किसने किया कांग्रेस का ये बुरा हाल?

-नीभा चौधरी
 
पंद्रह साल तक सत्‍ता में रहने वाली कांग्रेस आज हाशिए पर खड़ी है, वो भी राजधानी दिल्ली में। दिल्ली की तस्वीर जिस कांग्रेस ने बदली, उसी कांग्रेस को आज जनता ने नकार दिया है। निरंतर ढलान पर है पार्टी। पिछली बार आठ सीट मिली और इस बार खाता भी नहीं खुल पाया। वोट के बंटवारे की बात करना भी बेमानी है। अल्पसंख्‍यक मतदाता भी नाराज हैं। गरीबी हटाओ का नारा देने वाली पार्टी के आंगन में अब गरीब नहीं रहे। औद्योगिक घरानों ने तो चार-पांच साल पहले ही नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बना दिया था। 
सोशल मीडिया पर टि्वटर जंग लड़ने वालों की फौज को न तो कांग्रेस ने तरजीह दिया और न ही उस तरह की रणनीति ही बना पाई जिस तरह की भाजपा और आम आदमी पार्टी ने बना रखी थी। इन सबके अलावा, कार्यकर्ता और आम जनता से दूर होता कांग्रेस नेतृत्व भी वातानुकूलित कमरे से बाहर नहीं निकला। लोकसभा चुनाव की करारी शिकस्त के बावजूद नेतृत्व ने ये कभी नहीं सोचा कि कार्यकर्ताओं के साथ बैठा जाए और दि्वपक्षीय संवाद किया जाए। वहीं सात-आठ बिना रीढ़ और जन-समर्थन वाले नेताओं के साथ लैपटॉप पर पार्टी की रणनीति बनती रही। बहरहाल, उम्मीद है अब आत्ममंथन का दौर चल रहा होगा। 
 
बहरहाल, कांग्रेस के अंदर अगर चिंता है तो इस बात कि है कि अल्पसंख्‍यक समुदाय ने उससे मुंह मोड़ लिया है। ऐसी बात नहीं है कि अल्पसंख्‍यकों का अब कांग्रेस में ऐतबार नहीं रहा, लेकिन अल्पसंख्‍यकों की सबसे बड़ी समस्या ये है कि वे बीमार कांग्रेस को समर्थन दें या फिर ताल ठोंककर सांप्रदायिक ताकतो कों ललकारने वाली पार्टियों का दामन थामे। अल्पसंख्‍यकों को दूसरा विकल्प यानी समाजवादी पार्टी या फिर आम आदमी पार्टी ज्यादा भरोसेमंद दिख रहा है। अल्पसंख्‍यक मतदाता को ये लगने लगा है कि कांग्रेस की दुकान पर जो सेक्युलरिज्म मिल रहा है उसमें मिलावट आ गई है। नेहरू के समय का सेक्युलरिज्म अब कांग्रेस के पास नहीं रहा। 
 
दिल्ली चुनाव से  चंद दिन पहले कांग्रेस के सीनियर लीडर जनार्दन दि्वेदी ने यह सलाह दी थी कि कांग्रेस को ये आत्ममंथन करना चाहिए कि कहीं अल्पसंख्‍यक प्रेम की वजह से बहुसंख्‍यक तो नाराज नहीं हो गए। बकौल जनार्दन दि्वेदी कांग्रेस को इसके लिए सुधारात्मक कदम उठाने की बात की गई थी। जनार्दन दि्वेदी जैसे नेता के इस बयान से अल्पसंख्‍यकों को ये लगने लगा कि अब कांग्रेस भी भाजपा की राह पकड़ने की तैयारी में है। कांग्रेस की ये सबसे बड़ी भूल है। जहां तक कट्टरपंथी हिन्दू मतदाता की बात है तो उन्हें नरेन्द्र मोदी के रूप में विश्‍व हिन्दुत्व का ब्रांड मिलता रहा है। 
 
नरेन्द्र मोदी ने हरेक उस मौके का इस्तेमाल किया जिससे उनके हिन्दुत्व प्रेम की झलक मिली। पहली बार प्रधानमंत्री आवास में इफ्तार का आयोजन नहीं हुआ। ईद की शुभकामना भी नहीं दी गई। नमाजी टोपी से भी परहेज किया गया। इमना ही नहीं, जहर उगलने वाले तथाकथित हिन्दू नेताओं जैसे साक्षी महाराज, योगी आदित्यनाथ, प्रवीण तोगड़िया पर अंकुश लगाने की थोड़ी भी कोशिश नहीं की गई है। इस परिस्थिति में कांग्रेस का इन मतदाताओं को रिझाने का प्रयास निरर्थक ही साबित होता।
 
