नजरिया : दिल्ली दंगा और महात्मा गांधी

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2020 (13:25 IST)
दिल्ली पिछले कई दिनों से दंगों की आग में झुलस रही है और लगातार मौतों का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। चार दिन दिल्ली को हिंसा की आग में झुलसाने के लिए कौन कसूरवार है इसको लेकर अब सियासत भी गर्म हो चली है। दिल्ली के दंगों को लेकर गांधीवादी विचारक और सामाजिक कार्यकर्ता अरुण कुमार त्रिपाठी क्या सोचते है  वेबदुनिया पर पढ़िए उन्हीं के विचार उनके ही शब्दों में । 
 
देश का दिल कही जाने वाली दिल्ली अब बहुत बदल गई है। यह वह दिल्ली नहीं लगती जहां 15 अगस्त को लाल किले से स्वतंत्रता का उद्घोष होता है और 26 जनवरी को बोट क्लब पर हमारी लोकतांत्रिक विविधता और राज्य शक्ति की छटा दिखाई जाती है। उसके मौजूदा हालात देखकर 1947 के विभाजन के दिनों की याद ताजा हो जाती है। विडंबना है कि लोग उस इतिहास को भूल चुके हैं जहां दंगा शांत करने के लिए महात्मा गांधी ने 13 जनवरी से 18 जनवरी 1948 तक अनशन करके वहां की हैवानियत को काबू किया था और 30 जनवरी को नफरत से भरे एक व्यक्ति और विचार का सीने पर सामना करते हुए अपनी जान देकर पूरे उपमहाद्वीप को शांत कर दिया था।
 
आज इस शहर में बड़े-बड़े भाषणबाज, संवाद के कौशल में प्रवीण, चुनाव जिताने वाले और धमकाने वाले नेता रहते हैं लेकिन उनमें से किसी के भीतर यह साहस नहीं है कि अशांत इलाके में कदम रखे। दिल्ली के खतरनाक इलाकों में अब अपनी जान हथेली पर रखकर महज सुरक्षा बल के जवान जाते हैं या चैनलों और अखबारों के संवाददाता, लेकिन उनकी भी कार्यशैली अपने संस्थागत और धार्मिक पूर्वाग्रह से ग्रसित है।


वहां बड़े बड़े राजनीतिशास्त्री, समाजशास्त्री, एनजीओ और आंदोलनों के कार्यकर्ता रहते हैं लेकिन वे भी भयभीत हैं और बाहर निकलने का साहस नहीं दिखा रहे हैं। उन क्षेत्रों में न तो उन दलों के नेता जाते हैं जिन्हें हाल के लोकसभा में बड़ी जीत मिली है और न ही वे जिन्हें विधानसभा में बड़ी जीत मिली है। वे सब दूर से आग तापने और आश्वासन देने में यकीन करते हैं। 
 
हिंसा और नफरत की दिशा में हुआ दिल्ली का यह बदलाव न तो दिल्ली के लिए अच्छा है और न ही देश के लिए । यह वो दिल्ली नहीं रहेगी जहां देश के हर घर से कोई न कोई अपनी रोजी रोटी के लिए आता है और जहां हर हाथ को कोई न कोई काम मिल जाया करता था। यह वो दिल्ली भी नहीं रहेगी जहां विभाजन और विस्थापन के गहरे जख्म लेकर लाखों लोग आए और यहां की सरकार से सहायता पाकर न सिर्फ अपने पैरों पर खड़े हुए बल्कि मुल्क को ऊंचाइयों पर पहुंचाने में अपना योगदान दिया।

यह वो दिल्ली भी नहीं रहेगी जहां देश के किसी भी कोने से अन्याय से पीड़ित व्यक्ति न्याय की गुहार लेकर आता है और उसे किसी न किसी रूप में इंसाफ मिल ही जाता था। यह वो दिल्ली भी नहीं लगती जहां बड़े से बड़े राजनीतिक बदलाव का आगाज होता था और उसकी लहर पूरे देश में पहुंचती थी। यह दिल्ली अब उन लोगों को डरा रही है जो अपने बड़े बड़े सपने लेकर यहां आते थे और उसे हासिल करने अपने गांव और जिले के नायक बन जाते थे या अपने जिलों और कस्बों की आवाज यहां की सबसे बड़ी पंचायत में बुलंद करते हैं। 
 
पिछले दो तीन दिनों में उत्तर पूर्वी दिल्ली में नफरत और हिंसा ने तकरीबन दो दर्जन लोगों को जिस तरह दुनिया से विदा किया और सैकड़ों को बेघर और घायल किया वह इस शहर के माथे पर एक दाग के रूप में उभरा है। दिल्ली निकट अतीत में एक बार तब लहूलुहान हुई थी जब मंडल आयोग की रपट लागू होने के बाद युवाओं ने आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान हिंसा की थी।

उससे पहले उसकी स्मृति में 1984 के सिख विरोधी दंगों की भयानक घटनाएं थीं। उससे पहले विभाजन की स्मृतियां दिल्ली के जेहन में हैं और मौजूदा हिंसा के बहाने वे बार बार कौंधती हैं। हाल में दिल्ली विधानसभा के चुनाव जिस माहौल में हुए और सीएए और एनआरसी विरोधी आंदोलन के आसपास जिस रूप में दंगे हुए वे न सिर्फ दिल्ली के समाज पर सवाल उठाते हैं बल्कि उन तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं पर भी गंभीर प्रश्न करते हैं जो संविधान की समयानुकूल व्याख्या करने और उसे लागू करने के लिए बैठी हैं। 
 
