तरह से इसिल का खात्मा भी किया जाएगा।

4 और 5 सितंबर को नाटो देशों का शिखर सम्मलेन यूनाइटेड किंगडम के वेल्स में हुआ। इस सम्मलेन में 60 से अधिक राष्ट्राध्यक्षों ने भाग लिया। इसिल का बढ़ता आतंक एजेंडा में न होते हुए वह भी इस सम्मलेन का मुख्य मुद्दा बन गया। यूक्रेन का मुद्दा हाशिए में चला गया। इसिल के विरुद्ध त्वरित कार्रवाई के निर्णय का अनुमोदन सर्वानुमति से हुआ। 10 देशों के गठबंधन की घोषणा हुई जिनमें अमेरिका और इंग्लैंड के अतिरिक्त जर्मनी, फ्रांस, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश शामिल हैं। महत्वपूर्ण बात यह रही कि सितंबर 11 के हमले के पश्चात ऐसा बड़ा गठबंधन पहली बार हुआ है। जाहिर है चुनौती गंभीर है जिसे लंबे समय से अनदेखा किया जा रहा था।

गठबंधन में किसी अरब देश का नाम नहीं है किंतु लगभग सारे देश इस समय गठबंधन के साथ सहयोग करने को तैयार हैं। इन देशों का बदला हुआ रुख उन लोगों के लिए आश्चर्य की बात है, जो इन देशों का इतिहास जानते हैं, क्योंकि यह स्मरणीय भी है और उल्लेखनीय भी है कि इन्हीं देशों में से कुछ देश ऐसे थे जिन्होंने सीरिया और इराक के विरुद्ध इसिल को खड़ा किया था। एक समय ऐसा था, जब मध्यपूर्व के देश आतंक से सुरक्षित समझे जाते थे, क्योंकि आतंकियों का निशाना उस समय पश्चिमी देश होते थे। तब आतंकियों को चुपचाप पोषित करना भी उचित माना जाता था, क्योंकि तब इन देशों ने सोचा भी नहीं था कि ये संगठन एक दिन भस्मासुर की ही तरह पोषण करने वालों के विरुद्ध ही उठ खड़े होंगे। भस्मासुर तो पैदा करने वाले को ही भस्म करता है, इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए। फिर से उन राष्ट्रों के लिए सबक है, जो अन्य राष्ट्रों के विरुद्ध आतंकियों को पोषित करते हैं और सोचते हैं कि आतंकवाद उनकी समस्या नहीं है। घटनाक्रम का यह सुखद पहलू है कि इन बेकाबू होते संगठनों पर नियंत्रण करने के लिए अब एक-दूसरे से शत्रुता रखने वाले देश भी साथ आते दिखने लगे हैं। मध्यपूर्व में संबंधों के समीकरण में बदलाव आने लगे हैं और बड़ी सरगर्मी के साथ इस समस्या से लड़ने की कवायद चल रही है।

विश्वास है कि भारत सरकार इस नए घटनाक्रम का पूरा संज्ञान रख रही होगी। साथ ही उसे बिना समय खोए इन आतंकी संगठनों के विरुद्ध एक स्पष्ट रणनीति बनानी होगी। सऊदी अरब तथा यूएई में कई लोग पकड़े जा चुके हैं, जो प्रशासन के विरुद्ध षड्यंत्र में जुटे थे। ये ऐसे देश हैं, जहां कानून और व्यवस्था उच्च कोटि की है। भारत सरकार को शुरू से ही बहुत चौकसी रखने की आवश्यकता है।

इसिल और अल कायदा जैसे आतंकी संगठन धर्म की आड़ में अधर्म का अनुसरण कर रहे हैं। ये वे सारे कुकर्म कर रहे हैं, जो जानकारों के अनुसार इस्लाम के सिद्धांतों की उचित व्याख्या के विरुद्ध है। गरीब और अनपढ़ लोगों को धर्म के नाम पर फुसलाना आसान होता है और ऐसे में भारत के प्रबुद्ध नागरिकों की भी जिम्मेदारी है कि इस्लाम का सही दर्शन मुस्लिम समाज के हर वर्ग तक पहुंचे ताकि अधर्मी आतंकियों के नापाक इरादों को भारत में कोई सफलता नहीं मिले। अब एक कर्मठ संकल्पवान सरकार के होते हुए इन सब अपेक्षाओं की पूर्ति असंभव भी दिखाई नहीं देती।
 

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