दूसरी तरफ, आम आदमी पार्टी ने अपने बयानों और कार्यक्रतों के जरिए अल्पसंख्‍यकों को ये संदेश जरूर दिया कि उनके मुस्तकबिल की हिफाजत करने वाला सिर्फ और सिर्फ आम आदमी पार्टी ही है। अरविन्द केजरीवाल ने ये दिखाया कि मोदी से लड़ने का दमखम सिर्फ उसमें ही है। केजरीवाल ने बनारस जाकर दिखाया कि उनकी पार्टी मोदी से दो-दो हाथ करने का आत्मबल रखती है। इतना ही नहीं, केजरीवाल और उनके साथियों ने मोदी को गुजरात जाकर भी ललकारा था और उनके दुश्‍प्रचार को बेपर्दा किया था। कम से कम, आम आदमी पार्टी ने अपने फौलादी इरादों के जरिए ये साबित किया कि सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने की कुव्वत सिर्फ उसी के पास है। अरविन्द केजरीवाल ने ये साबित कर दिया कि उसकी दुकान पर सेक्युलरिज्म अपने विशुद्धतम स्थिति में है। इसमें किसी तरह के किन्तु-परन्तु या मिलावट की गुंजाइश नहीं है। इसलिए, जहां एक तरफ अल्पसंख्‍यकों को ये एहसास हुआ कि आम आदमी पार्टी को समर्थन देने में ही भलाई है वहीं दूसरी तरफ मेहनतकश और अमन-पसंद जनता को उनका ये रवैया लुभने लगा। 
 
वहीं कांग्रेस के अंदर ऊहापोह की स्थिति बनी रही। कार्यकर्ताओं से ज्यादा नेता हो गए। समय-समय पर उनके ऐसे बयान आते रहे जिससे ये एहसास होता था मानो पार्टी ने अपनी नीति में बदलाव लाया है और इन्हीं बयानबाजी की वजह से पार्टी कमजोर और बीमार होती चली गई। मतदाता दूर होते गए। इतना ही नहीं, कांग्रेस नेतृत्व भी अपने कार्यकर्ता से लुकाछिपी करता रहा। दूज के चांद की तरह, कभी-कभार राहुल दिख जाते हैं। दिल्ली चुनाव में कांग्रेस काफी समय तक ये नहीं तय कर पा रही थी कि राहुल को मैदान में उतारा जाए या नहीं। राहुल की मात्र दो-चार रैली कराई गईं और कांग्रेस अध्‍यक्ष ने तो सिर्फ एक ही रैली को संबोधित किया। 
 
इतना ही नहीं, जमीनी कांग्रेस कार्यकर्ता तो ये भी कहते हुए सुने जाते हैं कि भगवान के दर्शन तो हो जाते हैं लेकिन राहुल या सोनिया के नहीं। अंशकालिक राजनीति का परित्याग कर गांधी नेतृत्व को पूर्णकालिक राजनीति करनी होगी। इतना ही नहीं, जमीनी कार्यकर्ता से सहज संपर्क और बिना जन-समर्थन वाले कांग्रेसी नेताओं को दस जनपथ से दूर ही रखना होगा। आज दस जनपथ के इर्दगिर्द वे ही नेता चक्कर काटते हैं या फिर कांग्रेस में उनका कद काफी ऊंचा है जो अपनी सीट भी जीत नहीं पाते हैं। अहमद पटेल, जनार्दन दि्वेदी, शकील अहमद, मोतीलाल वोरा जैसे पुराने चेहरों को हटाना चाहिए जो दूसरों की जीत तो दूर अपने लिए एक चुनाव नहीं जीत पाएंगे। कांग्रेस को समझना होगा कि आम आदमी पार्टी के राघव चडढा जैसे नौजवान पार्टी का पक्ष ज्यादा मजबूती से रखते हैं।  
  
बदले माहौल में कांग्रेस का मजबूत होना काफी जरूरी है। कांग्रेस के कमजोर होने से लोकतंत्र कमजोर होगा। आज की तारीख में भाजपा का मुकाबला क्षेत्रीय दलों से हो रहा है। चाहे वो केजरीवाल हों या ममता या फिर नीतीश कुमार। ये क्षत्रप अभी भजपा का मुकाबला सारे देश में नहीं कर पाएंगे क्योंकि ये फिलहाल एक राज्य में ही सीमित हैं। दूसरी तरफ, भाजपा पूर्वातर राज्यों से लेकर दक्षिण के राज्यों तक अपने पैर फैलाने में दिन-रात एक कर लगी हुई है। ऐसी स्थिति में अगर कांग्रेस कोपभवन में बैठी रहेगी तो वो दिन दूर नहीं जब भारत कांग्रेस मुक्त हो जाएगा।
 

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