Story of Diwali: हिंदू धर्म में दिवाली का त्योहार कार्तिक मास की अमावस्या के दिन मनाया जाता है। इस दिन माता लक्ष्मी के साथ ही गणेशजी, कुबेर और मां सरस्वती की पूजा भी होती है। लक्ष्मी पूजा प्रदोषकाल में होती है। दीपावली के पर्व को लेकर मुख्यत: सात लोकप्रिय पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। दिवाली पर दीवाली की कहानी जरूर पढ़ें।
दीपावली भारतीय पर्वों में सबसे प्रमुख पर्व है। यह वर्तमान में ही नहीं, बल्कि युगों से मनाया जा रहा है, जिसका प्रमाण इससे जुड़ी इन पाँच पौराणिक कथाओं में मिलता है, जो इसे केवल एक पर्व नहीं, बल्कि 'दीपोत्सव का महापर्व' बनाती हैं।
दीपावली भारतीय पर्वों में सबसे प्रमुख पर्व है। यह वर्तमान में ही नहीं, बल्कि युगों से मनाया जा रहा है, जिसका प्रमाण इससे जुड़ी इन पाँच पौराणिक कथाओं में मिलता है, जो इसे केवल एक पर्व नहीं, बल्कि 'दीपोत्सव का महापर्व' बनाती हैं।
1. सतयुग की दीपावली: देवी लक्ष्मी का प्राकट्य
दीपावली का आरंभ सतयुग में हुए समुद्र मंथन से जुड़ा है। जब देवता और दानवों ने मिलकर समुद्र मंथन किया, तो इस महाअभियान से ऐरावत, चंद्रमा, और हलाहल विष के साथ, अमृत घट लिए भगवान धन्वंतरि भी प्रकट हुए। इसीलिए, स्वास्थ्य के आदिदेव धन्वंतरि की जयंती यानी कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी (धनतेरस) से दीपोत्सव का महापर्व आरंभ होता है। तत्पश्चात, इसी महामंथन से धन, ऐश्वर्य और समृद्धि की देवी महालक्ष्मी जन्मीं। सारे देवताओं द्वारा उनके स्वागत में दीप जलाकर प्रथम दीपावली मनाई गई।
2. दूसरी कथा: एक बार सनतकुमार ने ऋषि-मुनियों से कहा- महानुभाव! कार्तिक की अमावस्या को प्रातःकाल स्नान करके भक्तिपूर्वक पितर तथा देव पूजन करना चाहिए। उस दिन रोगी तथा बालक के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति को भोजन नहीं करना चाहिए। सायंकाल विधिपूर्वक लक्ष्मी का मंडप बनाकर उसे फूल, पत्ते, तोरण, ध्वजा और पताका आदि से सुसज्जित करना चाहिए। अन्य देवी-देवताओं सहित लक्ष्मी का षोड्शोपचार पूजन करना चाहिए। पूजनोपरांत परिक्रमा करनी चाहिए।
मुनिश्वरों ने पूछा- लक्ष्मी पूजन के साथ अन्य देवी-देवताओं के पूजन का क्या कारण है?
