"हमारे दोस्त हमें व्यापार में लूट नहीं सकते। दोस्ती अलग है, डील अलग।" — डोनाल्ड ट्रंप, The Art of the Deal
डोनाल्ड ट्रंप की वापसी के साथ ही वैश्विक कूटनीति एक बार फिर अस्थिरता और एकतरफावाद की ओर बढ़ रही है। और इस बार ट्रंप का सीधा निशाना भारत है— एक ऐसा देश जिसे उन्होंने कभी "सच्चा दोस्त" और "शानदार लोकतंत्र" कहा था।
2025 में ट्रंप के फिर से राष्ट्रपति बनने के कुछ महीनों के भीतर ही उन्होंने भारत से अमेरिका आने वाले सभी उत्पादों पर 25% टैरिफ़ लागू करने का आदेश दिया है। यह कदम सिर्फ व्यापारिक नहीं, बल्कि कूटनीतिक तौर पर भी एक झटका है — ख़ासकर उस दोस्ती की पृष्ठभूमि में जो कभी "हाउडी मोदी" और "नमस्ते ट्रंप" जैसे आयोजनों में सार्वजनिक हुई थी। लेकिन क्या यह टैरिफ़ युद्ध सिर्फ व्यापारिक असहमति है, या इसके पीछे कुछ और गहरी परतें छिपी हैं?
अमेरिका फर्स्ट" बनाम "मेक इन इंडिया": टकराव की बुनियाद
ट्रंप के टैरिफ़ आदेश को कई वैश्विक विश्लेषक “trade coercion” — व्यापारिक जबरदस्ती — कह रहे हैं। उन्होंने भारत की 'गैर-बराबरी वाली' व्यापार नीतियों को "घृणित" बताते हुए रूस से भारत के रिश्तों पर भी तीखी आलोचना की।
हैरानी की बात यह है कि भारत और अमेरिका के बीच 2024 के अंत तक लगभग 195 बिलियन डॉलर का व्यापार हुआ, जो ऐतिहासिक उच्चतम था। फिर भी ट्रंप भारत को "ट्रेड अब्यूज़र" कह रहे हैं। ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन के वरिष्ठ फैलो टॉम राइट के अनुसार, "ट्रंप की विदेश नीति संस्थानों और ऐतिहासिक साझेदारियों को कमजोर करती है। वो रिश्तों को सौदेबाज़ी की तरह देखते हैं— पैसा दो, समर्थन लो। भारत के साथ उनका व्यवहार अब वैसा ही हो गया है, जैसा उन्होंने चीन या नाटो देशों के साथ किया था।"
भारत की 'डेड इकोनॉमी': ट्रंप की रणनीति या अपमानजनक बयानबाज़ी?
ट्रंप का बयान— "मुझे फर्क नहीं पड़ता कि रूस और भारत अपनी डेड इकोनॉमी को कैसे संभालते हैं" — न सिर्फ़ भारत की आर्थिक स्थिति पर सीधा हमला है, बल्कि भारत की वैश्विक छवि को भी चोट पहुंचाता है। गौरतलब है कि IMF और विश्व बैंक के अनुमान के मुताबिक, भारत 2025 में विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है। ऐसे में 'डेड इकोनॉमी' जैसा बयान तर्क-संगत नहीं, बल्कि रणनीतिक रूप से अपमानजनक माना जा रहा है।
पुलित्जर पुरस्कार विजेता पत्रकार डेविड के जॉनसन, जिन्होंने ट्रंप की आर्थिक नीतियों पर किताब “The Big Cheat” लिखी है, मानते हैं कि “ट्रंप अक्सर तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर अपने एजेंडे को आगे बढ़ाते हैं। उनका बयान भारत को झुकाने की कूटनीतिक चाल है— विशेषकर तब जब भारत रूस से तेल और हथियार खरीदता रहे।”
रूस-भारत के संबंध: इतिहास, सामरिक साझेदारी और अमेरिका की बेचैनी : भारत-रूस के रक्षा संबंध दशकों पुराने हैं। S-400 मिसाइल डील, सुखोई, AK-203 राइफल उत्पादन — ये सब भारत की रक्षा नीति के केंद्र में रहे हैं। अमेरिका इस पर लंबे समय से असहज रहा है, लेकिन ट्रंप के बयान ने इस बेचैनी को खुले में ला दिया है। कार्नेगी एंडोमेंट फॉर इंटरनेशनल पीसकी विश्लेषक एलिसा आयर्स के मुताबिक: “ट्रंप की समस्या सिर्फ रूस नहीं है, उनकी समस्या यह है कि भारत ने अमेरिका को प्राथमिकता नहीं दी। यह बयान भारत की रणनीतिक स्वतंत्रता पर हमला है।”
"हाउडी मोदी" से लेकर "डेड इकोनॉमी" तक: दोस्ती की राजनीति का अंत?