दिल्ली की मौजूदा हिंसा देखकर विभाजन के उस दौर की याद ताजा हो जाती है जब प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू पुरानी दिल्ली की दंगाई भीड़ के आगे अपना डंडा लेकर टूट पड़ते थे। वह समय याद आता है जब किंग्सवे कैंप के शरणार्थी शिविर में एक बुढ़िया ने नेहरू का कालर पकड़कर सवाल पूछा था कि नेहरू तूने देश के लिए क्या किया है और नेहरू ने यही कहा था कि अम्मा मैंने इतना जो जरूर किया है कि आप देश के प्रधानमंत्री का कालर पकड़ सकती हैं।

यह वही नेहरू थे जो उस जुलूस पर भड़क उठे थे जो बिड़ला हाउस में अनशन कर रहे गांधी के लिए नारा लगा रहा था  `गांधी को मरने दो’। इसी दिल्ली में जब विभाजन का दंगा हुआ तो निहत्थे और लगभग अप्रासंगिक हो चुके गांधी को बंगाल से बुलाने और उनके नैतिक बल का उपयोग करने लिए पूरी केंद्र सरकार बेचैन थी। जब गांधी शाहदरा स्टेशन पर पहुंचे तो उन्हें लेने के लिए स्वयं सरदार पटेल खड़े थे और उन्हें सुरक्षा के लिहाज से बिड़ला भवन में ठहराया गया जबकि वे वाल्मीकि बस्ती में ठहरना चाहते थे।
 
जिन छह मांगों के साथ गांधी ने अपना अनशन करके और अपनी जान देकर आधुनिक दिल्ली का निर्माण किया था और एशिया का शांति संदेश पूरी दुनिया को दिया था आज दिल्ली उस रास्ते से काफी दूर जा चुकी है। गांधी ने पश्चिम बंगाल से आकर इस दिल्ली में हिंदू मुस्लिम एकता की जो मिशाल कायम की थी वे उसे वे पाकिस्तान तक ले जाना चाहते थे और उसी के लिए उन्होंने अपने दो साथियों को पाकिस्तान भेजा भी था। 
 
गांधी की इस भावना को आज के समय में अगर शाहीन बाग में महिलाओं का धरना व्यक्त कर रहा था जो दस्तावेज और धर्म के पूर्वाग्रह पर आधारित नागरिकता की अवधारणा को चुनौती देते हुए भारतीय उपमहाद्वीप की साझी विरासत को जगा रहा था। यह वही विरासत थी जिसके तहत गांधी पाकिस्तान में बिना वीसा लिए घुसने वाले थे और जिसके लिए जिन्ना ने कहा था कि उनसे कहिएगा कि यहां वे हमारी सुरक्षा में रहें क्योंकि अगर उन्हें कुछ हो गया तो हम पाकिस्तान को नहीं बचा पाएंगे। 
 
दिल्ली की मौजूदा हिंसा के लिए सीएए और एनआरसी के समर्थक तो जिम्मेदार हैं ही वे लोग भी जिम्मेदार हैं जो लोग शाहीन बाग के आंदोलन को भीम आर्मी और जमाते इस्लामी के रास्ते पर ले जा रहे हैं। निश्चित तौर पर यह समय आंदोलन करने का नहीं उसे वापस लेकर शांति स्थापित करने का है। लेकिन इस हिंसा के लिए आम आदमी पार्टी की सरकार अपनी उदासीनता के कारण जिम्मेदार है।

केजरीवाल के पास अगर कुछ है तो वह नैतिक बल जिसके चलते उन्हें जनता ने फिर चुना है, क्योंकि उसके अलावा उनके पास कोई सुरक्षा बल नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य की स्थिति यह है कि वे अपने नैतिक बल की शक्ति भूल चुके हैं और उन्हें केंद्र सरकार के उसी सुरक्षा बल पर यकीन है जो पिछले कुछ वर्षों से निष्पक्ष और निर्भीक व्यवहार नहीं दिखा रहा है। इसलिए यह भी हो सकता है कि भविष्य में केजरीवाल के पास न तो नैतिक बल बचे और सुरक्षा बल तो आने से रहा।

उन्हें यह सोचना होगा कि सच्चे लोकतंत्र का निर्माण न सिर्फ स्कूलों से होता है और न ही अस्पतालों और पुलों से। उसके लिए अच्छे मनुष्य बनाने की जरूरत होती है और अच्छा मनुष्य तटस्थ नहीं रहता। वह लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए साहस के साथ आगे बढ़ता है और हर कीमत चुकाने को तैयार रहता है क्योंकि भ्रष्टाचार सिर्फ अनैतिक तरीके से धन कमा लेना ही नहीं होता।

भ्रष्टाचार लोकतांत्रिक मूल्यों की अवहेलना से भी पैदा होता है और जो पार्टियां उन मूल्यों को मिटाने में सहयोग दे रही हैं वे तात्कालिक रूप से भले लोकतंत्र को मार रही हैं लेकिन दीर्घकालिक रूप से अपनी और अपने समाज की हत्या कर रही हैं।  

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