सनतकुमारजी बोले- लक्ष्मीजी समस्त देवी-देवताओं के साथ राजा बलि के यहां बंधक थीं। तब आज ही के दिन भगवान विष्णु ने उन सबको कैद से छुड़ाया था। बंधन मुक्त होते ही सब देवता लक्ष्मीजी के साथ जाकर क्षीरसागर में सो गए।
3. त्रेतायुग की दीपावली: अंधकार पर प्रकाश की विजय
त्रेतायुग भगवान श्रीराम के नाम से अधिक पहचाना जाता है। महाबलशाली राक्षसेन्द्र रावण को पराजित कर और 14 वर्ष वनवास में बिताकर, जब भगवान श्रीराम अयोध्या वापस आए, तो सारी नगरी दीपमालिकाओं से सजाई गई। यह पर्व अंधकार पर प्रकाश की विजय का चिरस्थायी प्रतीक बन गया।
4. द्वापर युग की दीपावली: नरकासुर वध, अंधकार पर प्रकाश की विजय
दीपोत्सव के एक दिन पूर्व रूप चतुर्दशी को भगवान श्रीकृष्ण ने अत्याचारी राक्षस नरकासुर का वध किया था, इसीलिए इसे नरक चतुर्दशी भी कहा जाता है। नरकासुर के वध की खुशी में अलगे दिन द्वारिका और मथुरा वासियों ने दीप जलाकर उत्सव मनाया था।
5. कलियुग की दीपावली: आत्म-ज्योति का महामिलन
वर्तमान कलियुग दीपावली को महान ज्ञानियों के निर्वाण के साथ भी जोड़ता है। स्वामी रामतीर्थ और स्वामी दयानंद के निर्वाण को भारतीय ज्ञान और मनीषा के दैदीप्यमान अमरदीपों के रूप में स्मरण किया जाता है। इनसे पूर्व, जैन धर्म के त्रिशलानंदन महावीर ने भी अपनी आत्मज्योति के परम ज्योति से महामिलन (निर्वाण) के लिए इसी पर्व को चुना था, जिनकी दिव्य आभा आज भी संसार को प्रेम, अहिंसा और संयम का अद्भुत प्रतिमान दिखाती है।
6. साहूकार की बेटी और माता लक्ष्मी की कथा (पूजन कथा):
दिवाली के दिन लक्ष्मी पूजन के समय एक साहूकार की बेटी और माता लक्ष्मी से जुड़ी एक पारंपरिक कथा भी सुनी जाती है, जिसमें श्रद्धा, प्रेम और सत्कार के महत्व को बताया गया है, जिसके फलस्वरूप साहूकार के घर में सुख-संपत्ति आती है। इन कथाओं के कारण दिवाली का त्योहार केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व का पर्व बन गया है, जिसे बुराई पर अच्छाई की जीत, ज्ञान के प्रकाश और समृद्धि के आगमन के रूप में मनाया जाता है।
7. माता लक्ष्मी और वृद्ध महिला की कथा: एक बार कार्तिक मास की अमावस को लक्ष्मीजी भ्रमण पर निकलीं। चारों ओर अंधकार व्याप्त था। वे रास्ता भूल गईं। उन्होंने निश्चय किया कि रात्रि वे मृत्युलोक में गुजार लेंगी और सूर्योदय के पश्चात बैकुंठधाम लौट जाएँगी, किंतु उन्होंने पाया कि सभी लोग अपने-अपने घरों में द्वार बंद कर सो रहे हैं। तभी अंधकार के उस साम्राज्य में उन्हें एक द्वार खुला दिखा जिसमें एक दीपक की लौ टिमटिमा रही थी। वे उस प्रकाश की ओर चल दीं। वहाँ उन्होंने एक वृद्ध महिला को चरखा चलाते देखा। रात्रि विश्राम की अनुमति माँग कर वे उस बुढ़िया की कुटिया में रुकीं।
वृ्द्ध महिला लक्ष्मी देवी को बिस्तर प्रदान कर पुन: अपने कार्य में व्यस्त हो गई। चरखा चलाते-चलाते वृ्द्धा की आँख लग गई। दूसरे दिन उठने पर उसने पाया कि अतिथि महिला जा चुकी है किंतु कुटिया के स्थान पर महल खड़ा था। चारों ओर धन-धान्य, रत्न-जेवरात बिखरे हुए थे। कथा की फलश्रुति यह है कि माँ लक्ष्मीदेवी जैसी उस वृद्धा पर प्रसन्न हुईं वैसी सब पर हों। और तभी से कार्तिक अमावस की रात को दीप जलाने की प्रथा चल पड़ी। लोग द्वार खोलकर लक्ष्मीदेवी के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे।