हॉलीवुड की प्रसिद्ध फिल्म 'लारेंस ऑफ अरेबिया' (1962) में काम न करने के लिए भी दिलीप कुमार को दोषी ठहराया जाता है। इस फिल्म में उन्हें जो रोल दिया जा रहा था, वह बाद में मिस्र के अभिनेता ओमर शरीफ को दिया गया, जो इस फिल्म के बाद हॉलीवुड फिल्मों के लोकप्रिय अभिनेता बन गए।
'लारेंस ऑफ अरेबिया' फिल्म का प्रस्ताव लेकर डायरेक्टर डेविड लीन स्वयं भारत आए थे और 'गंगा-जमना' के सेट पर दिलीप कुमार से मिले थे। लीन से दिलीप कुमार ने कहा था कि अगर मुख्य भूमिका (टाइटिल रोल) दें तो करने को तैयार हैं। ओमर शरीफ ने जो रोल किया, वह दूसरे प्रमुख पात्र का था, जिसके लिए दिलीप कुमार तैयार नहीं थे।
'लारेंस ऑफ अरेबिया' बड़े बजट की हॉलीवुड फिल्म थी। 'थीफ ऑफ बगदाद' जैसी विश्व प्रसिद्ध फिल्म बनाने वाले हंगेरियन निर्माता-निर्देशक अलेक्जेंडर कोर्डा भी दिलीप कुमार से 'ताजमहल' फिल्म बनाने के सिलसिले में मिले थे, लेकिन वह योजना फलीभूत नहीं हुई।
मेहबूब की फिल्म 'मदर इंडिया' में नरगिस के पुत्र का रोल निभाने के साथ-साथ सुनील दत्त ने उनमें अपना जीवन साथी खोज लिया, लेकिन दिलीप कुमार ने यही भूमिका निभाने से इनकार कर दिया था। उन्होंने कहा था कि मैं नरगिस के साथ सात फिल्मों में (अनोखा प्यार, मेला, अंदाज, बाबुल, जोगन, दीदार और हलचल) में प्रेमी की भूमिका कर चुका हूँ। अब उनका बेटा कैसे बन सकता हूँ।
दिलीप कुमार के साथ रियायत बरतते हुए मेहबूब ने यहाँ तक कहा था कि डबल रोल कर लो, पहले उनके पति बन जाओ और फिर बेटे की भूमिका निभा लो। दिलीप के मना करने के बाद ये दो रोल क्रमश: राजकुमार और सुनील दत्त को दिए गए।
1952 में मेहबूब की टेक्नीकलर फिल्म के समानांतर विजय भट्ट की म्यूजिकल फिल्म 'बैजूबावरा' भी प्रदर्शित हुई थी, जिसमें भारत भूषण और मीना कुमारी नायक-नायिका के रूप में आए थे।
इस फिल्म में विजय भट्ट, दिलीप कुमार और नरगिस को लेना चाहते थे। नरगिस को दस हजार रुपए की अग्रिम राशि दे दी गई थी। वे कुल 50 हजार रुपए चाहती थीं। जब विजय भट्ट ने दिलीप से संपर्क किया तो उन्होंने कहा कि आजकल मैं प्रति फिल्म डेढ़ लाख रुपए ले रहा हूँ, लेकिन मैं आपके लिए सवा लाख रुपए में काम कर दूँगा।
भट्ट ने कहा कि यह राशि तो हमारे बजट के हिसाब से बहुत ज्यादा है। सोचकर फैसला करने का तय हुआ ही था कि नरगिस बीमार हो गईं और उन्होंने काम करने में असमर्थता प्रकट करते हुए अग्रिम धन लौटा दिया।
'बैजू बावरा' के लिए मीना कुमारी सिर्फ 20 हजार रुपए में काम करने को राजी हो गईं। इसी बीच एक मित्र के साथ भारतभूषण विजय भट्ट से मिले और भट्ट को लगा कि 'बैजू बावरा' के रोल के लिए वे उपयुक्त रहेंगे। उन्होंने सिर्फ 6 हजार रुपए में भारत भूषण को साइन कर लिया।
फिल्म में नौशाद का संगीत था, वे नायक-नायिका के बदलने से खुश नहीं थे। फिर भी उनके संगीत की वजह से फिल्म खूब चली और भारत भूषण-मीनाकुमारी रातोंरात स्टार बन गए।
दिलीप कुमार ने गुरुदत्त की फिल्म 'प्यासा' में काम करने से इनकार कर दिया था, क्योंकि उन्हें इसका कथानक पसंद नहीं था, लेकिन प्रचारित यह हुआ कि दिलीप गुरुदत्त को पसंद नहीं करते, जबकि ऐसा कुछ नहीं था। शायद गुरुदत्त ही दिलीप को ठीक से समझा नहीं सके।
गुरुदत्त की 'प्यासा' और चोपड़ा की 'नया दौर' दोनों 1957 में प्रदर्शित हुईं। 'प्यासा' के प्रीमियर में दिलीप कुमार गए थे और उन्होंने गुरुदत्त और 'प्यासा' की मुक्तकंठ से प्रशंसा की। दिलीप कुमार ने 'प्यासा' फिल्म में काम किया होता, तो वह दिलीप साहब की एक और सफल फिल्म होती, लेकिन अगर गुरुदत्त ने उस फिल्म में काम नहीं किया होता तो वे गुरुदत्त नहीं बनते।