विश्‍व शांति आंदोलन के साथ एक कदम

रविवार, 14 सितम्बर 2014 (18:33 IST)
-मनीषा गौर
 
जापान में बिताए 23 दिनों ने जीवन को अविस्मरणीय अनुभवों से भर दिया है। विश्‍व एक गांव के नजरिए से दुनिया को देखना व इस पृथ्वी पर उपस्थित मानव मात्र के कल्याण के उद्देश्‍य के लिए पूरा जीवन लगा देने वाले विभिन्न देशों के साथियों के साथ बहुत कुछ सीखने को मिला। 
 
विश्‍व शांति के प्रयासों में लगे सभी कार्यकर्ताओं के बीच जब मैंने स्वयं को पाया तो लगा जैसे जीवन इसी क्षण के लिए मिला है। कई कार्यकर्ता तीस सालों से, कई पच्चीस सालों से इस मुहिम का हिस्सा हैं तथा कई कार्यकर्ताओं ने पूरा जीवन विश्‍व शांति मुहिम को समर्पित कर दिया है। यदि सारे अनुभवों में से कुछ साझा करने को कहा जाए, तब मैं वो बताना जरूरी समझूंगी, जिससे सभी पाठक साथी समझ सकें कि इस शांति मुहिम का मतलब क्या है? मकसद क्या है? व जरूरत क्या है?
 
द्वितीय विश्‍व युद्ध के दौरान 6 व 9 अगस्त 1945 को हिरोशिमा तथा नागासाकी पर परमाणु बम गिराए गए थे। पहली बार किसी ने इन बमों का इस्तेमाल युद्ध में किया था। पूरी दुनिया में इस बम विस्फोट की तीव्र आलाचेना हुई थी लेकिन जो हो चुका था वो बहुत ही भयावह व त्रासद था। जब भी किसी हिबाकुशा (जापान में बम पीड़ितों को हिबाकुशा कहा जाता है) से उसकी आप बीती सुनने को मिली तो रोंगटे खड़े हो गए। जिंदगी में कभी हमने यदि नरक की कल्पना की होगी तो जो भी कुछ हमारी कल्पनाओं में होगा, उससे ज्यादा भयावाह समय हिरोशिमा व नागासाकी के बम पीड़ितों ने जिया है। 
बम फटते ही विद्यालय विद्यार्थियों व शिक्षकों समेत जमीन में समा गए, कार्यालय कर्मचारियो सहित जलकर खत्म हो गए, घरों की छत या तो उड़ गई या घर के सभी सदस्य उसमें दब गए। लकड़ियां व कांच के टुकड़े लोगों के शरीर में घुस गए। कई मकान उनमें रहने वाले लोगों के साथ जलकर खाक हो गए। जो लोग खुले में थे, उसमें से कुछ बुरी तरह जल गए थे, उनके पहने हुए कपड़े भी जलकर शरीर से चिपक गए, लोग रेंगते हुए, मदद मांगते हुए पानी...पानी...मदद...मदद...चिल्ला रहे थे। 
 
कई माता-पिता जो खुद भी जख्‍मी थे, अपने छोटे जख्‍मी बच्चों को अपने ऊपर लादकर घसीटते हुए उस स्थान से दूर जाने का प्रयास कर रहे थे। कुछ लोग चीखते-कराहते हुए अपने परिवार के अन्य सदस्यों को खोज रहे थे। तापमान इतना बढ़ गया था कि लोहा, तांबा, पीतल जैसी धातुएं पिघल गई थीं। 
 
बम विस्फोट के बाद हुई काली बारिश : काली बारिश ने सबको अनजाने डर से भिगो दिया था। करीब 2,00,000 से ज्यादा लोग इस बम विस्फोट में मारे गए थे। 80,000 लोग उसी दिन मर गए बाकी एक साल के अंदर मर गए। आने वाले सालों में बचे हुए बम पीड़ितों का नहीं मालूम होता था कि किस दिन रेडिएशन के प्रभाव से उन्हें कौनसी बीमारी होगी व बीमारी के कितने दिन बाद वो मर जाएंगे। 
 
उनकी इस स्थिति के कारण नौकरी के लिए साक्षात्कार के दौरान भी उन्हें प्राथमिकता नहीं दी जाती थी। विवाह प्रक्रिया के दौरान भी बम पीड़िता को कई सारी समस्याओं का सामना करना पड़ता था। मां बनने के दौरान असमय गर्भपात की हर पल आशंका व बच्चे को हो सकने वाली बीमारियों को लेकर शंका बनी रहती थी। आज भी उनकी दूसरी व तीसरी पीढ़ी रेडिएशन के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त नहीं है।
 
इस नरक के दृश्‍य को दूसरी बार पृथ्वी के किसी भी भाग में नहीं होने देने के संकल्प के लिए ही जापान में विभिन्न देशों के शांति कार्यकर्ता एकत्रित हुए थे। ये शांति मुहिम उन खतरनाक हथियारों के खिलाफ है, जो यदि किसी की सनक की वजह से चलाए गए या दुर्घटनावश भी चल जाएं तो हमारी खूबसूरत दुनिया के अंत के लिए उल्टी गिनती उसी पल शुरू हो जाएगी। न्यूक्लियर पावर प्लांट लगाने से उस क्षेत्र का पर्यावरण खराब होता है तथा फुकुशिमा (जापान) चरनोबिल (रूस) की तरह दुर्घटनावश यदि रेडिएशन वायु, जल व धरती में मिल जाए, तब पशु, पक्षी, जलचर व मनुष्य सभी को खतरा है।
 
अतः न केवल परमाणु हथियारों पर पूरी तरह प्रतिबंध हो वरन परमाणु ऊर्जा के अन्य इस्तेमाल को भी सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, धरती के अंदर मौजूद ऊर्जा, पन बिजली परियोजना, भूतापीय ऊर्जा, जैव ईधन आदि के इस्तेमाल से न्यूनतम किया जाना चाहिए तथा क्रमश: समाप्त कर देना चाहिए, क्‍योंकि यदि किसी देश के पास परमाणु ऊर्जा संयत्र है, तब परमाणु हथियार बना सकने की संभावना हमेशा बनी रहेगी।
 
जापान में आयोजित अंतरराष्ट्रीय शांति मार्च में भारत, अमेरिका, गुवाम व फिलीपींस, इन चार देशों के प्रतिनिधियों ने जापान के विभिन्न संगठनों के कार्यकर्ताओं के साथ भाग लिया। शांति मार्च के दौरान प्रतिदिन नए शहरों में जाने का, नए लोगों, से मिलने का, जापान को करीब से जानने का मौका मिला। 32 से 37 डिग्री तापमान में ग्यारह से पंद्रह किलोमीटर प्रतिदिन पैदल चलना, अन्य कई संगठनों के प्रतिनिधियों के साथ गाते, बजाते, नारे लगाते रास्तेभर जीवन के नए रंग, पहाड़, समुद्र, ऑइलैंड, हरियाली, श्राइन (जापानी धार्मिक आध्यात्मिक स्थान) रिकॉन (जापानी पारंपरिक अतिथि गृह), दो आईलैंड को आपस में जोड़ते विशाल पुल, समुद्र के किनारे बसे शहर, एक आईलैंड से दूसरे आइलैंड तक फैरी पर जाना तथा इस दौरान जापानी साथियों के प्रेम व आतिथ्य ने जीवनभर के संबंधों में बांध लिया। इस दौरान ओकायामा, कुराशिकी, हायाशिमा, सोजा सिटी, माबी, असाकुची सिटी, कसाओका, फुकुयामा, ओनामिचीसिटी, मिहारासिटी, ताकेहारासिटी, हिगाशीहिरोशिमा, कुरेसिटी, हिरोशिमा, नागासाकी एवं हत्‌कायची नामक शहरों में जाने का मौका मिला।
 
अंतरराष्ट्रीय कॉन्‍फ्रेंस के दौरान आयोजित विभिन्न गतिविधियों में 84 अंतरराष्ट्रीय प्रतिनिधियों के साथ कुल दस हजार लोगों ने भाग लिया। आयोजित कार्यशाला में मुझे दक्षिण एशिया का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला जिसमें जापान, वियतनाम व दक्षिण कोरिया के प्रतिनिधि साथी वक्ता के रूप मे उपस्थित थे। 6 अगस्त को हिरोशिमा पीस पार्क में बारिश होने के बावजूद भी हजारो लोग छाता लिए श्रद्धांजलि कार्यक्रम में मौजूद थे। 
 
अस्पताल में जाकर विभिन्न हिबाकुशा (बम पीड़ित) से मुलाकात के दौरान उनकी पीड़ा का एहसास हुआ। इवाकुनी यूएस मिलिट्री बेस व कुरे मॉरीटाइम सेल्फ डिफेंस फोर्स बेस पर ले जाने की व्यवस्था आयोजकों द्वारा की गई थी। अंतरराष्ट्रीय मीटिंग, अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस, विभिन्न कार्यशालाओं, हस्ताक्षर अभियान, मोतीमाची नदी पर आयोजित श्रद्धांजलि द्वीप विसर्जन व अन्य कई सारी गतिविधियों में शामिल होकर सभी साथियों के साथ आगामी कार्य योजना व आसीमित ऊर्जा के साथ वापस अपने देश लौटना हुआ।
 
(लेखिका अंतरराष्ट्रीय वक्ता, प्रशिक्षक, जीवन शिक्षक एवं शांति कार्यकर्ता हैं।)

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