पर्यावरण और जीवन : एक-दूजे के पूरक

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पर्यावरण व जीव के निर्माण और विघटन में अद्भुत और विचित्र साम्य है। पर्यावरण और जीवन एक-दूजे के पूरक हैं। वे सदैव साथ-साथ चलते हैं और उनका अवसान भी साथ-साथ ही होता है।

पर्यावरण परमार्थी है तथा जीव स्वार्थी है। अपने निहित स्वार्थ के लिए मनुष्य ने बिना सोचे-समझे अंधाधुंध औद्योगिकीकरण कर हवा में विषैली तथा जानलेवा गैसों का समावेश करा हवा को प्रदूषित कर दिया है। दूषित गैसें पानी में घुल गईं, इस तरह पानी भी दूषित हो गया। उसने धरा को भी नहीं बख्शा और वनों का सफाया कर दिया। रासायनिक खादों, उर्वरकों और दवाओं से धरा को प्रदूषित कर दिया।

आज धरा पर पेड़ों के जंगल के स्थान पर इमारतों के जंगल हैं। विकास की अंधी दौड़ में जो कुछ वन बच गए हैं या जिन्हें बचाया गया है उनमें वन्य प्राणी, पशु-पक्षी नदारद हैं। वनों और पेड़ों के सफाए ने मानसून पर भी प्रभाव डाला है। अल्प वर्षा ने जीव को धरती के गर्भ में छिपे पानी के दोहन की राह बता दी नतीजतन धरती का गर्भ भी सूखने लगा।

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प्रदूषित हवा, पानी के संपर्क में रहने से धरा भी प्रदूषित हो गई जिससे धरा का ताप बढ़ गया। आणविक विस्फोटों, जनसंख्या का दबाव, वाहनों के आधिक्य ने हवा को गर्म कर दिया। इस गर्म हवा ने ओजोन परत पर, बर्फ के ग्लेशियरों पर और पूरे पर्यावरण पर प्रभाव डाला, जिससे ग्लोबल वार्मिंग बढ़ी।

इससे पहले कि पर्यावरण और जीवन समाप्ति की कगार पर आ जाए जरूरी है कि अधिकाधिक पौधे लगाकर वन विकसित किए जाएं और वन्य प्राणियों की संख्या बढ़ाने की दिशा में कदम उठाया जाए। वाहनों की बढ़ती संख्या, रासायनिकों, परमाणु योजनाओं व धरती के दोहन पर प्रभावी नियंत्रण लगाया जाए। बढ़ती जनसंख्या पर नियंत्रण रखा जाए व पर्यावरण हितैषी उत्पादों के उपभोग को प्राथमिकता दें। यदि हम ऐसा करेंगे तो बढ़ते प्रदूषण के घनत्व को रोकने में अवश्य कामयाब हो सकेंगे।

पर्यावरण के सुधार के लिए बातों की नहीं काम की आवश्यकता है और यह काम अभी से शुरू हो तो ठीक वरना उदासीनता व लापरवाही का नतीजा आने वाली पीढ़ी को भुगतना होगा।

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