2019-20 के भव्य आयोजनों में जब मोदी और ट्रंप ने एक-दूसरे को "ट्रू फ्रेंड" कहा था, तब दुनिया को उम्मीद थी कि भारत-अमेरिका रिश्तों का नया दौर शुरू हो रहा है। लेकिन ट्रंप की वापसी के साथ यह दोस्ती "ट्रांजैक्शनल रिलेशनशिप" बनती दिख रही है। "Fire and Fury" के लेखक माइकल वोल्फ ने ट्रंप की मनोवृत्ति को कुछ इस तरह व्याख्यायित किया है: “ट्रंप को दोस्ती नहीं, जीत चाहिए। जब तक आप उनकी बात मानते हैं, वो आपके दोस्त हैं। लेकिन अगर आपने इनकार किया, तो आप उनके निशाने पर आ जाते हैं।”
पाकिस्तान कार्ड: कूटनीति या आत्मघाती दांव?
ट्रंप का यह दावा कि उन्होंने "भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध रोका", भारत की विदेश नीति के मूलभूत सिद्धांतों को चुनौती देता है। भारत हमेशा से तीसरे पक्ष की मध्यस्थता को खारिज करता रहा है। ट्रंप का इसी दौरान पाकिस्तान के साथ तेल भंडारण समझौता करना, जबकि भारत पर टैरिफ़ थोपना — यह संदेश देता है कि ट्रंप "काउंटरबैलेंस" की रणनीति खेल रहे हैं। पर क्या यह रणनीति अमेरिका के हित में है?
RAND Corporation के वरिष्ठ विश्लेषक एडवर्ड लुटवाक का कहना है: “ट्रंप पाकिस्तान को फिर से उभारने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन ये 21वीं सदी की कूटनीति में आत्मघाती हो सकता है, क्योंकि इससे भारत को रूस और ईरान की तरफ धकेला जा सकता है।”
क्या यह ट्रंप का "चाइना मोमेंट" है — लेकिन भारत के खिलाफ?
चीन के साथ ट्रंप की ट्रेड वॉर की शुरुआत 2018 में हुई थी, जब उन्होंने चीनी आयात पर भारी टैरिफ़ लगाए। उसी पैटर्न पर अब भारत निशाने पर है। लेकिन फर्क यह है कि भारत एक लोकतांत्रिक सहयोगी है, जो इंडो-पैसिफिक में अमेरिका की सामरिक योजना का अहम स्तंभ है।
भारत की चुनौती और अवसर : भारत को दोहरे दबाव का सामना करना पड़ रहा है— एक ओर रूस के साथ ऐतिहासिक संबंध, दूसरी ओर अमेरिका के साथ रणनीतिक साझेदारी। इस बीच चीन, ब्रिक्स और ग्लोबल साउथ के मंचों पर भारत अपनी जगह बना चुका है।
भारत को अब तीन मोर्चों पर नीति तैयार करनी होगी:
1. ट्रंप के व्यवहार को व्यक्तिगत नहीं, रणनीतिक दृष्टिकोण से पढ़ना।
2. रूस के साथ संबंधों को बनाए रखते हुए, अमेरिका को विकल्प देना (जैसे रक्षा उत्पादन में साझेदारी)।
3. टैरिफ़ के खिलाफ WTO जैसे मंचों पर कानूनी चुनौती या द्विपक्षीय समझौते से समाधान।
दोस्ती से दबाव तक, क्या बदल गया है?
डोनाल्ड ट्रंप के बयानों और नीतियों से यह स्पष्ट है कि 2025 के ट्रंप, 2019 वाले ट्रंप नहीं हैं। दोस्ती की जगह अब सौदेबाज़ी, साझेदारी की जगह अब दबाव और सहयोग की जगह प्रतिस्पर्धा दिख रही है। भारत के लिए यह वक्त है एक शांत, परंतु स्पष्ट नीति अपनाने का— जो न झुके, न टकराए, बल्कि अपने रणनीतिक हितों को सबसे ऊपर रखे।